दिल्ली में आप पार्टी के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया एवं अफसरों के खिलाफ केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने शराब माफियाओं को फायदा पहुंचाने की नीयत से नई आबकारी नीति में फेरबदल का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज की है। यह पहला मौका नहीं है जब किसी सत्तारुढ़ पार्टी पर शराब माफिया को फायदा पहुंचाने के लिए आबकारी नीतियों में परिवर्तन करने का आरोप लगा है। देश में शायद ही ऐसा कोई राज्य होगा जिसकी सरकारें शराब माफियाओं से प्रभावित नहीं होंगी। दिल्ली के मामले में हालांकि अदालत के फैसले तक ही यह तय हो सकेगा कि वाकई केजरीवाल सरकार ने माफिया के फायदे के लिए नीतियों में बदलाव किया है या नहीं। अलबत्ता राजनीतिक दलों और शराब माफियाओं का चोली दामन का साथ रहा है। देश में ऐसा भी शायद ही कोई राज्य होगा जिसमें नेताओं की शराब के व्यवसाय में भागीदारी नहीं होगी। नेता अपने परिवार के नाम से इस व्यवसाय को चलाते हैं। राजस्थान उत्तर प्रदेश पंजाब तमिलनाडु सहित दूसरे राज्यों में नेताओं पर शराब माफिया होने के आरोप लगते रहे हैं।
शराब एक ऐसा व्यवसाय है जो दिखने में कानून के अनुसार ही चलता है किन्तु हकीकत में इसमें तीन तरह के माफिया कार्यरत हैं। पहले व्यवसायी वो हैं जो कानूनी तरीके से समूह बनाकर या एकल रूप में राज्यों की आबकारी नीति के मुताबिक शराब की दुकानें या ठेके लेते हैं। इन्हें हर हाल में शराब बिक्री के तौर पर एक निश्चित राशि राज्य को देनी होती है। शराब के ऐसे जायज ठेकेदार सरकार की आबकारी नीति को तोड़ने-मरोड़ने की ताकत रखते हैं। ज्यादातर नेताओं की शराब के ठेके में भागीदारी इसी तरह की होती है। शराब के ऐसे व्यवसायी समय-समय पर राजनीतिक दलों के नेताओं और अफसरों को उपकृत करते रहते हैं ताकि सरकार की दयादृष्टि उन पर बनी रहे। यह सरकार की मर्जी है कि राज्य में क्षेत्र के हिसाब से शराब के ठेके दिए जाएं या दुकानें आवंटित की जाएं। इसके अलावा तयशुदा शराब की ब्रिकी नहीं करने पर राजस्व को हुए घाटे के बावजूद राज्य सरकार ही ठेकेदारों की गारंटी राशि में छूट देने या नहीं देने का निर्णय करती हैं। दिल्ली की आप सरकार पर भी इसी तरह का आरोप लगाया गया है।
दूसरी तरह के शराब माफिया वो होते हैं जो अपने राज्य में शराब बिक्री के टारगेट पूरा करने के लिए चोरी-छिपे दूसरे राज्यों में शराब की तस्करी करते हैं। इनमें ज्यादातर वो ही ठेकेदार शामिल होते हैं जिन्होंने जायज तरीके से शराब का ठेका लिया होता है। ऐसे ठेकेदार खासतौर पर सीमावर्ती राज्यों के जिलों में आबकारी और पुलिस विभाग की मिलीभगत से शराब की तस्करी करते हैं। गुजरात इसका उदाहरण है। गुजरात और बिहार में शराबबंदी लागू है लेकिन यहां शराब मयसर हो जाती है। राजस्थान के बॉर्डर से लगे जिलों से शराब की तस्करी गुजरात में की जाती है। पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक चुनावी कार्यक्रम के दौरान गुजरात में आसानी से शराब मिलने का आरोप लगाया था हालांकि गहलोत ने यह नहीं बताया कि यह शराब आती कहां से है। इस आरोप का गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने खंडन किया था और इसे गुजरात सरकार को बदमान करने की साजिश बताया था।
इन दो तरह के शराब माफियाओं के बाद तीसरी तरह का शराब माफिया क्षेत्र विशेष में कच्ची या देसी शराब का गैरकानूनी कारोबार करता है। यह माफिया देश के लगभग सभी राज्यों में सक्रिय है। यह माफिया विशेष कर गरीब और मजदूर वर्ग के लिए अवैध शराब का उत्पादन करता है। इसकी बनाई हुई शराब की कीमत राज्य में मिलने वाली देसी शराब की कीमत से काफी कम होती है। इसके फलने-फूलने का असली कारण भी यही है। देश में होने जहरीली शराब से होने वाली मौतों के लिए भी यही माफिया जिम्मेदार है। माफिया की धरपकड़ के लिए पुलिस-आबकारी विभाग में चूहे-बिल्ली जैसी दौड़ लगी रहती है। इसके बावजूद इस माफिया का पूरी तरह खात्मा कभी नहीं हो पाया। पिछले दिनों बिहार और गुजरात में ऐसी ही जहरीली शराब पीने से दर्जनों लोगों की मौत हो गई थी। बिहार में हाल ही में नीतिश सरकार में उपमुख्यमंत्री बने राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने राज्य के एक मंत्री पर अवैध रूप से शराब की ब्रिकी से जुड़े होने का आरोप लगाया था।
सवाल यह भी है कि आखिर शराब से होने वाले तमाम तरह के नुकसान के बावजूद राज्यों की सरकारें इसकी बिक्री को बढ़ावा क्यों देती है इसका जवाब है इसकी बिक्री से मिलने वाला भारी राजस्व। जिससे राज्य अपनी कल्याणकारी योजनाएं संचालित करते हैं। देश में शराब की ब्रिकी से सरकारों को करीब तीन लाख करोड़ रुपए की कमाई होती है। कई राज्यों की कुल कमाई का 10 से 20 फीसदी हिस्सा शराब की बिक्री से ही आता है। राज्य सरकारें हर साल इससे मिलने वाले राजस्व के लक्ष्य में कुछ प्रतिशत वृद्धि करती रहती हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि शराब चाहे जितनी भी हानिकारक हो इसका कारोबार सरकारों की छत्रछाया में फलफूल रहा है। कोई भी सरकार इतनी भारी कमाई से हाथ धोना नहीं चाहती। इसके अलावा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों के लिए यही माफिया शराब और धन का भी इंतजाम करता है ताकि कमजोर तबके के मतदाताओं को आकर्षित किया जा सके। ऐसे में सरकार द्वारा माफियाओं के काले कारनामों के खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर बल्कि सरकार किसी न किसी तरह उन्हें उपकृत करने की जुगत में लगी रहती हैं। आबकारी और पुलिस के तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद शराब माफियाओं पर नकेल लगाना सरकारों के बूते से बाहर है। ऐसे में राज्यों में शराब के ठेके दिए जाने के दौरान नीतियों को सुगम बनाने और शराब कारोबारियों को छूट देने के आरोप सत्तारुढ़ दलों पर लगते रहेंगे।