भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त और स्वतंत्र संस्था के रूप में लोकपाल का गठन किया गया था। उद्देश्य स्पष्ट था— सत्ता के गलियारों में फैले भ्रष्टाचार पर नकेल कसना और सार्वजनिक जीवन में शुचिता को संस्थागत रूप देना। परंतु विडंबना देखिए कि आज वही संस्था, जिसके गठन से आम जनता ने पारदर्शिता और सादगी की उम्मीद की थी, अब अपनी छवि पर सवालों के घेरे में है। वजह है लोकपाल कार्यालय की ओर से सात बीएमडब्ल्यू 330Li एम स्पोर्ट कारों की खरीद के लिए जारी किया गया करोड़ों रुपये का निविदा आमंत्रण।
यह कदम न केवल नैतिक दृष्टि से सवाल खड़े करता है, बल्कि उस वैचारिक आधार को भी कमजोर करता है जिस पर लोकपाल की इमारत खड़ी की गई थी। जब संस्था का गठन हुआ था, तब लोग उम्मीद कर रहे थे कि लोकपाल सत्ताधारी वर्ग की जवाबदेही तय करेगा। लेकिन आज, जब लोकपाल खुद विलासिता की राह पर अग्रसर दिखाई देता है, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या यह वही संस्था है जिसके लिए देश की जनता सड़कों पर उतरी थी?
हम आपको बता दें कि लोकपाल कार्यालय द्वारा जारी टेंडर में कहा गया है कि ये वाहन संस्थान के "अध्यक्ष एवं सदस्यों" के उपयोग हेतु होंगे। सवाल यह है कि एक ऐसी संस्था, जिसे सार्वजनिक धन की शुचिता पर नजर रखनी चाहिए, वह खुद इतने महंगे वाहनों की खरीद को कैसे उचित ठहरा सकती है? जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी सामान्य सिडान कारों से कार्य कर सकते हैं, तब लोकपाल के लिए करोड़ों की जर्मन गाड़ियाँ क्यों आवश्यक हैं?
कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने इसी तर्क को रेखांकित करते हुए पूछा है, “जब सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश साधारण गाड़ियों में चलते हैं, तो लोकपाल को बीएमडब्ल्यू की क्या आवश्यकता है?” यह प्रश्न केवल राजनीतिक नहीं, ल्कि नैतिक और प्रशासनिक संवेदनशीलता का भी है।
जनता के कर के पैसे से बनी संस्थाओं की जवाबदेही जनता के प्रति होती है। परंतु जब ऐसी संस्थाएँ अपने ही संसाधनों को विलासिता में व्यय करने लगें, तो यह संकेत है कि व्यवस्था में आत्ममुग्धता प्रवेश कर चुकी है। यह बात भी विचारणीय है कि अब तक लोकपाल ने कितने बड़े भ्रष्टाचार मामलों में कार्रवाई की है? वर्ष 2014 से लेकर अब तक, इस संस्था की उपलब्धियाँ नगण्य रही हैं। कई राज्यों में लोकायुक्त सक्रिय हैं, लेकिन राष्ट्रीय लोकपाल की भूमिका अधिकतर औपचारिक ही दिखी है। ऐसे में करोड़ों रुपये खर्च कर विलासिता का यह प्रदर्शन, न केवल नैतिक असंगति है, बल्कि जनता के विश्वास का भी दुरुपयोग है।
विपक्षी नेताओं के अलावा नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत ने भी इस निविदा पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि लोकपाल को यह टेंडर रद्द कर "मेक इन इंडिया" की भावना के अनुरूप महिंद्रा या टाटा के इलेक्ट्रिक वाहनों का चयन करना चाहिए था। यह सुझाव केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और सांस्कृतिक दृष्टि से भी सार्थक है। जब देश "आत्मनिर्भर भारत" और "ईवी मिशन" की दिशा में अग्रसर है, तब विदेशी विलासिता को अपनाना आत्मनिर्भरता की भावना के विपरीत है।
देखा जाये तो लोकपाल जैसी संस्था का नैतिक बल उसकी सादगी और ईमानदारी में निहित होता है। यदि वही संस्था आम जनता से कटकर अभिजात्य मानसिकता अपनाने लगे, तो उसका नैतिक अधिकार स्वतः कमजोर हो जाता है। यह केवल एक टेंडर का मामला नहीं है; यह उस सोच का प्रतीक है जिसमें “सेवा” की जगह “सुविधा” ने ले ली है।
बहरहाल, लोकपाल के गठन का मकसद भ्रष्टाचार से लड़ना था, न कि जनसंसाधनों से विलासिता का आनंद लेना। इस प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि संस्थाएँ अपने आदर्शों से विचलित हों, तो वह जनता की नज़र में अपनी विश्वसनीयता खो देती हैं। लोकपाल को चाहिए कि वह इस निर्णय पर पुनर्विचार करे, निविदा को रद्द करे और एक बार फिर उस सादगी की राह पर लौटे, जिसकी प्रेरणा से उसका जन्म हुआ था।
सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार केवल धन के लेनदेन से नहीं, बल्कि मानसिकता से शुरू होता है। जब शुचिता की प्रतीक संस्था ही विलासिता की प्रतीक बन जाए, तो यह केवल विडंबना नहीं, बल्कि चेतावनी है— उस आदर्श की, जो धीरे-धीरे धुंधला पड़ता जा रहा है।
- नीरज कुमार दुबे
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
