छठ महापर्व आज से , पढ़िए , समझिये छठ को

छठ महापर्व आज से , पढ़िए , समझिये छठ को

आज से छठ महापर्व शुरू हो रहा है. चार दिन तक चलने वाले लोक आस्था के इस त्योहार के बारे में जानिए इस लेख को पढ़ कर ।

रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल-पाण्डिवता दमाद 

हे दीनानाथ, दर्शन दिहिं न अपान हे दीनानाथ!

जैसे ही शारदा सिन्हा की आवाज़ में गाया कानों में पड़ता है, शरीर कहीं भी हो आत्मा बिहार की गलियों में, अपने गांव और वहां से गुज़रती हुई नदी की किनारों को छूने को मचल जाता है. लगता है सब छोड़ पहुँच जाएँ उस घाट पर जहाँ गाय की गोबर से लीपा हुआ एक आंगन होगा. उस लिपे आँगन के बीचों-बीच लाल चुनरी, जिसमें जड़ा होगा पीला गोटपन्नी से ढ़का चंगेरा होगा. जिसे दादा जी माथे पर उठा बढ़ेंगे नदी की तरफ. आगे-आगे दुल्हन सी सजी पीली साड़ी, माँग से नाक तक सिंदूर की कतरों में सजी दाईजी, अम्मा, चाची और बुआ लोग चल रही होंगी. और उन सबसे आगे रंग-बिरंगे कपड़ों में लिपटी बच्चों की झुंड. सब को जल्दी होगी घाट पर पहुँच कर जगह छेक लेने की ।

सभी पवनैतिन (व्रती) नहाय-खाय के दिन बाल धो स्नान कर, इस महाअनुष्ठान का प्रण लेती हैं. इस दिन घर में प्याज-लहसुन के बिना शुद्ध घी में लौकी की सब्ज़ी, दाल और अरवा चावल का भात बनता है. पहले पवनैतिन भोजन करती हैं, फिर प्रसाद स्वरूप बाकि के  यही खाते हैं।

नहाय-खाय के अगले दिन होता है खरना ।  इस दिन से उपवास शुरू हो जाता है. पवनैतीन अन्न-जल का त्याग कर देती हैं. सांझ में माटी के बने नए चूल्हों पर गाय की दूध में गुड़ डाल खीर और सोहारी (रोटी) बनता है. फिर केले के पत्ते पर पांच जगह या सात जगह न्योज (भोग) चढ़ाया जाता है. जिसके बाद पवनैतीन अपने हाथों से प्रसाद बांटती है और अंत में सबके खा लेने के बाद ख़ुद भी प्रसाद ग्रहण करके, उसी पूजा वाले कमरे में जमीन पर सोती हैं।

ऐसा माना जाता है कि माता सीता ने जब वनवास के दौरान सूर्य देव की उपासना करते हुए छठ किया था तो वो जमीन पर ही सोयीं थी इसलिए व्रती अब भी ज़मीन पर ही सोती हैं।

खरना के अगले दिन होता है संझिया अर्घ्य यानि शाम वाला अर्घ्य. जिसकी शुरुआत सुबह से हो जाती है. भोर में ही उठतीं हैं पवनैतीन और चूल्हा जोर (जलना) उस पर रख देती हैं, गुड़ और पानी उबलने को. फिर जगते हैं घर के बाकि के लोग भी और जुट जाते हैं खजुरी-ठेकुआ बनाने में. उधर उबलते हुए गुड़ वाले पानी में चावल का आटा मिला कसार कोई बांध रहा होता, तो इधर छठ का गीत गाते हुए कोई तल रही होती है ठेकुआ-ख़जूरी । कैसे सुबह से दोपहर हो जाती है पता भी नहीं चलता।

दोपहर में डलिया सजाने और सूप सजाने का काम शुरू हो जाता है. जिसमें रखती हैं वो अदरक-हल्दी के हरे-हरे पौधे, मूली, पान-सुपारी, अरतक पात (लाल रंग का एक शुद्ध गोल पत्ता जिसे बाद में दरवाजे पर चिपकाया जाता है) सूत के धागे, नारंगी रंग का पीपा सिंदूर, सेब, संतरा, केला, नारियल, ईख और घर में बने तमाम पकवान. डलिया सजाने के बाद उसे रखते हैं लाल टोकरों में, जिसे माथे पर उठा चलते हैं परिवार के मुखिया घाट की तरफ. जहां डूबते सूर्य की पूजा की जाती है।

एक और ख़ास बात है इस त्योहार की. जहां समूची दुनिया में उगते सूर्य की उपासना की जाती है, वहीं सिर्फ छठ ही ऐसा त्यौहार है जिसमें हम डूबते हुए सूर्य को पूजते हैं. उन्हें अर्घ्य अर्पित करते हैं. अर्घ्य अर्पित करने के लिए पवनैतीन उतरती हैं नदी या तालाब में, जहां वो थोड़ी देर पहले खड़ी हो सूर्य की उपसना करती हैं, जिसे ठरिहा देना कहते हैं. बाद अर्घ्य चढ़ा लौटते हैं सब अपने-अपने घरों को।

उस रात फिर आंगन में कोसिया भरा जाता है. यानि ईख के पेड़ों के बीच मिट्टी के बने हाथी और कुरवार को एक के ऊपर एक रख मिट्टी का दिया जलाते हैं. दिया जलते ही अम्मा और चाची लोग मिल सुबह में सूर्य देवता जल्दी निकले इसके लिए गाने लग जाती हैं. कुछ गाने छठी (षष्टी) माता के लिए भी गाती हैं.

मान्यता है कि बहुत समय पहले एक राजा हुआ करते थे, जिनका नाम प्रियंवद था. राजा बहुत प्रतापी थे मगर उनकी कोई संतान न थी. उन्होंने तब संतान-प्राप्ति यज्ञ किया. जिसके बाद उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई मगर वो जन्मते ही मर गया. राजा संतान शोक में इतने दुःखी हुए कि श्मशान में उन्होंने अपने प्राण भी त्याग देने का निर्णय लिया।

जैसे ही राजा अपना प्राण त्यागने के लिए नदी की और बढ़े ठीक उसी वक़्त भगवान की पुत्री षष्ठी देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने राजा से घर लौट कर अपनी पूजा-आराधना करने को कहा. राजा को आश्वासन भी दिया कि राजा को जरूर संतान की प्राप्ति होगी. राजा घर को लौट आये और उन्होंने पूरे मन से देवी की पूजा की. बाद में राजा प्रियंवद को पुत्र की प्राप्ति हुई. कहते हैं कि राजा ने ये पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को किया था इसलिए उस दिन के बाद से छठ की की पूजा इसी दिन की जाती है।

और फिर कोसिया भरने के बाद भोर के अर्घ्य की तैयारी शुरू हो जाती है. लोग घर से चार बजे के आस-पास ही निकल पड़ते हैं घाट की तरफ. घाट पर पहुंच पुआल बिछा कर सूर्यदेव की उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है. सैकड़ों दिये जला नदियों और तालाबों में लोग प्रवाहित करते हैं. और फिर कोसिया भरने के बाद भोर के अर्घ्य की तैयारी शुरू हो जाती है. लोग घर से चार बजे के आस-पास ही निकल पड़ते हैं घाट की तरफ. घाट पर पहुंच पुआल बिछा कर सूर्यदेव की उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है. सैकड़ों दिये जला नदियों और तालाबों में लोग प्रवाहित करते हैं इस उम्मीद में कि ये दिया जितनी दूर जायेगा, इससे जितना अँधेरा छटेगा उनकी दुनिया उतनी ही रौशन होगी।

दिया जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे ही अँधेरा छंटने लगता है. पूरब की दिशा में लालिमा बढ़ने लगती है. यह आहट होती है कि सूर्य देवता के प्रकट होने की. अब पवनइतीन उतरती फिर से नदी में एक बार और अर्पित करती हैं सुबह वाला अर्घ्य. मांगती हैं पवनी के दौरान हुए भूल-चूक की माफ़ी. और इसी के साथ समाप्त हो जाता है आस्था महापर्व भी।

लेकिन अभी सोशल मीडिया के इस युग में एक वर्ग ऐसा है जो इस त्यौहार मान्यताओं को सिरे से ख़ारिज कर इसे सिर्फ़ पितृसत्तात्मक त्यौहार साबित करने पर तुला है। जिनके लिए ये त्यौहार सिर्फ नाक पर फैला सिंदूर और नदी के गंदे पानी में खड़ी औरतों का स्वास्थ्य ख़राब करने का एक जरिया भर है. वो नहीं समझ सकते हैं इस त्योहार की महत्ता को. उन्हें नहीं पता कि इस त्यौहार की वजह से नदियों के घाटों का लगभग कायाकल्प हो जाता है।

छठ को सिर्फ पुत्र-प्राप्ति से जोड़कर देखना गलत है, असल में भारत जैसे खेतिहर देश में यह सूर्य की उपासना का व्रत है, आखिर सूर्य के बिना खेती कैसी? तो छठ के सूपों में शामिल प्रसाद की सूची पर नज़र डालिएः मूली, अदरक, हल्दी, ईख, अंकुरित चने, मूंग, डाभा नींबू, हरे नारियल, केले, चावल के आटे से बने लड्डू, ठेकुआ, मुंगवा ऐसे तमाम प्रसाद हैं जो स्थानीय उत्पादों खासकर उसी मौसम में खेतों से निकले पैदावार हैं और इन सबको देने वाले भगवान सूर्य को अर्पित किए जाते हैं. इस त्योहार को प्रकृति को खेतिहर समाज का थैंक्स गीविंग भी कह सकते हैं. छठ का त्योहार दीवाली के बाद होता है. दीवाली के दौरान साफ-सफाई के बाद जो भी कूड़ा-कचरा पैदा होता है उसे साफ करके दीवाली के पहले शुरू किए गए स्वच्छता को जारी रखा जाता है. मूल रूप से छठ स्वच्छता पवित्रता का त्योहार है।

नदी की पूजा, सूर्य की पूजा, नदी के घाटों की सफाई, नदी के जल में कमर तक डूबकर हाथों में नारियल लेकर डूबते और उगते सूर्य की उपासना असल में प्रकृति की ही उपासना है. इसी पवित्रता के लिए शहरो-गांवों के गलियों-नालियों की जमकर सफाई होती है।

छठ में किसी शास्त्रीय विधान का जिक्र नहीं मिलता. ईश्वर और उपासक के बीच कोई बिचौलिया नहीं. कोई जातिभेद नहीं. तो मूल रूप से छठ को लोकपर्व माना जाना चाहिए. छठ के गीतों की पर्याय हैं शारदा सिन्हा. उनके आवाज की ठेठ देसी खनक ने हमेशा साबित किया है कि छठ लोक की रग-रग में बसा देसी त्योहार है।

नाक से लेकर मांग तक सिंदूर चढ़ाई महिलाएं इस त्योहार को लीड करती हैं, इनमें पुरुषों का काम सिर्फ लॉजिस्टिक उपलब्ध कराने वालों का होता है. तो एक तरह से इस त्योहार को महिलाओं की अगुआई वाला उनकी सशक्ति करण का त्योहार माना जाना चाहिए।

प्रकृति के नजदीक ले जाने वाले त्योहार में हालांकि अब बाजार की दखल हो गई है, लेकिन जितना यह पवित्र है, और जिसतरह बाकी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषणों से बता हुआ है, उससे लगता है कि यह प्रासंगिक भी है और महत्वपूर्ण भी।

एक शेर याद आता है,

उगते सूरज को लोग जल देते हैं,

जब डूबता है तो उठकर चल देते हैं

पर छठ इस तथ्य को झुठलाता है. हम मुस्कुराते हुए डूबते सूरज को भी अर्घ्य के साथ विदा Kbhi हैं कि कल सुरुज देव उगेंगे तो जाड़ों की आहट के साथ पूरी सर्दियों में अपनी कृपा बनाए रखेंगे.

जय हो छठी मईया के

शब्द - अनु

तस्वीर - आशीष 


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