लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर पश्चिम बंगाल में हिंसा का बढ़ना, लोगों में डर पैदा होना, भय का वातावरण बनना, आम जनजीवन का अनहोनी होने की आशंकाओं से घिरा होना चिंताजनक भी है और राष्ट्रीय शर्म का विषय भी है। यही वजह है कि कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देने की मांग की गई है। याचिका में मांग की गई है कि पुलिस को निर्देश दिए जाएं कि वे विपक्षी कार्यकर्ताओं को हिंसा से बचाने के लिए सुरक्षा दें। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव बाद की हिंसा पर दायर याचिका की सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने गंभीर चिंता जताई एवं ममता बनर्जी सरकार को कड़ी फटकार लगाई। चुनाव के बाद एवं लोकसभा चुनाव के प्रचार दौरान तृणमूल कांग्रेस ने व्यापक हिंसा, आतंक एवं अराजकता का माहौल बनाया। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता पार्टी जीत के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं पर जिस तरह के हिंसक हमले कर रहे हैं, वह लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग है। ममता बनर्जी ने चुनाव के महापर्व को हिंसक बना दिया था, उसने एवं उसके कार्यकर्ताओं ने भाजपा कार्यकर्ताओं से, हिन्दुओं से, हिन्दू मन्दिरों-भगवानों-संतों एवं हिन्दू पर्वों से नफरत का बिगुल हर मोड़ पर बजाया है। बंगाल में राजनीतिक हिंसा का सिलसिला चुनाव के पहले ही कायम हो गया था। राज्य में हिंसा की अनेक घटनाएं चुनाव के दौरान भी देखने को मिलीं और अब चुनाव समाप्त हो जाने के बाद भी देखने को मिल रही हैं, जिनमें ग्यारह लोगों की मौत होना दुर्भाग्यपूर्ण है, इसका सीधा अर्थ है कि यह हिंसा तृणमूल कांग्रेस नेताओं के इशारे पर हो रही है। हैरानी नहीं कि अराजक तत्वों को बंगाल पुलिस का मौन समर्थन हासिल हो।
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद तृणमूल कांग्रेस ने ‘आतंक का राज’ फैला दिया है। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता विरोधी दलों और विशेष रूप से भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहे हैं। ऐसा तब हो रहा है, जब चुनाव आयोग के निर्देश पर बंगाल में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती 19 जून तक बढ़ा दी गई है। ऐसा चुनाव बाद हिंसा की प्रबल आशंका को देखते हुए किया गया था। यह आश्चर्यजनक है कि बंगाल में केंद्रीय सुरक्षा बलों की चार सौ कंपनियां तैनात हैं और फिर भी वहां व्यापक हिंसा हो रही है। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस हिंसा को कितने नियोजित ढंग से अंजाम दे रही है। इस हिंसा एवं अराजकता के बढ़ने के प्रबल आसार इसलिए हैं, क्योंकि राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान भी बड़े पैमाने पर जो हिंसा हुई थी, लोकसभा चुनाव में भी हिंसा हुई, पूर्व के अन्य चुनावों में भी हिंसा का बोलबाला रहा है। ऐसी स्थितियों में बंगाल में लोकतंत्र की भावना एवं मर्यादा का खुला हनन हो रहा है। इतनी व्यापक हिंसा बंगाल पुलिस के मूकदर्शक बने रहने एवं उसके सहयोग के बिना अंसभव है। इसी के चलते तमाम भाजपा कार्यकर्ता और उसके समर्थकों की हत्या की गई थी। पूर्व की हिंसा एवं आतंक के समय ऐसा माहौल बनाया गया था कि कई लोगों को अपना घर-बार छोड़कर पलायन करते हुए पड़ोसी राज्य असम में शरण लेनी पड़ी थी। इन जटिल होती स्थितियों को देखते हुए न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है, जो एक लोकतांत्रिक सरकार के लिये लज्जाजनक है।
पश्चिमी बंगाल की ममता सरकार देश में एकमात्र ऐसी सत्तारुढ़ पार्टी बन गई है जिसका देश के संविधान, न्यायपालिका एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार से लेकर मनमर्जी एवं तानाशाही का शासन चलाना मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रक्रिया बन गयी है। 2021 में विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा का संज्ञान लेते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय ने सीबीआइ को हिंसक घटनाओं की जांच करने को कहा था। इस जांच के दौरान तृणमूल कांग्रेस के अनेक नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन ऐसा लगता है कि यह कार्रवाई भी तृणमूल कांग्रेस के अराजक तत्वों के दुस्साहस का दमन नहीं कर सकी। इसका प्रमाण 2023 में पंचायत चुनाव के दौरान हुई भीषण हिंसा से मिला था, जिसमें 40 से अधिक लोगों की जान गई थी। इस लोकसभा चुनाव में भी हिंसा के चलते कई लोगों की जान जा चुकी है। यह ठीक है कि चुनाव बाद हिंसा पर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त करते हुए यहां तक कहा कि यदि राज्य सरकार हिंसा पर लगाम नहीं लगा सकती तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को बंगाल में पांच साल तक तैनात करने का आदेश देना पड़ सकता है। उच्च न्यायालय की इस कठोर टिप्पणी के बाद भी ममता सरकार की सेहत पर शायद ही कोई असर पड़े, क्योंकि वह सारा दोष विरोधी दलों पर मढ़ देती है। वास्तव में जब तक बंगाल में हिंसा के लिए ममता सरकार को सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, तब तक राज्य के हालात सुधरने वाले नहीं हैं।
ममता वोट बैंक की राजनीति के लिये कानून एवं सुरक्षा व्यवस्था की धज्जियां बार-बार उड़ाती रही है। ममता ने देश की एकता-अखंडता और सुरक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाज किया है, कानून से खिलवाड़ जितना पश्चिमी बंगाल में हुआ है उतना शायद ही देश के किसी दूसरे राज्यों में हुआ हो। चुनावों में जितनी हिंसा बंगाल में हुई, उतनी अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिली। बंगाल का लोकतंत्र तानाशाही मानसिकता से गुजर रहा है। इन स्थितियों से तो यही लगता है कि राजनीतिक वोट बैंक के लिए ममता संविधान एवं सुरक्षा-व्यवस्था की जितनी अवमानना कर सकती है, उसने की है और आगे भी वह करती रहेगी। चुनावों में ऐसी हिंसक एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियां लोकतंत्र पर एक धुंधलका है, जिस पर नियंत्रण जरूरी है।
लोकसभा चुनाव में जिन राज्यों के परिणामों ने पूरे देश को चौंकाया है उनमें पश्चिम बंगाल भी शुमार है। पश्चिम बंगाल में चुनाव परिणाम इसलिये भी आश्चर्य में डाल रहे हैं कि वहां तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ व्यापक नाराजगी थी, ममता सरकार के कई मंत्रियों और विधायकों पर घोटाले के आरोप लगे थे, संदेशखाली की महिलाओं पर हुआ अत्याचार देश भर में बड़ा मुद्दा बन गया था, ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के इर्दगिर्द ईडी का शिकंजा कसा हुआ था, ममता बनर्जी को सनातन विरोधी बताया जा रहा था, तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने चुनावों से ऐन पहले पाला बदल लिया था, तृणमूल कांग्रेस पर हिंसक एवं अराजक होने का तगमा लगा था, बावजूद ममता जीती। देखा जाये तो ममता बनर्जी की छवि जुझारू एवं कद्दावर नेता की रही है और वह अपनी पार्टी को जिताने के लिए जी-जान लगा देती हैं। चुनाव प्रचार के दौरान खुद पर होने वाले राजनीतिक हमलों को वह अपने पक्ष में मोड़ लेने में माहिर हैं। इसके अलावा, इंडिया गठबंधन के तमाम नेताओं ने विभिन्न राज्यों में सीटों का बंटवारा कर आपस में समन्वय बनाकर चुनाव लड़ा लेकिन ममता बनर्जी ने बंगाल में अकेले ही सारी चुनौती झेली। वह अपने बलबूते चुनाव जीतने का माद्दा रखती है तो फिर हिंसा का सहारा क्यों लेती है? अराजकता फैलाकर अपने ही शासन को क्यों दागदार बनाती है? क्यों अपने प्रांत की जनता को डराती है, भयभीत करती है? क्या ये प्रश्न ममता की राजनीतिक छवि पर दाग नहीं है?
ममता एवं तृणमूल कांग्रेस का एकतरफा रवैया हमेशा से समाज को दो वर्गों में बांटता रहा है एवं सामाजिक असंतुलन तथा रोष का कारण रहा है। बदले हुए राजनीतिक हालात इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किसी भी एक वर्ग की अनदेखी कर कोई भी दल राजसत्ता का आनंद नहीं उठा सकता। मुद्दा चाहे रामनवमी पर हिंसा का हो या संदेशखाली में हिन्दू महिलाओं के साथ अत्याचारों का या साधु-संतों को डराने-धमकाने का। राज्य में शीर्ष संवैधानिक पद पर रहते हुए भी ममता बनर्जी ने अलोकतांत्रिक, गैर-कानूनी एवं राष्ट्र-विरोधी कार्यों को अंजाम दिया है। बंगाल में तो भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के जबड़े फैलाए, हिंसा की जीभ निकाले, मगरमच्छ सब कुछ निगल रहा है। ममता अपनी जातियों, ग्रुपों और वोट बैंक को मजबूत कर रही हैं-- देश को नहीं। दुनिया के लोग केवल बुराइयों से लड़ते नहीं रह सकते, वे व्यक्तिगत एवं सामूहिक, निश्चित सकारात्मक लक्ष्य के साथ जीना चाहते हैं। अन्यथा जीवन की सार्थकता नष्ट हो जाएगी। बंगाल में आम जनजीवन की सार्थकता ही नष्ट हो रही है।