संसद में हंगामा करना सरकार को घेरने का सबसे कमजोर तरीका है

संसद में हंगामा करना सरकार को घेरने का सबसे कमजोर तरीका है

संसद का मानसून सत्र भारी हंगामे की भेंट चढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है कोई ठोस कामकाज अथवा राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर सार्थक चर्चा न होना विपक्ष की भूमिका पर गंभीर प्रश्नचिन्ह है। यह भारतीय लोकतंत्र की बड़ी कमजोरी बनती जा रही है कि सरकार को जरूरी एवं राष्ट्रीय मुद्दों पर घेरने की बजाय उसको नीचा दिखाने कमजोर करने एवं उसके कामकाज को धुंधलाने की कुचेष्टा के लिये हंगामा खड़ा कर दिया जाता है। आजकल यह रिवाज हो गया है कि संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला-गुल्ला करके ही सरकार की नजर में ला सकते हैं जिससे वे या उनका दल चिंतित हैं। अजीब बात है कि संसद में शोरगुल का रास्ता अपना कर संसद का मूल्यवान समय व्यर्थ कर रहे हैं जबकि उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं। संसदीय नियमावली में इतने सारे हथियार मौजूद हैं कि शोरशराबे की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए। फिर सदन की कार्यवाही में बाधा डालने का तरीका अपनाने का क्या औचित्य है? हंगामे के कारण संसद के जारी मानसून सत्र के दौरान लोकसभा और राज्य सभा में कुछ सांसदों को निलंबित किया गया है। राज्यसभा में एक साथ 19 सदस्यों का पूरे हफ्ते के लिए निलंबन सदन में एक बार में निलंबित होने वाले सदस्यों की सबसे बड़ी संख्या है। इस तरह सांसदों का निलंबन उनकी अयोग्यता एवं अपात्रता को ही दर्शाता है।


महंगाई और आवश्यक चीजों पर वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) लगाने पर बहस को लेकर संसद में सियासी रार और बढ़ गई है। पहले जो विपक्ष इस मांग के साथ हंगामा कर रहा था कि अग्निपथ योजना महंगाई जीएसटी आदि पर चर्चा की जाए वह अब इस कारण दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित कर सकता है कि उसके सदस्यों को हंगामा मचाने के कारण निलंबित क्यों किया गया? जो भी हो पक्ष-विपक्ष में इस पर कोई सहमति न बन पाना चिन्ताजनक एवं सोचनीय स्थिति है कि किस विषय पर कब और कैसे चर्चा हो? लोकमान्य तिलक का मंतव्य था कि मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिन्दा राष्ट्र का लक्षण है। लेकिन राजनीति की गिरावट ने लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है सांसदों के लिये दल प्रमुख एवं राष्ट्र गौण हो गया है। इन स्थितियों से देश का वातावरण दूषित होता है बिना वजह तिल को ताड़ बना दिया जाता है। जिससे देश का वातावरण विषाक्त एवं भ्रान्त बनता है।


निश्चित ही जीवन-निर्वाह की अनेक वस्तुओं पर जीएसटी लगाने से जनता की परेशानियां बढ़ी हैं। स्पष्ट है कि महंगाई एक मुद्दा है- न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में। इस मसले पर संसद में चर्चा भी होनी चाहिए लेकिन विपक्ष की ओर से यह जो कहने की कोशिश की जा रही है कि सरकार जानबूझकर महंगाई बढ़ा रही है वह नारेबाजी की राजनीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह विपक्ष की सोच का दिवालियापन है यह सरकार को घेरने का निस्तेज हथियार है। विपक्षी दलों एवं उनके सांसदों को औचित्यपूर्ण तर्क एवं तथ्यपरकता से आलोचना एवं चर्चा करनी चाहिए। भारत में महंगाई बढ़ने का कारण रूस-यूक्रेन युद्ध एवं उससे उत्पन्न अंतरराष्ट्रीय आर्थिक कारण है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जबकि दुर्भाग्य से विपक्ष उन कारणों की अनदेखी कर रहा है बल्कि यह वातावरण बनाने की भी चेष्टा कर रहा है कि केवल भारत में ही महंगाई बढ़ रही है। विपक्ष इस तथ्य से भी मुंह चुरा रहा है कि हाल में विभिन्न उत्पादों और सेवाओं को जीएसटी के दायरे में लाने का जो निर्णय हुआ उसे उस जीएसटी परिषद ने स्वीकृति दी जिसमें विपक्ष शासित राज्यों के वित्त मंत्री भी शामिल थे। इस परिषद में सभी फैसले सर्वसम्मति से लिए जाते हैं। क्या जब जीएसटी परिषद में फैसले लिए जा रहे थे तब विपक्ष शासित राज्यों के वित्त मंत्री यह नहीं समझ पा रहे थे कि इससे कुछ उत्पाद महंगे होंगे? प्रश्न यह भी है कि क्या विपक्ष यह चाहता है कि भारत सरकार उन परिस्थितियों की अनदेखी कर दे जिनके चलते श्रीलंका का दीवाला निकल गया और कुछ अन्य देश दीवालिया होने की ओर बढ़ रहे हैं? निःसंदेह विपक्ष को संसद में अपनी बात कहने का अधिकार है लेकिन इस अधिकार की आड़ में यदि वह केवल हंगामा करेगा तो इससे न तो उसे कुछ हासिल होने वाला है और न ही देश को क्योंकि आम जनता यह अच्छे से समझती है कि देश-दुनिया के आर्थिक हालात कैसे हैं?


संसद के गलियारों में विपक्षी सांसदों का एक स्वर सुनने को मिल रहा है कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं। यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है। बतौर सांसद आज नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं जिनसे सरकार को वे किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्नकाल ही है। सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्नकाल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल पूछे जा सकते हैं। मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल-माल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं। मौखिक प्रश्नों के अलावा बहुत सारे प्रश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है। अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम 55 के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है। सरकार की नीयत पर लगाम लगाये रखने के लिए विपक्ष के पास काम रोको प्रस्ताव का रास्ता भी खुला होता है। इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और यह अगर पास हो गया तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा प्रस्ताव माना जाता है सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इसके रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती हैं। जाहिर है संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम करवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं। लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब चालीस करोड़ से ज्यादा आबादी के प्रतिनिधि शोरगुल के जरिए अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है। इस तरह की स्थितियां सांसदों की साख पर सवाल उठाती हैं।


महंगाई और जीएसटी पर सार्थक बहस से ज्यादा हंगामा विपक्षी सांसदों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की जांच एजेन्सियों की कार्रवाई पर बरपा है। चोरी ऊपर से सीना जोरी वाली स्थिति है। इसीलिये सोमवार को लोकसभा के चार कांग्रेस सदस्यों के निलंबन के बाद मंगलवार को सरकार ने राज्यसभा में हंगामा और आसन के निरादर के आरोप में सदन में प्रस्ताव लाकर विपक्ष के 19 सदस्यों को पूरे सप्ताह की कार्यवाही से निलंबित करा दिया। शुक्रवार तक ये सभी सदस्य सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकते। कांग्रेस आप राजद माकपा और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं का आरोप है कि सरकार केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करके विपक्ष को निशाना बना रही है। विपक्षी नेताओं ने कहा कि कानून तो कानून होता है और उस पर अमल बिना किसी पक्षपात या भय के होना चाहिए। लेकिन इसका दुरुपयोग उस तरह नहीं किया जा सकता जिस तरह से अभी किया जा रहा है। लेकिन विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं को यह भी सोचना होगा कि भ्रष्टाचार तो भ्रष्टाचार ही है। इस तरह भ्रष्टाचार को होते हुए देखना तो सरकार की नाकामी ही मानी जायेगी। अगर बिना किसी कारण के ऐसी कार्रवाई होती है तो विपक्षी शक्तियों को सक्रिय होना चाहिए। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा कि सदन को सुचारू रूप से न चलने देना देश के साथ अन्याय है। इसलिए निलंबन की कार्यवाही सही कदम है। पर अभी जैसे बीज बोये जा रहे हैं उससे अच्छी खेती यानी लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

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