उत्तर प्रदेश में बीजेपी के हिन्दुत्व पर भारी पड़ी सपा की जातीय जुगलबंदी

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के हिन्दुत्व पर भारी पड़ी सपा की जातीय जुगलबंदी

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को बड़ा झटका लगा है। यूपी में खराब परफारमेंस की वजह से बीजेपी केन्द्र में अपने दम पर बहुमत का भी आकड़ा नहीं पा कर पाई। भले ही एनडीए के तौर पर उसकी सरकार बनना तय लग है, लेकिन अबकी से उसके सामने चुनौती बड़ी होगी। बीजेपी का यह सारा खेल यूपी ने बिगाड़ा है। 2017 के विधान सभा चुनाव के बाद जिस तरह से अप्रत्याशित तरीके से बीजेपी आलकमान द्वारा योगी को यूपी का सीएम बनाया गया था, उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव और 2022 के विधान सभा चुनाव में मोदी के साथ योगी का भी सिक्का खूब चला। यहां कोई भी चुनाव होता मोदी आगे तो योगी उनके पीछे नजर आते थे। अपने बल पर शानदार प्रदर्शन करने वाले सीएम योगी आदित्यनाथ का जादू अबकी लोकसभा चुनाव में क्यों नहीं चला यह यक्ष प्रश्न है। कहा यह भी जा रहा है कि समाजवादी पार्टी के  पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) फार्मूला ने बीजेपी के हिन्दुत्व को हासिये पर ढकेल दिया। जबकि जमीनी हकीकत यही है कि यूपी की सियासी पिच पर भले योगी मात खा गये हों, लेकिन उनकी सरकार के कामकाज को लेकर किसी को कोई खास नाराजगी नहीं है। आज भी प्रदेश में लॉ एंड आर्डर के कारण उनकी छवि काफी बड़ी दिखती है। विकास के कार्य भी ठीकठाक चल रहे थे, ऐसे में यही कहा जा सकता है कि शायद योगी अपनी बात को मतदाताओं के सामने उतने सही तरीके से नहीं जैसा कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव करने में सफल रहे। वहीं बसपा के वोटर को भी जब इस बात का अहसास हुआ कि बहनजी अबकी से रेस में नहीं है तो उसने भाजपा की जगह समाजवादी पार्टी का साथ ज्यादा पसंद किया, यह भी बीजेपी के लिये माइनस प्वाइंट रहा। इसकी वजह भी साफ है। दलित और उसके साथ पिछड़ों को भी इस बात का विश्वास हो गया था कि यदि मोदी मजबूत हुए तो उनका आरक्षण खत्म हो जायेगा।

बहरहाल, योगी की भविष्य की राजनीति पर लोकसभा चुनाव के नतीजे का प्रभाव पड़ना निश्चित है। एक तरफ विपक्ष उनके खिलाफ ज्यादा हमलावर होगा तो पार्टी के भीतर से भी उनके खिलाफ आवाज उठने लगेंगी। क्योंकि अक्सर ऐसी खबरें आती थीं कि योगी राज में बीजेपी के जनप्रतिनिधियों को कोई महत्व नहीं मिल रहा था और इसकी बड़ी वजह योगी को समझा जाता था। यहां तक की चौकी-थाने तक में बीजेपी नेताओं और पार्षदों की बात तो दूर विधायकों और सांसदों तक की नहीं सुनी जाती थी। यूपी में भाजपा के साथ-साथ उसके सहयोगी दलों को भी झटका लगता है। सुभासपा के बढ़ बोले नेता ओम प्रकाश राजभर  अपने बेटे को चुनाव नहीं जिता पाये तो संजय निषाद की पार्टी का भी एक सीट पर खाता नहीं खुला। हॉ, राष्ट्रीय लोकदल अपनी दो और अपना दल एस की अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से चुनाव जीत गई हैं। वहीं, सुभासपा को घोसी लोकसभा सीट पर झटका लगा है। इंडिया गठबंधन प्रदेश की 80 में से 43 सीटें जीतने में सफल रहा। इसमें सपा की 37 सीटों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कांग्रेस को भी 6 सीटों पर जीत हासिल हुई, लेकिन इसका श्रेय भी अखिलेश को ही दिया जा रहा है। वहीं, भाजपा के नेतृत्व में एनडीए 36 सीटों पर ही हासिल कर पाई,जिसमें भाजपा की 33 सीटें थीं। यूपी में उसके सात केन्द्रीय मंत्री चुनाव हार गये। एक सीट पर आजाद समाज पार्टी को जीत हासिल हुई।

दस वर्षो गे बाद अबकी से यूपी के वोटिंग पैटर्न में बड़ा बदलाव देखने को मिला। भाजपा बड़े स्तर पर पिछड़ी, यह तो सबने देखा, परंतु क्यों पिछड़ी इसको लेकर उसके अंदर भी दुविधा नजर आ रही है। जो बीजेपी 2019 में यूपी में 63 सीटें जीती थीं जो अबकी से वह 33 पर सिमट गई। पार्टी को 30 से सीटों का का नुकसान एठाना पड़ा। वहीं, कांग्रेस का आकड़ा एक से छह पर पहुंच गया है। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस ने प्रदेश में बढ़त बनाई है। वहीं, समाजवादी पार्टी अपना सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने में कामयाब रही है। 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन के बाद से अब तक का यह उसका सबसे शानदार प्रदर्शन था। इतना बेहतर प्रदर्शन तो किसी भी लोकसभा चुनाव में स्वयं मुलायम सिंह यादव तक नहीं कर पाये थे। इससे पूर्व 2004 में सपा ने 35 सीटें जीती थीं। इससे यही लगता है कि इंडिया गठबंधन अपनी  रणनीति बेहतर तरीके से जमीन पर उतरने में सफल रही। वहीं, भाजपा के पक्ष में माहौल बनता नहीं दिख पाया। ऐसे में भाजपा प्रदेश नेतृत्व में बदलाव की रणनीति पर काम कर सकता है। इस पर चर्चा शुरू हो गई है, लेकिन यह चर्चा हवा-हवाई ज्यादा लगती है।

यह वह चर्चा है जिसे आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने सबसे पहले हवा दी थी। उन्होंने दावा किया था कि लोकसभा चुनाव के बाद यूपी में सत्ता परिवर्तन होगा। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद से हटाए जाएंगे। लखनऊ में इंडिया गठबंधन के प्रेस कॉन्फ्रेंस में अरविंद केजरीवाल ने सीएम योगी आदित्यनाथ पर बड़ा दावा किया था। केजरीवाल ने कहा था कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  दिल्ली आए थे। उन्होंने मुझे गालियां दीं। योगी जी, मैं आपसे विनम्रता से कहना चाहता हूं कि आपके असली दुश्मन आपकी ही पार्टी में हैं। भाजपा में अपने दुश्मनों से लड़िए। आप केजरीवाल को गाली क्यों दे रहे हैं? अरविंद केजरीवाल ने दावा किया था कि पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह आपको हटाना चाहते हैं। आपको यूपी के सीएम की कुर्सी से हटाने की पूरी तैयारी चल रही है। आप उनसे निपटिए। केजरीवाल ने लोगों से कहा था कि इंडिया को बचाना है तो इंडिया गठबंधन को जिताना है।

खैर, योगी से इत्तर बात बसपा की भी जरूरी है। बीएसपी सुप्रीमो मायावती की पार्टी की कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। बसपा को किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली। यूपी में बसपा की सुप्रीमों मायावती को दलितों की एकमात्र राजनीतिक मसीहा माना जाता रहा है। उनके इशारे पर दलितों का वोट पड़ता रहा है। मगर इस बार हालात इसके कुछ अलग दिखाई दिया। कभी मायावती के एक इशारे पर यूपी का 17 फीसदी दलित वोट बैंक वोटिंग के लिए तत्पर रहता था। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बसपा के टिकट को हासिल करने के लिए उम्मीदवारों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। कई बार तो मायावती पर टिकट को बेचने के आरोप भी लगे। मगर इसके बावजूद बसपा के कोर वोट बैंक को कोई खास असर नहीं पड़ा। फिलहाल इस बार के नतीजों से कुछ अलग ही हालात सामने आ रहे हैं। इस बार मायावती का वोट बैंक उनके साथ नहीं रहा है। इस बार दलित वर्ग के पढ़े-लिखे नौजवानों का एक तबका इस बात से पूरी तरह सहमत था कि बीजेपी को हराने के लिए बसपा को विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा होना चाहिए था. जब ऐसा नहीं हुआ तो इन लोगों ने इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के समर्थन में वोट देने का फैसला किया. इससे उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों को ऐसी सफलता मिली है, जिसकी उनको उम्मीद भी नहीं थी। इस तरह देखा जाए तो मायावती की राजनीतिक पकड़ फिलहाल अपने कोर वोट बैंक पर कमजोर होती दिख रही है।

आमतौर पर बीएसपी को विपक्ष भाजपा की बी टीम कहकर टार्गेट करता रहा है पर कहानी कुछ और ही चल रही थी। पश्चिम से पूरब तक मायावती ने ऐसे कैंडिडेट खड़े किए जो एनडीए कैंडिडेट्स को ही नुकसान पहुंचा रहे थे। पश्चिमी यूपी में मेरठ में देवव्रत त्यागी, मुजफ्फरनगर से दारा सिंह प्रजापति, खीरी सीट से बीएसपी का पंजाबी प्रत्याशी आदि बीजेपी को सीधे नुकसान पहुंचा रहे थे। इसी तरह पूर्वी यूपी में घोसी में बीएसपी ने जो कैंडिडेट दिया। वह सीधा इशारा था कि पार्टी ने एनडीए का काम खराब करने का ठेका ले लिया है। घोसी सीट पर बालकृष्ण चौहान ने एनडीए की 2 साल पुरानी तैयारी को ही पलीता लगा दिया। यहां पर बीजेपी ने स्थानीय नोनिया नेता दारा सिंह चौहान को समाजवादी पार्टी से इसलिए ही लाए गए थे कि उनका लाभ घोसी और आसपास की सीटों पर लिया जा सके. पर जब बीएसपी ने एक नोनिया जाति के कैडिडेट बालकृष्ण चौहान का खड़ा कर दिया तो जाहिर है कि एनडीए का काम खराब होना ही था। इसी तरह चंदौली में बीएसपी उम्मीदवार सतेंद्र कुमार मौर्या बीजेपी उम्मीदवार महेंद्रनाथ पांडेय के लिए खतरा बन गए। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी के मनीष त्रिपाठी मिर्जापुर में अनुप्रिया पटेल को त्रिकोणीय मुकाबले में फंसा दिए.वह तो अंत समय में सीट निकालने में किसी तरह सफल हो गईं। पूरे प्रदेश में दो दर्जन ऐसी सीटें हैं जहां बीजेपी कैंडिडेट के वोट बीएसपी कैंडिडेट के चलते कम हो गये।

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