26 जुलाई यह महज एक तारीख नहीं यह दिन है याद दिलाने के लिए कि देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए कुर्बानी क्या होती है। यह दिन है उन तमाम रणबांकुरे के आगे नमन करने का जो अपने आप को वर्दी में बांधकर देश को सुरक्षित फिजाओं में आगे बढ़ने का मौका देते हैं। यह दिन है उन तमाम साहसी जवानों के आगे झुककर नतमस्तक हो जाने का जो सब कुछ छोड़कर सिर्फ और सिर्फ एक चीज के लिए अग्रसर होते हैं। वह है वतन, देश, हिंदुस्तान हमारा, इंडिया, हमारा भारत। आज कारगिल विजय दिवस के 25 साल पूरे हो गए हैं। इस युद्ध से जुड़ा एक किस्सा ऐसा भी है जब भारतीय सेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल पार कर लेने की ठान ली थी। आलम ये हो गया था कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आनन-फानन में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मदद की गुहार लगानी पड़ी थी।
भागे भागे अमेरिका तक पहुंच गए नवाज शरीफ
कोई भी उस कूटनीतिक परिदृश्य की गंभीरता की कल्पना कर सकता है जिससे अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन कारगिल युद्ध के दौरान निपट रहे थे। अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने शरीफ को किसी भी तरह की मदद देने से इनकार करते हुए पाकिस्तान को अपनी सेना वहां से हटाने के लिए साफ कह दिया था। यही कारण है कि बिल क्लिंटन को अमेरिका के पहले राष्ट्रपति के रूप में जाना जाता है जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ जाकर भारत का समर्थन किया था। वरना आपने 1971 के दौर में तो भारत को डराने के लिए अमेरिका ने अपना नौसैनिक बेड़ा तक भेज दिया था। क्लिंटन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध को समाप्त करने के तरीकों पर गुस्से में चर्चा कर रहे थे। क्लिंटन शरीफ के साथ बातचीत के दौरान आपा खो बैठे थे, जो उन परिस्थितियों के बारे में अनभिज्ञता का दावा कर रहे थे जिनके तहत पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने कारगिल दुस्साहस शुरू किया था। यह संभवतः सबसे चुनौतीपूर्ण कूटनीतिक कार्य था जिसका किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने तब सामना किया जब उनका देश अपना स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। 4 जुलाई को अमेरिका स्वतंत्रता दिवस मनाता है, इसके बावजूद हालात की गंभीरता को देखते हुए क्लिंटन ने वाइट हाउस में नवाज शरीफ के साथ इसी दिन बैठक की और उन्हें पीछे हटने के लिए राजी किया।
अमेरिकी हस्तक्षेप
दो दक्षिण एशियाई शक्तियों के बीच परमाणु संघर्ष की संभावना के बारे में गहराई से चिंतित, संयुक्त राज्य अमेरिका का बिल क्लिंटन प्रशासन तेजी से संकट में मध्यस्थता करने के लिए आगे बढ़ा। तत्कालीन सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के विश्लेषक ब्रूस रीडेल युद्ध के समय राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में निकट पूर्वी और दक्षिण एशिया मामलों के लिए राष्ट्रपति क्लिंटन के विशेष सहायक थे। बाद में उन्होंने विस्तार से लिखा और बताया कि क्लिंटन ने संकट से कैसे निपटा, जबकि रिडेल ने खुद को इन महत्वपूर्ण राजनयिक प्रयासों के केंद्र में पाया। क्लिंटन की टीम में उप विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबोट और जनरल टोनी ज़िन्नी जैसे लोग भी शामिल थे, जो पाकिस्तान से एलओसी के पीछे अपनी सेना वापस बुलाने का आग्रह करने में अथक प्रयास कर रहे थे। अमेरिका के इस नए रुख ने भारत और पाकिस्तान दोनों को चौंका दिया क्योंकि इस्लामाबाद ने सोचा था कि अमेरिका हमेशा की तरह उसका साथ देगा और भारत को गुण दोष के आधार पर फैसले किए जाने की तो अमेरिका से उस वक्त उम्मीद ही नहीं थी।
एलओसी पार करने की तैयारी
क्लिंटन ने खुफिया सूचनाओं और अटकलों के बीच परमाणु युद्ध की आशंका जताई थी कि अगर पाकिस्तान ने परमाणु हथियार तैनात किए तो भारत पूरी ताकत से जवाब देगा, वहीं वाजपेयी के साथ टेलीफोन पर हुई बातचीत ने अमेरिकी राष्ट्रपति और पाकिस्तानी पीएम शरीफ के बीच अगली बैठक के लिए माहौल तैयार कर दिया। पत्रकार बरखा दत्त अपनी किताब द अनक्वाइट लैंड - स्टोरीज फ्रॉम इंडियाज फॉल्ट लाइन्स के अनुसार भारतीय सेना के पास ‘छह दिवसीय युद्ध’ की आकस्मिक योजना थी,जिसमें सैनिकों को इस तरह से तैनात करने की योजना थी कि यदि आवश्यक हुआ तो भारत और पाकिस्तान को अलग करने वाली सीमा को एक सप्ताह से भी कम समय में पार किया जा सके। रीडेल ने 2002 में इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में लिखा था कि वह कॉल 2 जुलाई को हुई थी। उन्होंने लिखा कि राष्ट्रपति ने फोन पर भारतीय प्रधान मंत्री वाजपेयी से सलाह ली। भारतीय अड़े हुए थे - एलओसी पर वापसी जरूरी थी, आक्रामकता की धमकी के तहत वाजपेयी बातचीत नहीं करेंगे। जब क्लिंटन ने वाजपेयी को फोन करके वादा किया कि अमेरिका पाकिस्तान पर भारतीय क्षेत्र से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए काम कर रहा है, तो प्रधानमंत्री चुप रहे। साठ दिन से ज्यादा चले युद्ध में पाकिस्तान को आखिरकार घुटने टेकने पड़े। कारगिल में हिंद के शूरवीरों के प्रचंड पराक्रम को प्रणाम करने के लिए हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है।
सेना की वीरगाथा
करगिल की चोटियों से बेदखल करने के लिए भारतीय सेना के 527 वीर सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी। कैप्टन विक्रम बत्रा, कैप्टन मनोज प्राडेय, अजया आहूजा जैसे वीरों की कुर्बानियां निसिया बीरगाथाओं में शुमार हो चुकी है। निश्चय ही पाकिस्तानी सेना करगिल में फंस चुकी थी और नवाज शरीफ को चेहरा छुपाने के लिए अमेरिकी बीच बचाव का बहाना चाहिए था।
अब हर मौसम में डटे रहते हैं भारतीय सैनिक
1999 में जब भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ा, तब ऊंची चोटियों पर विषम परिस्थितियों में यह जंग लड़ी गई थी। सप्लाई की कोई कमी नहीं थी, लेकिन मौसम की मार थी। इस इलाके में भारतीय सेना की कई पोस्ट ऐसी थी, जिन्हें विंटर वेकेटेड पोस्ट कहा जाता है, यानी सर्दियों में ये पोस्ट खाली करके नीचे आ जाते थे। इसी तरह पाकिस्तान की भी विंटर वेकेटेड पोस्ट थी। करगिल युद्ध से पहले वाली सर्दियों में तो और बार के समें मुकाबले इस पोस्ट को भारतीय सेना नै काफी देर से खाली किया। लेकिन जब पोस्ट खाली थी इसी वक्त का इस्तेमाल कर पाकिस्तानी सेना आगे आई और घुसपैठ की। अब ये पोस्ट कभी खाली नहीं रखी जाती। सैनिक विषय परिस्थियों में ही देश की रक्षा के लिए यहां डटे रहते हैं, ताकि फिर कभी दुश्मन घुसपैठ कर हमारी जमीन पर कब्जे की हिमाकत ना करे। यहां सैनिकों को रहने में दिक्कत ना आए इसके लिए भी इंतजाम किए गए।
बहरहाल, कारगिल की दुर्गम और ऊंची चोटियों में भारतीय जवानों ने जिस साहस और शौर्य का परिचय दिया। इस लड़ाई में भारत के 527 वीर शहीद हुए और एक हजार से भी ज्यादा घायल हुए। भारत आज भी कारगिल में शहीद हुए अपने जवानों को श्रद्धाजंलि देता है।