दिव्या काकरान के संघर्ष की कहानी पिता घर में सिले लंगोट बेचकर चलाते थे घर पहले दंगल में लड़के को दी थी पटखनी

दिव्या काकरान के संघर्ष की कहानी पिता घर में सिले लंगोट बेचकर चलाते थे घर पहले दंगल में लड़के को दी थी पटखनी

मुजफ्फरनगर के गांव पुरबालियान की बेटी दिव्या काकरान 5 अगस्त को बर्मिंघम कॉमनवेल्थ गेम्स में पहला मैच खेलेंगी। सिर्फ 21 साल की उम्र में अर्जुन अवार्ड जीतने वाली दिव्या के पीछे संघर्ष की कहानी है। उनके पिता सूरज पहलवान अखाड़ों में लंगोट बेचते थे। मां संयोगिता घर में लंगोट सिलती थीं। सूरज को आर्थिक तंगी की वजह से पहलवानी छोड़नी पड़ी थी।


जब दिव्या कुश्ती में लड़कों को पछाड़ने लगीं तो गांव में खिलाफत भी शुरू हुई थी। इससे परेशान होकर दिव्या को दिल्ली शिफ्ट करना पड़ा था। उसी दिव्या की कामयाबी आज एक उदाहरण बन चुकी है। दिव्या मंगलवार को कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए रवाना हो गईं।


पहली कुश्ती में लड़के को किया था चित


पिता सूरज सेन कहते हैं 14 लोगों के परिवार में हम आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। पहलवानी छोड़ चुका था। दंगल के दौरान लंगोट बेचकर जो पैसे मिलते थे उसी से घर चलता था। दिव्या बड़ी हो रही थी। घर में ही खेल के दौरान वो कुश्ती के दांव-पेंच दिखाने लगी थी।


वो कहते हैं मुझे दिव्या को पहलवान बनाने की चाहत पहले से ही थी। एक दिन मैं दिव्या को अपने साथ एक दंगल में ले गया। यहां एक जानकार ने दिव्या से उसके बेटे को कुश्ती लड़ाने को कहा। हार-जीत पर 500 रुपए का ईनाम रखा गया। मैंने भी इंकार नहीं किया। दिव्या ने पहली कुश्ती में ही लड़के को चित कर दिया। उसे ईनाम में 3 हजार रुपए मिले थे। पहली बार मुझे लगा कि दिव्या कुश्ती में पैसा कमा सकती है।


दूध लेने के पैसे नहीं होते थे दिव्या को पैसों के लिए पहलवान बनाया

सूरज कहते हैं मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि दिव्या को पैसों के लिए पहलवान बनाया। एक वक्त पर हमारे पास दूध के भी पैसे नहीं होते थे। दिव्या ने दंगल जीतना शुरू किया तो परिवार का खर्च चला। इसके बाद दिव्या ने फ्री स्टाइल कुश्ती में पीछे मुड़कर नहीं देखा। अंतरराष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिताओं में गोल्ड मेडल की झड़ी लगा दी। सिर्फ 21 साल की उम्र में दिव्या को अर्जुन अवार्ड से नवाजा गया।


लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार नहीं- दिव्या

दिव्या आज अंतर राष्ट्रीय पहलवान बन चुकी हैं। दिव्या ने खुद भी स्वीकार किया कि उनके गांव में लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार नहीं दिए जाते। इसलिए वह लड़कों से आगे निकलकर इस मिथक को तोड़ना चाहती थीं। कुश्ती लड़नी शुरू की तो सबसे पहला विरोध गांव से ही हुआ। इसलिए गांव छोड़कर दिल्ली आकर बसना पड़ा। मैंने सबसे पहले लड़को को हराना शुरू किया और साबित किया कि बेटियां भी किसी से कम नहीं।

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