राष्ट्रपति के भाषण का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद को लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और हिंदी के महान कवि हरिवंश राय बच्चन के बीच तकरार हुई थी। नेहरू का मानना था कि राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अंग्रेजी भाषण का बच्चन द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद बहुत जटिल है जबकि कवि इस बात पर अड़े रहे कि उनके द्वारा किया गया अनुवाद जटिल नहीं बल्कि सही है। दोनों में से कोई भी इस मुद्दे को लेकर नरम पड़ने को तैयार नहीं थे। वरिष्ठ पत्रकार कल्लोल भट्टाचार्य की पुस्तक नेहरू फर्स्ट रिक्रूट्स में इस वाकये का जिक्र किया गया है।
पुस्तक में इस घटना का जिक्र करते हुए बताया गया है कि नेहरू भाषण के हिंदी अनुवाद को लेकर बच्चन से नाराज हो गए। नेहरू ने बच्चन को विदेश मंत्रालय में हिंदी के लिए विशेष कार्य अधिकारी नियुक्त किया था। इस पुस्तक के मुताबिक बहुचर्चित कृति मधुशाला के रचयिता बच्चन 1955 में 1,000 रुपये के मासिक वेतन पर भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में शामिल हुए थे। इससे पहले वह आकाशवाणी में काम करते थे, जहां उनका वेतन 750 रुपये प्रति माह था।
विदेश मंत्रालय में बच्चन की प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक- राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के भाषणों का अनुवाद करना था। वास्तव में एक्सटरनल एफेयर्स मिनिस्ट्री के लिए विदेश मंत्रालय शब्द बच्चन द्वारा दिया गया था। नेहरू और बच्चन के बीच बहस तब हुई जब कवि ने राष्ट्रपति के अंग्रेजी भाषण का हिंदी में अनुवाद किया, जो नियमित प्रथा के अनुसार उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन द्वारा पढ़ा जाना था।
पुस्तक के मुताबिक, नेहरू ने हिंदी अनुवाद को लेकर नाराजगी जताते हुए कहा, क्या आपको पता है कि यह भाषण कौन पढ़ेगा? डॉ. जाकिर हुसैन- और वह आपके द्वारा इस्तेमाल किए गए कुछ शब्दों का उच्चारण भी नहीं कर पाएंगे। बच्चन ने इसके जवाब में कहा, ‘‘ पंडित जी, किसी व्यक्ति की उच्चारण सुविधा के अनुसार भाषा नहीं बदली जा सकती, आप भाषण का उर्दू में अनुवाद क्यों नहीं करवा लेते?’’
राजनीति और साहित्य जैसे अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज दोनों व्यक्तियों के बीच स्वाभिमान का यह टकराव मौखिक बहस में तब्दील हो गया और नेहरू का धैर्य जवाब दे गया। पुस्तक में दोनों दिग्गजों के बीच हुई बातचीत का विस्तार से उल्लेख किया गया है। नेहरू ने नाराजगी जताते हुए बच्चन से कहा, ‘‘इस देश में बहुत सारी परेशानियां हैं। अगर हम इसका उर्दू में अनुवाद भी करवा लें, तो भी हमें इसे हिंदी ही कहना पड़ेगा- और वैसे भी दोनों में क्या अंतर है?’’
पुस्तक के अनुसार, भाषण का हिंदी अनुवाद करते समय बच्चन भारत की तत्कालीन वास्तविकताओं को भूल गए थे और उनकी इस कोशिश के कारण भारत के उपराष्ट्रपति मुश्किल में पड़ सकते थे। संसद में भाषण पढ़ते समय उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन का कठिन हिंदी शब्दों को बोलने में अटकना मीडिया और सरकार के आलोचकों को पसंद नहीं आता। पुस्तक के मुताबिक, ‘‘और नेहरू भी अपने तरीके से कुछ हद तक सही थे, क्योंकि भाषण का उर्दू में अनुवाद संभवतः नहीं किया जा सकता था, क्योंकि भारतीय संविधान ऐसे सत्रों में केवल हिंदी भाषणों के उपयोग की अनुमति देता है। और इसलिए, कई उर्दू शब्दों वाले हिंदी भाषण को हिंदी में भाषण कहा जाता, न कि उर्दू में भाषण।’’
अंततः नेहरू ने संयम का परिचय देते हुए बच्चन को ऐसा अनुवाद करने के लिए राजी किया जिसे जाकिर हुसैन को पढ़ने में कोई कठिनाई न हो, और बच्चन ने ऐसा ही किया। राष्ट्रपति राधाकृष्णन के कार्यकाल में 1962-67 तक उपराष्ट्रपति रहे हुसैन बाद में भारत के तीसरे राष्ट्रपति बने। पुस्तक में कहा गया है कि नेहरू बच्चन को आईएफएस में भर्ती करने से बहुत पहले से जानते थे, और दोनों इलाहाबाद से थे।
वास्तव में, नेहरू ने 1950 के दशक की शुरुआत में कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद बच्चन को छात्रवृत्ति दिलाने में मदद की थी। जबकि तत्कालीन शिक्षा सचिव हुमायूं कबीर और शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने कई बार बच्चन की मदद करने से इनकार कर दिया था।
पुस्तक के अनुसार, ‘‘बच्चन ने प्रधानमंत्री नेहरू से समय मांगा और संसद में उनसे मुलाकात की। नेहरू ने धैर्यपूर्वक कवि बच्चन की बात सुनी। जब उन्हें पता चला कि वे छात्रवृत्ति पाने में असफल रहे हैं, तो नेहरू ने संसद में अपने निजी सचिव बी एन कौल को बुलाया और उनसे हरिवंश राय बच्चन के लिए 8,000 रुपये की छात्रवृत्ति की व्यवस्था करने को कहा।’’ नेहरू फर्स्ट रिक्रूट्स नामक इस पुस्तक का प्रकाशन हैचेट इंडिया ने किया है।