बिहार में इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर माह में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में वहां पर चुनाव आयोग के द्वारा जारी स्पेशल इंटेंसिव रिविजन यानी एसआईआर पर पक्ष-विपक्ष आमने सामने है और मामला मीडिया माध्यम से आगे बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक पहुंच चुका है। इसलिए उम्मीद है कि देर आयद, दुरुस्त आयद करते हुए न्यायालय ऐसे दिशा निर्देश जारी करेगा कि भविष्य में राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की सांठगांठ से चलने वाले मतदाता सूची सम्बन्धी खेल पर पूर्ण विराम लग सके।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को बिहार में वोटर लिस्ट की समीक्षा के लिए आधार, राशन और वोटर कार्ड को भी मान्यता देने का सुझाव देकर न केवल आम लोगों की मुश्किल हल करने की कोशिश की है, बल्कि ऐसा करने से इसकी प्रक्रिया भी ज्यादा आसान होगी और विभिन्न आशंकाओं को कम करने में मदद मिलेगी। इस बात में कोई दो राय नहीं कि फर्जी नाम मतदाता सूची में नहीं होने चाहिए। इसके अलावा, किसी भी विदेशी व्यक्ति का नाम भी मतदाता सूची में नहीं होना चाहिए, अन्यथा मतदाता सूची की विश्वसनीयता सवालों के कठघरे में रहेगी।
कोर्ट का सही मानना है कि ऐसे एसआईआर अभियानों के दौरान आयोग का जोर ज्यादा से ज्यादा नाम वोटर लिस्ट से निकालने के बजाय, इस पर होना चाहिए कि एक भी नागरिक चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने से वंचित न रह जाए। जहां तक इसे लेकर संशय की स्थिति है तो आधार, राशन कार्ड या जॉब कार्ड को मान्य दस्तावेजों की लिस्ट से बाहर रखने के कारण बड़ी आबादी के सामने संकट खड़ा हो गया है।
ऐसे में सुलगता सवाल है कि जिस आधार पर आप लोगों को सरकारी धनराशि से सहूलियत देते हैं, उसी महत्वपूर्ण पहचान आधार को आप एसआईआर में खारिज कैसे कर सकते हैं। आपके ऐसा करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से जो संस्थागत लूट चल रही है, उसकी अब सोशल ऑडिट जरूरी है, क्योंकि इस मामले में पक्ष-विपक्ष सभी शामिल हैं। सच कहूं तो इससे भारत के उन मूल निवासियों को क्षति हो रही है जिनका देश की सरकार और संसाधनों पर पहला अधिकार होना चाहिए।
हमारा आशय उस हिन्दू वर्ग से है जो धार्मिक आधार पर राष्ट्र विभाजन के बाद भी राजनीतिक व संवैधानिक षड्यंत्र का शिकार होता आया है। जब पाकिस्तान व बंगलादेश इस्लामीकरण की राह पर बढ़ रहे हैं तो भारत की धर्मनिरपेक्षता हिंदुओं के साथ बेमानी प्रतीत हो रही है। आलम यह है कि मुस्लिम नेता पाकिस्तान व बंगलादेश से मुसलमानों को बुलाकर यहां बसा रहे हैं और उन्हें सरकारी पहचान पत्र दिलवाने में मदद कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति को रोकने-टोकने की प्रशासनिक विफलता या मिलीभगत से कई सवाल पैदा हो रहे हैं, जो हिंदुओं के दूरगामी हित के लिए से चेतावनी दे रहे हैं।
ऐसे में एसआईआर की जरूरत है। साथ ही, सरकारी पहचान पत्र बनवाने और उससे लाभान्वित होने के पूरे खेल की समीक्षा हो और जिम्मेदार अधिकारियों, नेताओं और उनके दलों के खिलाफ ऐसी कड़ी कार्रवाई हो, कि उनके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगे, राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त हो और अधिकारियों-कर्मचारियों की बर्खास्तगी की जाए। क्योंकि ये लोग भारत के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, केवल किशनगंज जिले में एक हफ्ते के भीतर निवास प्रमाण पत्र के लिए दो लाख से ज्यादा आवेदन आ चुके हैं। कई जगह घर-घर जाकर इंयुमरेशन फॉर्म्स (Enumeration Forms) बांट रहे कर्मियों ने लोगों से कहा है कि वे आधारकार्ड की कॉपी ही जमा करा दें। लिहाजा ऐसे कंफ्यूजन से बेहतर है कि आयोग बीच का रास्ता निकाले।
जहां तक एसआईआर के समय पर सवाल है तो शीर्ष अदालत ने स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (Special Intensive Revision) पर रोक तो नहीं लगाई, लेकिन इसके समय को लेकर जो सवाल उठाया, वह बिल्कुल वाजिब है। ऐसा इसलिए कि बिहार में इसी साल के आखिर तक विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में इतनी विस्तृत कवायद के लिए शायद उतना वक्त न मिल पाए, जितना मिलना चाहिए। लिहाजा बिहार में एसआईआर को लेकर जो असमंजस है, उसकी एक वजह इसका समय भी है। जिनके पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, वे इतनी जल्दी उनका इंतजाम नहीं कर पाएंगे।
हालांकि आयोग ने कोर्ट को भरोसा दिलाया है कि किसी को भी अपनी बात रखने का मौका दिए बिना मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जाएगा। वहीं, जहां तक नागरिकता पर फैसला का सवाल है तो बताया गया है कि इस अभियान का उद्देश्य ऐसा नहीं है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि यह मुद्दा लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा है और लोकतंत्र में सबसे अहम है लोक यानी जनता। लेकिन, चुनाव आयोग की मौजूदा प्रक्रिया में जनता को ही सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है। यह रिवीजन जुड़ा है वोटर लिस्ट से, लेकिन मैसेज जा रहा है कि इससे नागरिकता तय होगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से राहत मिलेगी कि निर्वाचन आयोग का नागरिकता से कोई लेना-देना नहीं है।
हालांकि, इतना तो तय है कि इस एसआईआर अभियान का असर अब पूरे देश पर पड़ेगा। ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन जबतक संविधान में अमूलचूल बदलाव नहीं होगा तबतक इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाने में मुश्किल आएगी।चूंकि यह मामला केवल बिहार तक सीमित रहने वाला नहीं है। ऐसे में दूसरे राज्यों में वोटर लिस्ट की समीक्षा किस तरह होगी, यह बिहार में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया पर निर्भर करेगा। क्योंकि अगला नम्बर पश्चिम बंगाल और असम का आएगा जहां अगले साल चुनाव होंगे।
ऐसे में स्वाभाविक ही नजरें इस बात पर टिकी हैं कि सुप्रीम कोर्ट में आखिरकार इस प्रक्रिया का कैसा स्वरूप तय होता है। इसी से यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत के इस्लामीकरण का यह परोक्ष अभियान निकट भविष्य में थमेगा या जारी रहेगा। क्योंकि इसके तार अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र से जुड़े हुए हैं। अमेरिका-पाकिस्तान-चीन दशकों से इस कोशिश में जुटे हैं, क्योंकि हमारी सरकारें भी अपने वोट बैंक के लिहाज से काम करती आई हैं, भारतीय राष्ट्रवाद के हिसाब से नहीं। खासकर 15 अगस्त 1947 के बाद उतपन्न अप्रत्याशित स्थिति से!
होना तो यह चाहिए कि भारत सरकार का जनसंख्या रजिस्टर ऑनलाइन हो। उसमें स्पष्ट उल्लेख हो कि इस ग्राम या मोहल्ले का फलां व्यक्ति अब फलां जगह के लिए पलायन कर गया है। उसका एक जन्म प्रमाण पत्र बने जो पूरे देश में लागू हो। मृत्यु प्रमाण पत्र की अनिवार्यता बने।सभी दस्तावेज इसी आधार पर बनें और पूरे देश में लागू हों। बैंक भी उसी आधार पर खाता खोलें। आज राशन कार्ड, मजदूर जॉब कार्ड, आधार कार्ड की आड़ में जो संस्थागत लूट चल रही है, वह रूके। लेकिन रोकेगा कौन? जो भ्रष्ट हैं, जांच का जिम्मा उनसे लेकर अन्य को दिया जाए। सोशल ऑडिट से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। डीएम, एसडीएम की ऐसी लापरवाहियों के लिए स्थायी जांच एजेंसी बने। उसकी रिपोर्ट राजनीतिक दांवपेंच से बाहर रहकर लागू करने का प्रावधान बने। इसलिए यक्ष प्रश्न है कि बिहार में मतदाता पहचान पत्र से जुड़े सुलगते सवालों का जवाब आखिर देगा कौन?