मंगलवार से छठ महापर्व की शुरुआत होने वाली है। यह पूरी तरीके से प्राकृतिक को समर्पित महापर्व है जहां लोगों की आस्था सूर्य को समर्पित है। उगते सूर्य की तो हर कोई पूजा करता है, लेकिन छठ महापर्व में डूबते सूर्य की पूजा की जाती है। इस महापर्व में स्वच्छता और शांति का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। साथ ही साथ प्रसाद के रूप में जो कुछ भी होता है, वह पूरी तरीके से प्रकृति पर आधारित है। इसमें बाजार का सामान शामिल नहीं होता है। यह वैसा पर्व है जहां किसी पंडित की जरूरत नहीं, कोई मंत्र की जरूरत नहीं, जरूरत सिर्फ है तो सच्ची आस्था और समर्पण की। यहां हर भेदभाव मिट जाता है। एक ही घाट पर हर समाज और वर्ग से आने वाले लोग अर्घ्य देते हैं। अर्घ्य भी जल में खड़े होकर दिया जाता है।
सम्मान सबका बराबर है, सबकी आस्था बराबर है, सबका प्रसाद भी बराबर है। अर्घ्य के लिए जब पूरा गांव एक कतार छठ घाट के लिए निकलता हैं तो उसकी रौनक अलग ही होती है। यहां सभी एक सा लगते हैं। किसी में कोई बनावटी नहीं होता है। सब भगवान सूर्य और छठी माई की आस्था में शराबोर होते हैं। यहां पूजा करने का तरीका एक है। आप कितने भी बड़े आदमी क्यों ना हो, आपके टोकरी में भी वही ठेकुआ और फल होंगे जो किसी गरीब की टोकरी में होंगे। यही कारण है कि यह महापर्व अपने आप में सबसे अलग, सबसे अनूठा है।
छठी माई और भगवान भास्कर के लिए जो कुछ भी प्रसाद में मिलता है या बनता है, वह सभी प्रकृति से उपजे हुए हैं। अगर हम नहाए खाए से शुरू करें तो कहीं ना कहीं इस दिन कद्दू भात खाने का चलन है। यानी कि कद्दू की सब्जी जो कहीं से बनावटी नहीं है। यह सीधे खेतों से में उगता है और घर तक पहुंच जाता है। चावल जिसे भात भी बोलते हैं, यह भी पूरी तरीके से प्रकृति पर आधारित है। यहां कोई बनावटी या मिलावटी नहीं है।
इसी तरह खरना के दिन शुद्ध गेहूं के आटे की रोटी, गाय का घी और गुड़ तथा चावल में तैयार किया गया खीर कई सालों से हमारी परंपरा के हिस्सा रहे हैं। इसे मिट्टी के चूल्हे पर बनाया जाता है। साथ ही साथ जलावन के रूप में गाय के गोबर के उपले और आम की लकड़ी का प्रयोग होता है। यह पूरी तरीके से हमारी प्रकृतिक प्रेम को दर्शाता है यहां भी कुछ भी बाजारी सामान नहीं है। तीसरे दिन जब अर्घ्य की तैयारी होती है तो उस दिन भी हमें पूरी तरीके से प्राकृतिक पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
छठी माई या सूर्य देवता के लिए जो अर्घ्य में सामान रखे जाते हैं, वह फल-फलहरी होता है। यानी कि उस मौसम में जो फल उपलब्ध है, वही अर्घ्य पर जाता है जैसे कि सेब, संतरा, नारियल, नाशपाती, अमरूद, अनार, मूली, अदरक आदि...। वही एक खास प्रसाद ठेकुआ भी घर पर ही बनाया जाता है जिसे बनाने के लिए शुद्ध गेहूं के आटे, गुड़ और घी का इस्तेमाल किया जाता है। यह भी पूरी तरीके से घर और प्राकृतिक पर निर्भर है। यहां भी बाजार का कोई काम नहीं। सूर्य देवता को अर्घ्य देने के लिए जिस टोकरी का इस्तेमाल किया जाता है, वह बांस से बना हुआ होता है। कलसूप भी बांस से ही बनाया जाता है। कुल मिलाकर देखें तो छठ महापर्व स्वच्छता, समानता के साथ-साथ हमें प्रकृति को बचाने और इसकी सेवा पर जोर देने के लिए प्रेरित करता है।