Modi-Putin Meeting सफल रही या Alaska में Trump-Putin Meeting सफल रही थी? Ukraine War का अब क्या होगा?

Modi-Putin Meeting सफल रही या Alaska में Trump-Putin Meeting सफल रही थी? Ukraine War का अब क्या होगा?

चीन के तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण संकेत दिए। यह मुलाकात केवल द्विपक्षीय सहयोग तक सीमित नहीं रही, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन और यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भी अहम रही। देखा जाये तो यूक्रेन संकट पर हाल की कूटनीतिक हलचलों ने यह प्रश्न उठाया है कि शांति की राह किसके प्रयासों से अधिक प्रशस्त हुई है— अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पुतिन की अलास्का मुलाकात से, या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पुतिन की तियानजिन भेंट से?

ट्रंप सफल रहे या मोदी?

हम आपको बता दें कि ट्रंप–पुतिन वार्ता ने पहली बार यह संकेत दिया था कि मॉस्को और वॉशिंगटन “लेन-देन आधारित समझ” की ओर बढ़ सकते हैं। पुतिन ने इस वार्ता को सकारात्मक बताते हुए उम्मीद जताई थी कि यह यूक्रेन विवाद के दीर्घकालिक समाधान का आधार बन सकती है। किंतु इस बातचीत का दायरा सीमित रहा, मुख्यतः नाटो के विस्तार को रोकने और प्रतिबंधों में ढील जैसे मुद्दों पर। देखा जाये तो अलास्का मीटिंग के दौरान ट्रंप की शैली व्यावहारिक और समझौता आधारित अवश्य रही थी लेकिन उसमें वैश्विक शांति के नैतिक तर्क कम और शक्ति-राजनीति के समीकरण अधिक थे।

दूसरी ओर, मोदी–पुतिन मुलाकात ने एक अलग छवि प्रस्तुत की। मोदी ने खुले तौर पर संघर्षविराम और मानवीय आधार पर शांति-स्थापना की वकालत की। उन्होंने रूस के राष्ट्रपति को यह भी याद दिलाया कि युद्ध का दीर्घकालिक समाधान केवल सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि वार्ता और सहयोग से संभव है। मोदी का दृष्टिकोण महज भू-राजनीतिक हितों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे “मानवता की जिम्मेदारी” कहा। यह संदेश अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए कहीं अधिक व्यापक और स्वीकार्य है।


देखा जाये तो जहाँ ट्रंप–पुतिन वार्ता ने रूस को सामरिक आश्वासन देने का रास्ता सुझाया, वहीं मोदी–पुतिन संवाद ने युद्ध से जर्जर जनता की पीड़ा को केंद्र में रखा। यही कारण है कि भारत की मध्यस्थ भूमिका को रूस ने सराहा और चीन ने भी सकारात्मक दृष्टि से देखा। एक तरफ ट्रंप की पहल व्यावहारिक सौदेबाजी का मंच तैयार करती है, तो दूसरी तरफ मोदी की पहल शांति को वैचारिक वैधता और नैतिक बल प्रदान करती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भारत की भूमिका एक “नैतिक मध्यस्थ” के रूप में अधिक उभरती दिख रही है, जो भविष्य में शांति-स्थापना की प्रक्रिया को गति दे सकती है।


हम आपको यह भी बता दें कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अलास्का में व्लादिमीर पुतिन के साथ हुई वार्ता अपेक्षित परिणाम नहीं ला सकी इसलिए तियानजिन में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पुतिन की गर्मजोशी से भरी मुलाकात सुर्खियों में आई, तो ट्रंप की निगाहें स्वाभाविक रूप से उसी पर टिक गईं थीं। पुतिन के साथ साझा की गई विश्वासपूर्ण मित्रता और भारत की तटस्थ, परंतु सक्रिय भूमिका ने यूक्रेन संकट में मोदी की छवि को शांति-सेतु के रूप में उभारा है। इसलिए तियानजिन की वह तस्वीरें, जहाँ मोदी और पुतिन हाथ में हाथ डाले शी जिनपिंग की ओर बढ़ते दिखाई दिए या मोदी और पुतिन एक ही कार में सवार दिखाई दिये, उन्हें संभवतः ट्रंप बार-बार देखते हुए यही सोच रहे होंगे कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यक्तिगत भरोसा और नैतिक दृष्टिकोण, कभी-कभी शक्ति आधारित राजनीति से अधिक असरदार सिद्ध होते हैं।


मोदी-पुतिन वार्ता के निहितार्थ

जहां तक मोदी और पुतिन के बीच हुई द्विपक्षीय वार्ता की बात है तो आपको बता दें कि इस दौरान आर्थिक, वित्तीय और ऊर्जा क्षेत्रों में सहयोग की समीक्षा की गई। दोनों नेताओं ने ‘स्पेशल एंड प्रिविलेज्ड स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ को और मजबूत करने पर बल दिया। इस दौरान प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि भारत-रूस के रिश्ते कठिन समय में भी कंधे से कंधा मिलाकर चलते आए हैं। पुतिन ने मोदी को “प्रिय मित्र” कहकर संबोधित किया और अपनी बुलेटप्रूफ Aurus लिमोज़िन में उन्हें विशेष रूप से साथ लेकर गए। यह दृश्य न केवल व्यक्तिगत विश्वास का प्रतीक था बल्कि यह संदेश भी देता है कि रूस भारत को वैश्विक मंच पर एक प्राथमिक साझेदार मानता है। वार्ता का सबसे संवेदनशील बिंदु यूक्रेन संकट रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने संघर्षविराम और शांति-स्थापना की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से भी हाल ही में वार्ता के दौरान शांति प्रक्रिया का समर्थन किया था।


हम आपको यह भी बता दें कि अमेरिका द्वारा भारत पर अतिरिक्त टैरिफ लगाए जाने के बाद पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात हुई है। यह मुलाकात केवल व्यापार और ऊर्जा सहयोग तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसमें मोदी ने दृढ़ता से यूक्रेन युद्ध समाप्त करने का आह्वान किया। मोदी का यह आह्वान बताता है कि भारत अब केवल “तटस्थ दर्शक” नहीं है, बल्कि युद्ध की मानवीय त्रासदी को देखते हुए सक्रिय शांति-सूत्रधार बनना चाहता है। अमेरिकी दबाव और वैश्विक आलोचना के बीच भारत का यह रुख न केवल उसकी रणनीतिक स्वायत्तता का प्रतीक है, बल्कि यह भी दिखाता है कि भारत वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए नैतिक नेतृत्व की भूमिका निभाने को तैयार है।


व्लादिमीर पुतिन का बयान

दूसरी ओर, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत के बाद यह दोहराया कि यूक्रेन में स्थायी शांति तभी संभव है जब नाटो के पूर्व की ओर विस्तार की समस्या का समाधान हो। यह वक्तव्य केवल रूस की सुरक्षा चिंताओं का बयान नहीं है, बल्कि यूरोपीय शक्ति-संतुलन की ऐतिहासिक खींचतान को भी सामने लाता है। उल्लेखनीय है कि फरवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर बड़े पैमाने पर आक्रमण किया था जिसके परिणामस्वरूप वह अब तक उसका लगभग पाँचवां हिस्सा अपने नियंत्रण में ले चुका है। पश्चिमी देश इसे साम्राज्यवादी भूमि-हरण बताते हैं, जबकि पुतिन इसे "गिरते हुए पश्चिम" के विरुद्ध रूस की गरिमा की लड़ाई मानते हैं। उनका दावा है कि बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पश्चिम ने रूस को अपमानित किया और नाटो का विस्तार कर उसकी सुरक्षा को चुनौती दी।


देखा जाये तो इस बहस की जड़ें 2008 के बुकारेस्ट सम्मेलन में मिलती हैं, जब नाटो ने यूक्रेन और जॉर्जिया की सदस्यता को भविष्य के लिए मंजूरी दी। 2019 में यूक्रेन ने अपने संविधान में नाटो और यूरोपीय संघ की सदस्यता को स्थायी लक्ष्य घोषित किया। यही वह कदम था जिसने रूस की बेचैनी को निर्णायक मोड़ दिया। पुतिन का तर्क है कि शांति-समाधान की राह तभी खुलेगी जब पश्चिम लिखित आश्वासन दे कि नाटो आगे नहीं बढ़ेगा और रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी। उन्होंने यह भी बताया कि हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ अलास्का में हुई उनकी बातचीत ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक समझौते के संकेत दिए हैं।


दिलचस्प बात यह है कि पुतिन ने भारत और चीन की शांति-स्थापना संबंधी कोशिशों की सराहना की है। यह कूटनीतिक संदेश स्पष्ट करता है कि मॉस्को अब एशिया की बड़ी शक्तियों को मध्यस्थता और समर्थन के लिए आवश्यक मानता है। साथ ही, भारत और चीन रूस के कच्चे तेल के सबसे बड़े खरीदार बने हुए हैं, भले ही अमेरिका ने इस पर अतिरिक्त शुल्क लगाया हो। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि क्या रूस की शांति-शर्तें वास्तविक समाधान की ओर कदम हैं या केवल रणनीतिक दबाव बनाने का प्रयास। नाटो के विस्तार का मुद्दा पश्चिम के लिए "सुरक्षा विस्तार" और रूस के लिए "सुरक्षा खतरा" बना हुआ है। इस खींचतान में यूक्रेन की जनता सबसे बड़ी पीड़ित है।


भारत के लिए आगे की राह

इस बीच, भारत के लिए चुनौती यह है कि वह ऊर्जा हितों को सुरक्षित रखते हुए भी शांति-प्रक्रिया में नैतिक भूमिका निभा सके। SCO मंच पर मोदी की मौजूदगी ने यह संभावना खोली है कि भारत, चीन और रूस मिलकर पश्चिम को एक वैकल्पिक संवाद की दिशा में धकेल सकते हैं। परंतु यह तभी सफल होगा जब सभी पक्ष अपने ऐतिहासिक अविश्वास को पीछे छोड़ वास्तविक समाधान की ओर बढ़ें। देखा जाये तो भारत की कूटनीति स्पष्ट रूप से संतुलन साध रही है। एक ओर रूस के साथ दशकों पुराने सामरिक संबंध और ऊर्जा आयात, दूसरी ओर पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक साझेदारी और रणनीतिक संवाद। मोदी का यह रुख दर्शाता है कि भारत मध्यस्थ या “शांति-सेतु” की भूमिका निभाना चाहता है। पुतिन के दिसंबर में भारत आने की संभावना भारत-रूस संबंधों को और गति देगी। लेकिन असली परीक्षा यह होगी कि क्या भारत रूस और पश्चिम के बीच कूटनीतिक पुल का काम कर पाएगा, या केवल ऊर्जा और व्यापारिक साझेदारी तक सीमित रहेगा?


बहरहाल, SCO शिखर सम्मेलन ने एक बार फिर दिखाया कि भारत वैश्विक कूटनीति में “रणनीतिक स्वायत्तता” की नीति पर अडिग है। मोदी-पुतिन की गर्मजोशी और यूक्रेन पर भारत का संतुलित दृष्टिकोण इस बात का प्रमाण है कि भारत न तो किसी गुट में बंधना चाहता है और न ही वैश्विक शांति-प्रक्रिया से अलग रहना चाहता है। आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत की यह मध्यस्थ भूमिका वास्तविक समाधान तक पहुँच पाती है या नहीं।

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