ऑपरेशन सिंदूर के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनने के बाद से ही कांग्रेस सांसद शशि थरूर सुर्खियों में बने हुए हैं. अब थरूर ने इमरजेंसी पर एक आर्टिकल लिखा है और इसमें आपातकाल की जमकर आलोचना की है. साल 1975 में इंदिरा गांधी के शासन में लगी इमरजेंसी को लेकर उन्होंने उस वक्त के हालात और अपने विचार सामने रखे हैं. उन्होंने अपने इस आर्टिकल में कहा कि आज का भारत 1975 वाला नहीं है.
कांग्रेस पार्टी के लिए इमरजेंसी एक पेचीदा और अहम मुद्दा रहा है, खासकर जब से 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है और उसने 25 जून को, जिस दिन आपातकाल की घोषणा हुई थी, संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है. इस साल भी बीजेपी ने 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया. वहीं, कांग्रेस ने बीजेपी के वार पर पलटवार करते हुए कहा कि बीजेपी ने देश में “अघोषित आपातकाल” लगा दिया है. इसी बीच अब थरूर के आर्टिकल ने सियासी पारा बढ़ा दिया है.
थरूर ने इमरजेंसी की जमकर की आलोचना
थरूर ने कहा, 25 जून, 1975 को भारत एक नई रियालिटी के साथ जागा. हवाएं सामान्य सरकारी घोषणाओं से नहीं, बल्कि एक भयावह आदेश से गूंज रही थीं. इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई थी. 21 महीनों तक, मौलिक अधिकारों को सस्पेंड कर दिया गया, प्रेस पर लगाम लगा दी गई और राजनीतिक असहमति को बेरहमी से दबा दिया गया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने अपनी सांस रोक ली. 50 साल बाद भी, वो काल भारतीयों की याद में “आपातकाल” के रूप में जिंदा है.
आर्टिकल में आगे कहा गया, पीएम इंदिरा गांधी को लगा था कि सिर्फ आपातकाल की स्थिति ही आंतरिक अव्यवस्था और बाहरी खतरों से निपट सकती है. अराजक देश में अनुशासन ला सकती है. जब इमरजेंसी का ऐलान हुआ, तब मैं भारत में था, हालांकि मैं जल्द ही ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया और बाकी की सारी चीजें वहीं दूर से देखी. जब इमरजेंसी लगी तो मैं काफी बैचेन हो गया था. भारत के वो लोग जो ज़ोरदार बहस और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के आदी थे, एक भयावह सन्नाटे में बदल गया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जोर देकर कहा कि ये कठोर कदम जरूरी थे.
“असहमति को बेरहमी से दबाया गया”
थरूर ने कहा, न्यायपालिका इस कदम का समर्थन करने के लिए भारी दबाव में झुक गई, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) और नागरिकों के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के निलंबन को भी बरकरार रखा. पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा. व्यापक संवैधानिक उल्लंघनों ने मानवाधिकारों के हनन की एक भयावह तस्वीर को जन्म दिया. शशि थरूर ने आगे कहा, उस समय जिन लोगों ने शासन के खिलाफ आवाज उठाने का साहस किया उन सभी को हिरासत में लिया गया. उनको यातनाएं झेलनी पड़ी.
नसबंदी अभियान पर साधा निशाना
आर्टिकल में लगभग दो वर्षों तक चले इमरजेंसी के दौरान की गई ज्यादतियों में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे और राहुल गांधी के चाचा स्वर्गीय संजय गांधी की भूमिका का भी जिक्र किया गया.
शशि थरूर ने नसबंदी अभियान का जिक्र करते हुए कहा, आगे कहा गया, दरअसल, “अनुशासन” और “व्यवस्था” की चाहत अक्सर क्रूरता में तब्दील हो जाती थी. इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान थे, जो गरीब और ग्रामीण इलाकों में केंद्रित थे, जहां मनमाने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जबरदस्ती और हिंसा का इस्तेमाल किया जाता था. दिल्ली जैसे शहरी केंद्रों में निर्ममता से की गई झुग्गी-झोपड़ियों को ढहाने की कार्रवाई ने हजारों लोगों को बेघर कर दिया और उनके कल्याण की कोई चिंता नहीं की गई.
कांग्रेस सांसद ने कहा, बाद में इन कामों को दुर्भाग्यपूर्ण अत्याचार कहकर कम करके आंका गया. कुछ लोग तो कह सकते हैं कि आपातकाल के बाद एक पल के लिए राजनीति में व्यवस्था आ गई थी. लेकिन ये हिंसा उस सिस्टम का नतीजा थी जहां बिना रोक-टोक की ताकत तानाशाही बन चुकी थी. भले ही उस व्यवस्था ने थोड़ी शांति दी, लेकिन इसके लिए हमें अपनी लोकतांत्रिक आत्मा की भारी कीमत चुकानी पड़ी.
“इमरजेंसी हटने के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई”
शशि थरूर ने कहा, असहमति को दबाना, स्वतंत्र रूप से एकत्रित होने, लिखने और बोलने के मौलिक अधिकारों का हनन, संवैधानिक मानदंडों के प्रति घोर अवमानना ने भारत की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी. हालांकि न्यायपालिका ने अपनी रीढ़ पा ली, लेकिन उसकी शुरुआती लड़खड़ाहट को जल्दी भुलाया नहीं जा सकेगा. इस दौर की “ज्यादतियों” ने अनगिनत लोगों के जीवन को गहरा और स्थायी नुकसान पहुंचाया. इसी का नतीजा था कि लोगों ने मार्च 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद हुए पहले स्वतंत्र चुनावों में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को भारी मतों से सत्ता से बाहर करके दिया.
“इमरजेंसी से क्या सबक सीखने चाहिए?”
कांग्रेस सांसद ने कहा, इमरजेंसी की घोषणा की 50वीं वर्षगांठ जो ऐसे समय में आई है जब कई देशों में गहरे ध्रुवीकरण और लोकतांत्रिक मानदंडों के लिए चुनौतियां हैं ऐतिहासिक चिंतन और आत्मनिरीक्षण का मौका है. आपातकाल ने इस बात का उदाहरण पेश किया कि लोकतांत्रिक संस्थाएं कितनी कमजोर हो सकती हैं, यहां तक कि ऐसे देश में भी जहां वे दिखने में मजबूत हैं.
इमरजेंसी की आलोचना करते हुए कहा, इसने हमें याद दिलाया कि एक सरकार अपनी नैतिक दिशा और उन लोगों के प्रति जवाबदेही की भावना खो सकती है जिनकी वह सेवा करने का दावा करती है. इसने दिखाया कि स्वतंत्रता का क्षरण अक्सर कैसे होता है. शुरुआत में नेक-दिखने वाले मकसद के नाम पर छोटी-छोटी लगने वाली स्वतंत्रताओं को छीना जाता है, जब तक कि “परिवार नियोजन” और “शहरी नवीनीकरण” जबरन नसबंदी और मनमाने ढंग से घरों को तोड़ने का तरीका नहीं बन जाते.
थरूर ने आगे कहा, इस अनुभव के सबक कई गुना और स्थायी हैं. पहला, सूचना की स्वतंत्रता और स्वतंत्र प्रेस सर्वोपरि हैं. जब चौथे स्तंभ पर हमला होता है, तो जनता उस जानकारी से वंचित रह जाती है जिसकी उसे राजनीतिक नेताओं को जवाबदेह ठहराने के लिए जरूरत होती है.
दूसरा, लोकतंत्र एक स्वतंत्र न्यायपालिका पर निर्भर करता है जो कार्यपालिका के अतिक्रमण के विरुद्ध एक सुरक्षा कवच के रूप में काम करने में सक्षम और इच्छुक हो. न्यायिक आत्मसमर्पण – भले ही अस्थायी हो – इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
तीसरा सबक – जो शायद हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल में सबसे प्रासंगिक है – यह है कि बहुमत द्वारा समर्थित एक अति-अभिमानी सरकार, लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर सकती है, खासकर जब वह सरकार अपनी अचूकता के प्रति आश्वस्त हो और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए जरूरी नियंत्रणों और संतुलनों के प्रति अधीर हो. आपातकाल ठीक इसलिए संभव हुआ क्योंकि सत्ता अभूतपूर्व स्तर तक केंद्रीकृत थी और असहमति को देशद्रोह के बराबर माना जाता था.
“आज का भारत 1975 वाला नहीं है”
थरूर ने कहा, आज का भारत 1975 जैसा नहीं है. हम अब ज्यादा आत्मविश्वासी, ज्यादा समृद्ध और कई तरीकों से एक मजबूत लोकतंत्र हैं. फिर भी, आपातकाल से मिली सीख आज भी बेहद अहम हैं. सत्ता का केंद्रीकरण, आलोचकों को दबाना और संवैधानिक सुरक्षा को नजरअंदाज करना, ये चीजें आज भी नए-नए रूपों में सामने आ सकती हैं. अक्सर इसे राष्ट्रीय हित या स्थिरता की आड़ में छुपाया जाता है. इसलिए, आपातकाल हमें एक मजबूत चेतावनी देता है. लोकतंत्र के बड़े दिग्गजों को हमेशा सतर्क रहना चाहिए.
उन्होंने आगे कहा, हम सभी – भारत और दुनिया भर में – जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, हमें खुद से पूछना चाहिए. क्या हम तानाशाही शासन के आगमन को पहचान सकते हैं, उसका विरोध तो छोड़ ही दें? क्या हम प्रेस से लेकर न्यायपालिका और नागरिक समाज तक, हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाली संस्थाओं की रक्षा के लिए पर्याप्त कोशिश कर रहे हैं? आइए इमरजेंसी को सिर्फ भारत के इतिहास का एक काला अध्याय न मानें, बल्कि इससे मिलने वाले सबकों को सीखें. दुनिया के हर व्यक्ति के लिए यह यादगार हो कि लोकतंत्र की कोई गारंटी नहीं होती. ये एक कीमती धरोहर है जिसे हमें हमेशा संभालकर रखना चाहिए और इसकी रक्षा करनी चाहिए.