लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा और कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने और सरकार चलाने के लिए क्षेत्रीय मित्र दलों पर निर्भर रहने से इलाकाई पार्टियों के हौसले बुलंद हैं।इनका कहना है कि एक दशक बाद ही सही, पर गठबंधन राजनीति का दौर एक बार फिर से लौट आया है। अलबत्ता, भाजपा के कमजोर होने और कांग्रेस की मजबूती के बाद इन दोनों दलों के खिलाफ काम करते रहने वाले तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट भी तेज हो चुकी है। क्योंकि चुनावों में जब भी त्रिकोणात्मक संघर्ष की नौबत आती है तो प्रायः सत्तापक्ष लाभान्वित होता है। इस वर्ष के अंत में तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी इसका असर दिखाई पड़ेगा, जिसकी शुरुआत हरियाणा से हो चुकी है।
देखा गया कि हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 के मद्देनजर वहां पर कभी सत्तारूढ़ रही इंडियन लोकदल और कभी यूपी में सत्ता में रही बहुजन समाज पार्टी ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया है। साथ ही, दोनों दलों के गठबंधन ने तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को तलाशने के लिए एक कमेटी भी गठित कर दी है, जो एनडीए के साथ रही जननायक जनता पार्टी और इंडिया ब्लॉक के साथ रही आप आदि दलों को इस तीसरे गठबंधन के साथ लाने की कोशिश करेगी।
इस गठबंधन ने यह भी ऐलान कर दिया है कि वह भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर चलेगी और अन्य सभी दलों को साथ लेकर चलेगी। समझौते के मुताबिक, 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा के चुनाव में इनैलो 53 और बसपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वहीं, जब जजपा और आप इनके साथ होंगे तो इनैलो और बसपा अपनी सीटों में से उन्हें भी सम्मानजनक सीटें देंगी, ताकि तीसरा मोर्चा मजबूत हो।
इसलिए सियासी हल्के में यह चर्चा जोर पकड़ चुकी है कि भारत के उपप्रधानमंत्री रहे और हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे चौधरी देवीलाल द्वारा स्थापित इंडियन लोकदल ने अपने पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के पुत्र और पार्टी के इकलौते विधायक अभय चौटाला के नेतृत्व में दलितों की पार्टी बसपा से जो हाथ मिलाने की पहल की है, उसका दूरगामी असर हरियाणा विधानसभा चुनाव समेत अन्य चुनावों पर पड़ेगा। क्योंकि बसपा के राष्ट्रीय संयोजक और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के भतीजे आकाश आनन्द ने यह घोषणा की है कि उनका गठबंधन अब बहुत दूर तक चलेगा।
चर्चा है कि जब 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से यह पता चल गया कि स्थानीय जाट और एससी वर्ग ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट दिया है, जिससे वह राज्य में मजबूती से पैर जमा चुकी है, तो उसे कमजोर करने के लिए राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के इशारे पर जाट परिवार के नेतृत्व वाली आईएनएलडी और दलित नेता मायावती के नेतृत्व वाली बीएसपी 10 साल बाद राज्य में सियासी लड़ाई के लिए एक साथ आई हैं।
जिस तरह से अचानक इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने आगामी हरियाणा विधानसभा चुनावों के लिए अपने गठबंधन की औपचारिक घोषणा करने के लिए फिर से एक साथ आए हैं, उसके सियासी मायने साफ हैं। वह यह कि कांग्रेस को यहां मजबूत होने से रोका जाये, अन्यथा उनकी राजनीति पुनः खतरे में पड़ जाएगी। बताते चलें कि अप्रैल 2018 में आईएनएलडी ने 2019 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव से पहले मायावती के नेतृत्व वाली बसपा पार्टी के साथ गठबंधन किया था और सकारात्मक परिणाम भी हासिल किया था। लेकिन 2018 में आईएनएलडी में विभाजन के बाद और 2019 के जींद उपचुनावों में आईएनएलडी के खराब प्रदर्शन के बाद ही बीएसपी ने गठबंधन खत्म करने का फैसला किया था। जो दोनों दलों के लिए आत्मघाती साबित हुआ। क्योंकि इससे पहले जब दोनों पार्टियों ने 1998 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन किया था, तो हरियाणा में इनेलो ने 7 और बीएसपी ने 3 सीटों पर चुनाव लड़ा था और दोनों ने क्रमश: 4 और 1 सीट जीती भी थी। जबकि वर्तमान में आलम यह है कि 90-सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में इनेलो के एकमात्र विधायक अभय चौटाला हैं, जबकि बीएसपी का कोई सदस्य नहीं है।
यही वजह है कि गत गुरुवार को हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ में एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में इनेलो महासचिव अभय चौटाला और मायावती के भतीजे व बसपा के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद ने घोषणा की कि हरियाणा स्थित पार्टी इनैलो 90 विधानसभा सीटों में से 53 पर चुनाव लड़ेगी, जबकि शेष 37 सीटें बीएसपी को दी गई हैं। वहीं, इस गठबंधन के हिस्से के रूप में नेताओं ने इनेलो नेता अभय चौटाला को अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने का फैसला किया है, जो एक मजबूत सियासी कदम है।
इस दौरान सीएम इन वेटिंग अभय चौटाला ने कहा कि हमने हरियाणा में आगामी विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ने का फैसला किया है। क्योंकि आज आम लोगों ने भी भाजपा को सत्ता से बाहर करने और कांग्रेस को दूर रखने का मन बना लिया है, जिसने दस साल तक राज्य को लूटा है। वहीं, बसपा नेता आकाश आनंद ने घोषणा की कि उनका गठबंधन केवल विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वे भविष्य में भी राज्य में अन्य चुनाव मिलकर लड़ेंगे। इससे साफ है कि बसपा जाट लैंड समझे जाने वाले पश्चिमी उत्तरप्रदेश से लेकर राजस्थान तक इस गठबंधन को भुनायेगी और खुद को और अधिक मजबूत बनाएगी।
उल्लेखनीय है कि इस गठबंधन की घोषणा के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स पर पोस्ट किया कि बसपा और इनेलो मिलकर जनविरोधी पार्टियों को हराने और नई गठबंधन सरकार बनाने के लिए काम करेंगे। इससे यह साफ हो गया कि लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा का परोक्ष समर्थन करके बसपा को शून्य पर आउट करवाने वाली मायावती लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर से सक्रिय हो चुकी हैं और यह उनका सबसे तगड़ा धमाका है। इससे अन्य राज्यों में भी बसपा को गठबंधन साथी मिलने के मार्ग प्रशस्त हो चुके हैं।
बकौल मायावती, बहुजन समाज पार्टी व इण्डियन नेशनल लोकदल मिलकर हरियाणा में होने वाले विधानसभा आमचुनाव में वहाँ की जनविरोधी पार्टियों को हराकर अपने नये गठबन्धन की सरकार बनाने के संकल्प के साथ लड़ेंगे, जिसकी घोषणा मेरे पूरे आशीर्वाद के साथ आज चण्डीगढ़ में संयुक्त प्रेसवार्ता में की गयी। वहीं, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री ने यहां तक उम्मीद जताई कि दोनों दलों के बीच एकता से विरोधियों को हराने और नई सरकार बनाने में बहुत मदद मिलेगी।
उनकी इस घोषणा के बाद दिल्ली से हरियाणा तक यही चर्चा है कि भाजपा की बी टीम की तरह काम करने वाली मायावती अब क्या हरियाणा में कांग्रेस का खेल बिगाड़ेंगी? क्योंकि बीते आम चुनावों में हरियाणा में भाजपा की सीटें 10 से घटकर 5 रह गई, जबकि कांग्रेस ने 5 सीट झटक ली। कहने का तातपर्य यह कि वहां कांग्रेस ने बराबर-बराबर सीटें बांटीं। वहीं, खास बात यह कि सूबे में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित दो संसदीय सीटें अंबाला और सिरसा भी कांग्रेस के खाते में गई है, जबकि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 विधानसभा क्षेत्रों में से 13 सीटें कांग्रेस के खाते में गई हैं।
इस प्रकार आम चुनाव 2024 के नतीजों से साफ पता चलता है कि जाटों और अनुसूचित जातियों ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट दिया है। हालांकि अब जिस तरह से जाट परिवार की अगुआई वाली पार्टी इनेलो और दलित नेत्री मायावती की अगुआई वाली बसपा फिर से एक साथ आ गई है, तो सियासी हलकों में इस बात पर चर्चा जोर पकड़ रही है कि क्या इनैलो-बसपा गठबंधन हरियाणा में कांग्रेस का खेल बिगाड़ पाएगा, जो कि इस चुनाव को 10 साल बाद सत्ता में वापसी के एक सुनहरे अवसर के रूप में देख रही है।
इस बारे में स्थानीय राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि उन्हें इस गठबंधन से बहुत उम्मीद नहीं है, क्योंकि यहां के जाट परिवार शुरू से ही दो खेमों में बंटे रहते हैं, जिसका मजबूत धड़ा हमेशा कांग्रेस के साथ रहता है। अभी कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा यहां के कांग्रेस चेहरा हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति जाटों के बीच मजबूत बनी रहेगी। वहीं, संविधान बचाने के लिए दलित और लोकतंत्र बचाने के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यक भी उसके साथ बने रहेंगे। हालांकि, किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इनैलो-बसपा यानी दोनों पार्टियों के पिछले चुनावी प्रदर्शन को देखना होगा।
जहां आम चुनाव 2024 में उनका संयुक्त वोट शेयर महज 3.15 प्रतिशत था, वहीं यदि 2019 के विधानसभा चुनाव के रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो बसपा को मात्र 4.21 फीसदी और इनेलो को 2.44 फीसदी वोट मिले थे। इसी प्रकार 2014 के आम चुनाव में बसपा का वोट शेयर महज 4.4 फीसदी था, जबकि इनेलो को 24.1 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन वह अविभाजित इनेलो था। बहरहाल, 2018 में इनैलो के विभाजन के बाद से ही पार्टी काफी कमज़ोर हो गई है। यही वजह है कि गत लोकसभा चुनाव में जाट और दलित कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़े थे और जब तक राज्य सियासत में कुछ नाटकीय परिवर्तन नहीं होता है, तब तक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का समर्थन खोना असंभव है। वहीं, अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षित सीटों पर कांग्रेस के प्रदर्शन से पता चलता है कि दलितों ने भी इस बार पार्टी का समर्थन किया है।
इसके अलावा, आम चुनाव 2024 में इनेलो और बसपा ने क्रमशः 7 और 9 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी और दोनों ही दलों की सीटें खाली रहीं, क्योंकि इनका खाता भी यहां नहीं खुला। जहां तक वोट शेयर की बात है तो इनेलो का वोट शेयर मात्र 1.87 फीसदी रहा, जबकि बसपा को 1.28 फीसदी वोट मिले। इससे साफ है कि नया गठबंधन राज्य में सरकार बनाने में सफल होगा या नहीं, यह तो बाद की बात है, लेकिन कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर तुषारापात कर सकता है। मायावती का प्राथमिक लक्ष्य भी यही है, क्योंकि भाजपा की मजबूती में ही उनका परोक्ष हित निहित है।
वहीं, चंडीगढ़ में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में अभय चौटाला ने जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा विरोधी अन्य पार्टियों को गठबंधन में शामिल होने और एक मजबूत मोर्चा बनाने के लिए आमंत्रित किया है, वह उनकी सोची समझी रणनीति है। यदि ऐसा करने में वह सफल हो गए तो राज्य में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाएगा और तब उनका सियासी महत्व और अधिक बढ़ जाएगा। इसलिए तो उन्होंने एक सवाल के जवाब में सधे हुए राजनेता की तरह कहा कि अगर ज़रूरत पड़ी तो हम आम आदमी पार्टी (आप) से भी बात कर सकते हैं। साथ ही उन्होंने यहां तक कह दिया कि अन्य पार्टियों से बातचीत के लिए एक समिति बनाई जाएगी। हालांकि, उन्होंने इस बात का जवाब नहीं दिया कि क्या उनसे ही टूटकर बनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) इस गठबंधन में शामिल हो सकती है? यदि ऐसा हुआ तो निःसन्देह इनैलो को मजबूती मिलेगी और वह डायरेक्ट या फिर गठबंधन साथी के तौर सत्ता के गलियारे में पहुंच जाएगी।
अपनी इसी रणनीति के तहत अभय चौटाला ने इनेलो-बसपा गठबंधन के सत्ता में आने पर लोगों के लिए कई सौगातें भी घोषित कीं, जो इस प्रकार है- पहला, किसी भी घर का बिजली बिल 500 रुपये (प्रति माह) से अधिक न होगा। दूसरा, पीने के पानी के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। तीसरा, वृद्धावस्था पेंशन को 3,000 रुपये प्रति माह से बढ़ाकर 7,500 रुपये किया जाएगा। चौथा, हर परिवार को मुफ्त एलपीजी सिलेंडर उपलब्ध कराया जाएगा और महिलाओं को रसोई खर्च के लिए 1,100 रुपये दिया जाएगा। पांचवां, बेरोज़गार युवाओं को 21,000 रुपये प्रति वर्ष बेरोज़गारी भत्ता दिया जाएगा। छठा, अनुसूचित जाति के गरीब लोगों को 100 वर्ग गज का प्लॉट उपलब्ध कराया जाएगा। सातवां, अनुसूचित जाति से संबंधित पहले से खाली पड़े पदों को भरा जाएगा। आठवां, पुरानी पेंशन योजना को बहाल किया जाएगा। ये सभी वादे कैबिनेट की पहली बैठक में पूरे कर दिए जाएंगे।
इस नए सियासी घटनाक्रम से साफ है कि भारतीय राजनीति एक अबूझ पहेली बन चुकी है, जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के अलावा तीसरे पक्ष की भी गुंजाइश बनाने की जद्दोजहद चलती रहती है। इसलिए अक्सर यह कहा जाता है कि मजबूत सत्ताधारी दल या उसके नेतृत्व वाले गठबंधन, ताकतवर विपक्ष या उसकी अगुवाई वाला गठबंधन से इतर भी कुछ मजबूत जनाधार वाले दल होते हैं, जो खुद को तीसरा मोर्चा बताते हैं। ऐसे दल कई बार केंद्र व राज्य की सत्ता में अकेले या फिर गठबंधन साथी के तौर पर भागीदार बन जाते हैं।
देखा जा रहा है कि देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस का धुर विरोध जो समाजवादी मूल के दल किया करते थे और अपनी सुविधा के अनुसार जनसंघ और भाजपा का समर्थन लेने से भी परहेज नहीं किया करते थे, वो दल आजकल आपसी सिरफुटौव्वल के चलते कांग्रेस व भाजपा नीत गठबंधन के पाले में चले गए हैं और जो कुछ बाहर बचे हुए हैं, उन्होंने फिर तीसरे मोर्चे का राग अलापा है। अब बदलता सियासी वक्त ही बताएगा कि इनकी सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा, तब तक इंतजार कीजिए।