इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा है कि यदि एक नाबालिग अपनी इच्छा से कानूनी अभिभावक को छोड़ दे तो ऐसी परिस्थिति में अपहरण का मामला नहीं बनता।
इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान ने एक व्यक्ति के खिलाफ अपहरण का मामला रद्द कर दिया और कहा कि एक नाबालिग लड़की के साथ महज बातचीत से यह नहीं माना जा सकता कि बहकाकर उसे कानूनी अभिभावक से अलग किया गया है।
न्यायाधीश ने कहा कि जब कोई नाबालिग स्वेच्छा से और अपनी इच्छा से कानूनी अभिभावक को छोड़ देता है, तो ऐसी परिस्थितियों में आईपीसी की धारा 361 (कानूनी अभिभावक से अपहरण) लागू नहीं होती
अदालत ने 10 सितंबर के अपने निर्णय में आरोपी हिमांशु दूबे द्वारा दायर याचिका स्वीकार कर ली। दूबे ने इस आपराधिक मामले में दाखिल आरोप पत्र और संपूर्ण मुकदमे को रद्द करने का अदालत से अनुरोध किया था।
दिसंबर, 2020 में दर्ज प्राथमिकी में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि आरोपी उसकी 16 साल की भतीजी को बहला फुसलाकर भगा ले गया। जांच के दौरान, लड़की ने पुलिस और निचली अदालत के समक्ष दिए बयान में बताया कि उसके परिजन उसे मारा पीटा करते थे और बिजली का झटका तक देते थे जिसकी वजह से उसने खुद घर छोड़ दिया।
लड़की ने अपने बयान में यह भी कहा था कि वह मोबाइल फोन पर किसी से बातचीत करती थी जिसकी वजह से उसके चाचा उसे मारते पीटते थे। लड़की का दावा है कि पुलिस थाने ले जाए जाने से पूर्व दो दिनों तक वह सिवान में रही।
यद्यपि उसने अपने बयान में याचिकाकर्ता का नाम नहीं लिया, उसकी मां ने याचिकाकर्ता के साथ अपनी बेटी के संबंध के बारे में बताया। इस आधार पर याचिकाकर्ता ने इस मामले को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का रुख किया।
याचिकाकर्ता ने दलील दी कि कथित पीड़िता ने इस मामले में उसकी संलिप्तता का आरोप नहीं लगाया था क्योंकि उसने यह स्वीकार नहीं किया कि वह याचिकाकर्ता के साथ भागी।