मदरसा एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है। एससी ने इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है और मदरसा एक्ट को मान्यता दे दी है। शीर्ष अदालत ने 22 अक्टूबर को इन मामलों में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ ने मई में अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करने के उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी थी। मदरसा/मदरसा उन संस्थानों को संदर्भित करता है जहां छात्रों द्वारा इस्लामी अध्ययन और अन्य शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 ने मदरसा-शिक्षा को अरबी, उर्दू, फ़ारसी, इस्लामी-अध्ययन, दर्शन और सीखने की अन्य शाखाओं में शिक्षा के रूप में परिभाषित किया था जैसा कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है। 2004 अधिनियम का घोषित उद्देश्य मदरसों के कामकाज की निगरानी करके मदरसा शिक्षा बोर्ड को सशक्त बनाना था। इस अधिनियम को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। यह भी तर्क दिया गया कि यह 14 वर्ष की आयु/कक्षा-आठवीं तक गुणवत्तापूर्ण अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में विफल है, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत अनिवार्य रूप से प्रदान किया जाना आवश्यक है। हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से सहमति व्यक्त की थी और माना था कि राज्य के पास स्कूल स्तर पर प्रदान की जाने वाली शिक्षा के संबंध में कानून बनाने की पर्याप्त शक्ति है लेकिन ऐसी शिक्षा प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए। राज्य के पास धार्मिक शिक्षा के लिए बोर्ड बनाने या केवल किसी विशेष धर्म और उससे जुड़े दर्शन के लिए स्कूली शिक्षा के लिए बोर्ड स्थापित करने की कोई शक्ति नहीं है। राज्य की ओर से ऐसी कोई भी कार्रवाई धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है, जो पत्र में है और यह भारत के संविधान की भावना का भी उल्लंघन करता है, जो राज्य द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार का प्रावधान करता है।

मदरसा एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है। एससी ने इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है और मदरसा एक्ट को मान्यता दे दी है। शीर्ष अदालत ने 22 अक्टूबर को इन मामलों में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ ने मई में अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करने के उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी थी। मदरसा/मदरसा उन संस्थानों को संदर्भित करता है जहां छात्रों द्वारा इस्लामी अध्ययन और अन्य शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 ने मदरसा-शिक्षा को अरबी, उर्दू, फ़ारसी, इस्लामी-अध्ययन, दर्शन और सीखने की अन्य शाखाओं में शिक्षा के रूप में परिभाषित किया था जैसा कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है। 2004 अधिनियम का घोषित उद्देश्य मदरसों के कामकाज की निगरानी करके मदरसा शिक्षा बोर्ड को सशक्त बनाना था। इस अधिनियम को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। यह भी तर्क दिया गया कि यह 14 वर्ष की आयु/कक्षा-आठवीं तक गुणवत्तापूर्ण अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में विफल है, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत अनिवार्य रूप से प्रदान किया जाना आवश्यक है। हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से सहमति व्यक्त की थी और माना था कि राज्य के पास स्कूल स्तर पर प्रदान की जाने वाली शिक्षा के संबंध में कानून बनाने की पर्याप्त शक्ति है लेकिन ऐसी शिक्षा प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए। राज्य के पास धार्मिक शिक्षा के लिए बोर्ड बनाने या केवल किसी विशेष धर्म और उससे जुड़े दर्शन के लिए स्कूली शिक्षा के लिए बोर्ड स्थापित करने की कोई शक्ति नहीं है। राज्य की ओर से ऐसी कोई भी कार्रवाई धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है, जो पत्र में है और यह भारत के संविधान की भावना का भी उल्लंघन करता है, जो राज्य द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार का प्रावधान करता है।

प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़़ ने कहा है कि गणपति पूजा पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उनके आधिकारिक आवास पर आने में “कुछ भी गलत नहीं” था और ऐसे मुद्दों पर “राजनीतिक हल्कों में परिपक्वता की भावना” की जरूरत है। हम आपको याद दिला दें कि प्रधानमंत्री के प्रधान न्यायाधीश के आवास पर जाने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों और वकीलों के एक वर्ग ने इसके औचित्य और न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण को लेकर चिंता जताई थी। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहा था कि ‘‘यह देश की संस्कृति का हिस्सा है।’’

सीजेआई चंद्रचूड़ ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि इस बात का सम्मान किया जाना चाहिए कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवाद मजबूत अंतर-संस्थागत तंत्र के तहत होता है और दोनों की शक्तियों के पृथक्करण का मतलब यह नहीं है कि वे एक-दूसरे से मिलेंगे नहीं। उन्होंने कहा, "शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का यह अर्थ नहीं है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका इस भावना में एक-दूसरे से अलग हैं कि वे मिलेंगे नहीं या तर्कसंगत संवाद नहीं करेंगे। राज्यों में, मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय की प्रशासनिक समिति का मुख्यमंत्री से मिलने और मुख्यमंत्री के मुख्य न्यायाधीश से उनके आवास पर मिलने का एक प्रोटोकॉल है। इनमें से अधिकांश बैठकों में बजट, बुनियादी ढांचे, प्रौद्योगिकी आदि जैसे बुनियादी मुद्दों पर चर्चा की जाती है।”

सीजेआई ने प्रधानमंत्री के उनके आवास पर आने के बारे में कहा, “प्रधानमंत्री गणपति पूजा के लिए मेरे घर आए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि सामाजिक स्तर पर न्यायपालिका और कार्यपालिका से जुड़े व्यक्तियों के बीच निरंतर बैठकें होती हैं। हम राष्ट्रपति भवन में, गणतंत्र दिवस आदि पर मिलते हैं। हम प्रधानमंत्री और मंत्रियों से बात करते हैं। इस दौरान उन मामलों पर बात नहीं होती, जिनपर हमें फैसला लेना होता है, बल्कि सामान्य रूप से जीवन और समाज से जुड़े मामलों पर बात होती है।” दस नवंबर को सेवानिवृत्त होने जा रहे सीजेआई ने कहा, “इसे समझने और अपने न्यायाधीशों पर भरोसा करने के लिए राजनीतिक व्यवस्था में परिपक्वता की भावना होनी चाहिए, क्योंकि हम जो काम करते हैं उसका मूल्यांकन हमारे लिखित शब्दों से होता है। हम जो भी निर्णय लेते हैं उसे गुप्त नहीं रखा जाता है और उसपर खुलकर चर्चा की जा सकती है।”

उन्होंने कहा कि प्रशासनिक स्तर पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच होने वाली बातचीत का न्यायिक पक्ष से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा, "शक्तियों के पृथक्करण में यह प्रावधान है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका की भूमिका नहीं निभानी चाहिए जो नीतियां निर्धारित करती है, क्योंकि नीति निर्धारण की शक्ति सरकार के पास है। इसी तरह कार्यपालिका अदालती मामलों पर निर्णय नहीं करती। बातचीत होनी चाहिए क्योंकि आप न्यायपालिका में लोगों के भविष्य और जीवन के बारे में फैसला कर रहे होते हैं।” सीजेआई ने कहा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बातचीत का अदालती मामलों पर होने वाले फैसलों से कोई लेना-देना नहीं है। सीजेआई ने कहा, "यह मेरा अनुभव रहा है।"

इसके अलावा अयोध्या राम मंदिर विवाद के समाधान के लिए भगवान से प्रार्थना करने संबंधी उनके बयान पर भी काफी हंगामा हुआ था। उन्होंने खुद को सभी धर्मों का सम्मान करने वाला 'आस्थावान व्यक्ति' बताया। सीजेआई ने कहा, "यह सोशल मीडिया की समस्या है। आपको उस पृष्ठभूमि के बारे में भी बताना चाहिए, जिसके तहत मैंने वह बात कही थी।” उन्होंने वह बयान अभिनंदन समारोह के दौरान खेड़ तालुका में अपने पैतृक गांव कन्हेरसर के निवासियों को संबोधित करते हुए दिया था। सीजेआई ने कहा था कि उन्होंने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में एक समाधान के लिए भगवान से प्रार्थना की थी।

चंद्रचूड़ ने कहा था कि अगर किसी के अंदर आस्था हो तो भगवान रास्ता निकाल देगा। उन्होंने कहा, “अक्सर हमारे सामने (फैसले के लिए) मामले आते हैं लेकिन हम किसी समाधान पर नहीं पहुंच पाते। ऐसा ही कुछ अयोध्या (राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद) के दौरान हुआ जो तीन महीने तक मेरे सामने था। मैं भगवान के सामने बैठा और उनसे कहा कि उन्हें कोई समाधान ढूंढना होगा।” यह पूछे जाने पर कि क्या वह गणेश पूजा की तस्वीर के फ्रेम में थोड़ा बदलाव करके उसमें नेता प्रतिपक्ष (एलओपी) और शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों को भी लाना चाहेंगे तो चंद्रचूड़ ने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा कि वह एलओपी को शामिल नहीं करेंगे क्योंकि यह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के लिए चयन समिति नहीं है। उन्होंने कहा, “विवाह, मृत्यु जैसे अवसरों पर, मुलाकातें होती हैं। जब मेरी मां की मृत्यु हुई, तो राज्य के मुख्यमंत्री मुझसे मिलने आए थे। ये प्राथमिक शिष्टाचार हैं। हमें समझना चाहिए कि न्यायपालिका में परिपक्वता की भावना है, इसलिए हम पर भरोसा करें। न्यायाधीशों पर दोषारोपण करना समाज को बदनाम करना है।”

दिल्ली दंगा मामले में जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद की जमानत याचिका पर सुनवाई में देरी संबंधी एक सवाल का जवाब देते हुए सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि मीडिया में एक विशेष मामले को महत्व दिया जाता है और फिर उस विशेष मामले पर अदालत की आलोचना की जाती है। उन्होंने कहा, “सीजेआई के रूप में कार्यभार संभालने के बाद, मैंने जमानत मामलों को प्राथमिकता देने का फैसला किया क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है। यह निर्णय लिया गया कि शीर्ष अदालत की प्रत्येक पीठ को कम से कम 10 जमानत मामलों की सुनवाई करनी चाहिए। नौ नवंबर, 2022 और एक नवंबर, 2024 के बीच उच्चतम न्यायालय में 21,000 जमानत याचिकाएं दायर की गईं। इस अवधि के दौरान 21,358 जमानत याचिकाओं का निस्तारण किया गया।'

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