लोकसभा चुनाव 2024 जैसे−जैसे समाप्ति की ओर बढ़ता जा रहा है, वैसे−वैसे और अधिक रोमांचक होता जा रहा है। चुनाव आयोग की चिंता और कोशिश इस बात को लेकर नित्य−निरंतर जारी है कि लोकसभा चुनाव के सात चरणों के बेहद लंबे, लेंदी एवं उबाऊ शिड्यूल को वह शांतिपूर्वक एवं निर्विघ्न निपटा सके। हालांकि उसे राजनीतिक दलों और नेताओं से इस बात की अपेक्षा नहीं होगी... और न ही करनी चाहिए कि वे इस बेहद कष्टसाध्य एवं दिमाग खपाऊ लोकसभा चुनाव के शांति एवं स्वच्छतापूर्वक संचालन और समाप्ति के लिए उसकी प्रशंसा करेंगे और उसके कंधे पर भरोसे वाले अपने हाथ रखेंगे। दुर्भाग्य से फिलहाल तो ऐसा कतई नहीं होने वाला, यह चुनाव आयोग को भी अच्छी तरह से पता है और नेताओं को भी। यहां तक कि अब तो देश की जागरूक जनता भी इस गुत्थी को समझने लगी है। लेकिन बता दें कि परेशान केवल चुनाव आयोग ही नहीं है, बल्कि राजनेताओं के चेहरों पर भी चिंता की लकीरें और आखों में भय का खौफ स्पष्ट रूप से देखा और पढ़ा जा सकता है... और यही कारण है कि पराजय की चिंता और भय के वशीभूत हुए नेता अपनी विजय के लिए तरह−तरह के तीर और तुक्के आजमाने में लगे हैं।
कभी वे जाति का राग अलाप कर समाज को विभाजित करने का प्रयास करते हैं तो कभी धर्म के नाम पर घृणा की भट्ठी जलाकर उसमें मानवता और भाइचारे को खाक कर देना चाहते हैं, कभी मिथ्या समाचारों, आरोपों, नारों और वादों का सहारा लेते हुए जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं तो कभी आगजनी, हिंसा और उत्पात को प्रोत्साहन देकर भय और आतंक का वातावरण तैयार करना चाहते हैं, ताकि वे चुनाव को धु्व्रीकरण के माध्यम से प्रभावित कर सकें, जिसका सीधा और नकारात्मक प्रभाव दूसरे पक्ष वाले प्रत्याशी तथा उनके मतदाताओं पर पड़ता है। निश्चत रूप से इस तिकड़मबाजी में कमोबेश आज सभी पक्षों और पार्टियों के नेता शामिल हो चुके हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आज के इस धूमिल राजनीतिक माहौल में कोई भी दल या नेता दूध का धूला नहीं है या कहा जाए कि इस हमाम में सभी नंगे हैं। बहरहाल, बिहार की बात करें तो राज्य की चुनावी फिजा में लालू मॉडल राजनीति का दबदबा आज भी कायम है। वैसे बिहार का 1990 से 2005 के बीच का वह राजनीतिक दौर नहीं भूला जा सकता, जब लालू यादव मतपेटी से
जिन्न निकालने का दावा करते थे। वे हंकड़कर कहते थे कि मतगणना के दिन मतपेटी से जिन्न निकलेगा और लालू चुनाव जीत जाएगा।
हालांकि इसका आज तक पता नहीं लग पाया है कि वह तथाकथित जिन्न प्रत्याशियों को चुनाव जिताने में कितना सहायक अथवा कारगर था। पता तो आज तक यह भी नहीं चल पाया है कि वह जिन्न स्वयं लालू यादव को कितनी बार चुनाव जिताने में सफल रहा था। वैसे बिहार की राजनीति से उनका वह भूराबाल यानी चार प्रमुख अगड़ी कही जाने वाली जातियों अर्थात् भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) को साफ कर देने वाले जुमले को भी कैसे भूला जा सकता है, जिसने बिहार की राजनीति में जाति और वर्ग के नाम पर जनता के बीच एक मोटी और गहरी रेखा खींच दी थी। इतना ही नहीं, लालू राज में हिंसा राज्य की पहचान बन चुकी थी। अपहरण और हत्या का धंधा उद्योग की तरह चलाया जाने लगा था। बेटी−बहुओं के साथ दिन−दहाड़े बलात्कार करना, लूटपाट, आगजनी, छिनतई और मारपीट जैसी घटनाएं तो सामान्य बात मालूम पड़ती थीं। राज्य संगठित अपराध का गढ़ बन गया था, जिसकी राजधानी पटना बन गई प्रतीत होती थी। उस दौर को याद करें तो पटना हाइकोर्ट ने तब कई बार बिहार के लालू शासन की तुलना जंगल राज से करते हुए राज्य में विधि−व्यवस्था बनाए रखने की चेतावनियां दी थीं। यही नहीं, राज्य में राजनीतिक अपराध भी चरम पर पहुंच चुका था, जिसका ज्वलंत उदाहरण उनकी बेटी रोहिणी आचार्य के विवाह से जुड़ी एक घटना है।
बता दें कि रोहिणी की शादी के समय पटना में नए खुले गाडि़यों के शोरूम से लगभग 45 नई कारें जबरदस्ती उठा ली गई थीं। दर्जन भर दुकानों से लगभग 100 सोफा−सेट तथा अन्य फर्नीचर लाए गए थे। एक शोरूम से 07 लाख रुपए के डिजाइनर कपड़े उठा लिए गए थे और 50 किलो ड्राईफ्रूट्स के अलावा खाने−पीने की अन्य सामग्रियां भी लूट ली गई थीं। बताया जाता है कि इसी कारण से पटना के एक्जिबशिन रोड पर गाडि़यों के दो शोरूम बंद कर दिए गए थे और कुछ दिनों बाद टाटा कंपनी ने भी अपने शोरूम में ताला लगा दिया था। तब पटना में लालू यादव के सालों सुभाष और साधु यादव का दबदबा कायम था। सुभाष यादव की यह स्वीकारोक्ति तब मीडिया में चर्चा का विषय बनी थी कि जीजा ने उन्हें राव साहब (समरेश के पिता) के स्वागत के लिए कारों की व्यवस्था करने को कहा, जब उन्होंने विधायकों की गाडि़यां लाने का सुझाव दिया तो लालू यादव ने मना करते हुए कहा कि नई कारें लेकर आओ। गौरतलब है कि दूसरे दिन पटना हवाई अड्डे पर नई कारों की लंबी लाइन लगी थी, जिन पर रोहिणी संग समरेश लिखा स्टीकर लगा था। बेशक इस प्रकार की राजनीति में लालू सफल रहे तथा दुर्भाग्य से उन्हें समय−समय पर कांग्रेस समेत नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे राज्य के प्रमुख नेताओं का साथ और समर्थन भी मिलता रहा, जिनकी राजनीति लालू की राजनीति से बिल्कुल ही भिन्न शैली और परंपरा वाली रही है।
इसका तात्पर्य यह है कि आजकल राजनीति में प्रायः सबकुछ केवल लाभ और हानि को देखकर ही निर्धारित किया जाने लगा है। बहरहाल, लालू यादव ने बिहार की चुनावी भूमि में जिन तिकड़मबाजियों और चालबाजियों का बीजारोपण किया था, उसकी फसल आजकल उनकी संतानें काटने लगी हैं। तेज प्रताप के कारनामों से तो सभी परिचित ही हैं कि कैसे जब भी वे मुंह खोलते हैं या कुछ राजनीतिक पहल करते हैं तो बेलगाम हो जाते हैं। अपनी इस बेलगामी के कारण वे अपनी तथा अपने दल की किरकिरी कई बार करा चुके हैं। हालांकि उनके छोटे भाई तेजस्वी की कुछ सधी चालें बताती हैं कि वे एक पेशेवर राजनीतिक व्यक्ति बनने की अभिलाषा रखते हैं, लेकिन उनकी एक बहन रोहिणी आचार्य भी अपने बेलगामी बोल के लिए अक्सर चर्चा का कारण बनती रहती हैं। अब एक बार फिर वे विवादों में घिर गई हैं। इस बार उन पर लोगों को हिंसा के लिए उकसाने का आरोप लगा है। बताया जा रहा है कि बिहार के सारण में लोकसभा चुनाव 2024 के 05वें चरण की वोटिंग के दौरान 20 मई की शाम को भिखारी ठाकुर चौक के पास बूथ संख्या 118 पर अपने समर्थकों के साथ पहुंच कर रोहिणी ने मतदाताओं से दुर्व्यवहार किया था। हालांकि आक्रोशित भीड़ को देखते हुए वे खुद तो वहां से निकल गईं, लेकिन जाते−जाते हिंसा की आग भड़का गईं।
अगले दिन सुबह हुए बवाल में तीन लोगों को गोली लगी, जिनमें से एक व्यक्ति की मौत हो गई और दो लोग अब भी अस्पताल में भर्ती हैं। पुलिस ने घटना को राजद−भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच का झड़प बताया, जबकि सूत्र बताते हैं कि घटना का मुख्य कारण दो जातियों राजपूत और यादव के बीच के विवाद का उन्मादी होना था। देखा जाए तो रोहिणी के राजनीतिक तौर−तरीकों में वही पुराना राजनीति का लालू मॉडल या कहा जाए कि लालू कट राजनीति वाला अंदाज दिखाई पड़ता है, जो बिहार में 1990 से 2005 के बीच लालू यादव के 15 वर्षों के शासन वाले दौर की याद कराता है। उस परिप्रेक्ष्य में यदि रोहिणी के राजनीतिक पैंतरों को देखा जाए तो बिहार में जंगल राज के पुनः आ जाने की चिंता और भय होना स्वाभाविक है। बिल्कुल यही चिंता और भय आज बिहार की जनता के मन−मस्तिष्क में भी छाया हुआ है कि कहीं बिहार में पुनः जंगल राज तो नहीं आ जाएगा।