खबर है कि रिलीजियस मजहबी स्वतंत्रता की स्वयंभूव ठेकेदार बनी अमेरिकी सरकार भारत में मुसलमानों की स्थिति पर बडी चिन्तित है। वह चिन्तित इसलिए नहीं है कि भारत में मुस्लिम आबादी सर्वाधिक ४३ प्रतिशत की दर से बढ चुकी है और भारतीय मुसलमानों की विभिन्न जिहादी गतिविधियों से यहां के अनेक राज्यों में बहुसंख्यक हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर रहा है; अपितु वह ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ नामक एक अमेरिकी अखबार की उस रिपोर्ट को ले कर चिन्तित है, जिसमें यह कहा गया है कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारत में ‘धर्मनिरपेक्ष ढांचा और मजबूत लोकतंत्र कमजोर’ हुआ है।”
मालूम हो कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने “अपने ही देश में अजनबी: मोदी के भारत में मुसलमान होना” शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें दावा किया गया है कि भारत में मुस्लिम समाज पीड़ा और अलगाव से जूझ रहा है। वे अपने बच्चों को ऐसे देश में पालने की कोशिश कर रहे हैं, जहां उनकी पहचान पर सवाल उठा रहा है। इस अखबारी समाचार बनाम दुष्प्रचार पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिका ने कहा है कि वह इस मामले पर भारत सहित दुनिया भर के देशों के साथ बातचीत कर रहा है, क्योंकि वह धार्मिक स्वतंत्रता के लिए सार्वभौमिक सम्मान को बढ़ावा देने के लिए अपनी प्रतिबद्ध है। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा है कि 'हम दुनिया भर में सभी के धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए सार्वभौमिक सम्मान को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा के लिए गहराई से प्रतिबद्ध हैं।' मिलर ने आगे यह भी कहा है कि “हमने भारत समेत कई देशों के साथ धार्मिक समुदायों के लिए समान रिलीजियस व्यवहार के महत्व पर चर्चा की है।”
यहां यह गौरतलब है कि ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रिपोर्ट और उस पर अमेरिकी सरकार की प्रतिक्रिया ऐसे समय पर आई है, जब भारतीय मुसलमानों की आबादी में सर्वाधि 43% की असामान्य वृद्धि दर्ज की गई है और सारा मुस्लिम समाज एकजुट हो कर भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध संसदीय चुनाव को प्रभावित करने के लिए ‘वोटिंग जिहाद’ का संगठित अभियान चला रहा है। इससे पहले यह मजहबी समाज देश के कई राज्यों में अपनी संगठित शक्ति के बुते शासन-प्रशासन पर काबिज हो कर वहां से धार्मिक समाज के लोगों (हिन्दुओं) को विस्थापित होने को बाध्य कर चुका है और फिलवक्त अनेक राज्यों की सियासत को अपने हिसाब से संचालित करने की हैसियत प्रदर्शित कर रहा है। इतना ही नहीं, वह भारतीय संविधान से इत्तर ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के सहारे विशेषाधिकारों की मलाई चाभ रहा है और ‘मुस्लिम वक्फ बोर्ड’ की लाठी से सरकारी-गैरसरकारी भू-खण्डों पर कब्जा करते हुए लाखों हेक्टेयर भूमि का स्वामित्व हासिल कर सेना व रेलवे के बाद सबसे बडा भू-स्वामी बना हुआ है। जगजाहिर है कि भारत में मुसलमानों की हालत व हैसियत जितनी अच्छी है, उतनी मुस्लिम देशों में भी नहीं है। जबकि पडोसी पाकिस्तान में हिन्दुओं की आबादी 90% से भी ज्यादा घट गई है और वहां वे इस्लामिक स्टेट-संरक्षित उत्पीडन का इस कदर शिकार होते रहे हैं कि उनके मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भारत सरकार को उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान करने का कानून बनाना पडा है।
बावजूद इसके, अमेरिकी मीडिया इण्डस्ट्री और फॉरेन मिनिस्ट्री को भारत में ही मुसलमान आपदग्रस्त दीख रहे हैं, तो यह उनका दृष्टि-दोष नहीं है, अपितु एक सुनियोजित षड्यंत्रकारी प्रपंच है, जिसके सूत्र-समीकरण उस अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) के हाथों में हैं, जिसने अभी हाल ही में अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी कर भारत को ‘धार्मिक स्वतंत्रता का हननकर्ता’ बताते हुए विशेष चिन्ता वाले देशों की सूची में शामिल कर रखा है। यूएससीआईआरएफ के लगभग सभी सदस्य रिलीजियस विस्तारवादी चर्च मिशनरियों से सम्बद्ध है, जबकि इस आयोग का गठन ही अमेरिका ने वेटीकन-पोप के दबाव में ‘इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम एक्ट’ नामक कानून बना कर उसी के तहत कायम किया हुआ है ।
देखने-सुनने में तो यह अधिनियम दुनिया के सभी राष्ट्रों के भीतर वहां के नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता, अर्थात किसी भी रिलीजन-मजहब अथवा धर्म को अपनाने-मानने की स्वतंत्रता को संरक्षित करने के बावत इसकी वकालत करता है; किन्तु वास्तविक व्यवहार में यह ‘धर्म (सनातन) त्यागने व रिलीजन-मजहब अपनाने’ का मार्ग प्रशस्त करता है और इस हेतु चर्च-मिशनरी-संस्थाओं (एनजीओ) को सरंक्षित करता है। यही कारण है कि इस अमेरिकी अधिनियम के वैश्विक क्रियान्वयन की निगरानी करने वाला वह आयोग (यूएससीआईआरएफ) भारत में कायम धर्मान्तरण-रोधी कानूनों और विदेशी धन से संपोषित मिशनरी संस्थाओं को नियंत्रित करने वाले भारतीय कानूनों पर आपत्ति जताते रहता है, जैसा कि उसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि- “बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार ने भेदभावपूर्ण राष्ट्रवादी नीतियों को मजबूत किया, घृणास्पद बयानबाजी को बढ़ावा दिया और सांप्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने में विफल रही, जिससे मुस्लिम, ईसाई, सिख, दलित, यहूदी और आदिवासी असमान रूप से प्रभावित हुए। गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए), नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) एवं धर्मांतरण व गोहत्या विरोधी कानूनों के लगातार लागू होते रहने के कारण धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनकी ओर से वकालत करने वालों को मनमाने ढंग से हिरासत में लिया गया, निगरानी की गई और निशाना बनाया गया।”
मेरी एक पुस्तक- ‘भारत के विरुद्ध पश्चिम के बौद्धिक षड्यंत्र’ में “अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, अर्थात बे-रोक-टोक धर्मोन्मूलन व ईसाईकरण” शीर्षक से एक अध्याय संकलित है, जिसमें अनेक प्रामाणिक तथ्यों से मैंने यह सिद्ध किया हुआ है कि यह अधिनियम वस्तुतः भारत राष्ट्र के विघटन व सनातन धर्म के उन्मूलन एवं हिन्दू-समाज के ईसाइकरण-इस्लामीकरण का मिशनरी हथकण्डा और लक्षित देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप का अमेरिकी फण्डा मात्र है। यह आयोग इस्लामी जेहाद का भी मौन समर्थन करता है, क्योंकि ईसाइयत और इस्लाम दोनों ही धर्म-विरोधी एवं पैगम्बरवादी होने के कारण परस्पर सहयोगी हैं और इन दोनों का विरोध केवल व केवल धर्म (सनातन) से, अर्थात धर्मधारी भारत राष्ट्र व हिन्दू समाज से है। इस अमेरिकी आयोग ने हिंदुओं के बलात यीसाइकरण व इस्लामीकरण पर कभी सवाल नहीं उठाया है; बल्कि धर्मोन्मूलन (धर्मान्तरण) विरोधी भारतीय कानूनों पर ही सदैव आपत्ति जताते रहा है, क्योंकि इन कानूनों से चर्च-मिशनरियों के विस्तारवादी अभियान में बाधायें उत्पन्न होती हैं।
मालूम हो कि अमेरिका ईसाइयों की सर्वोच्च नीति-नियामक सत्ता- वेटिकन सिटी से संचालित समस्त मिशनरी संस्थाओं का संरक्षक बना हुआ है और इन संस्थाओं के प्रतिनिधि अमेरिकी सरकार की वैदेशिक नीति विषयक मार्गदर्शक हुआ करते हैं। इसी दुरभिसंधि के तहत अमेरिका पूरी दुनिया भर में स्वतंत्रता-समानता-लोकतंत्र व मानवाधिकार की निगरानी-पहरेदारी करने वाला चौधरी बना हुआ है इस चौधराहट की आड में वेटिकन चर्च का एजेण्डा क्रियान्वित करते रहता है। ‘टाईम’ और ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ जैसे मीडिया संस्थान भी इस दुरभिसंधि के साझेदार हैं।
यही कारण है कि जिस प्रकार से यूएससीआईआरएफ को यह तथ्य व सत्य नहीं सूझता, उसी प्रकार से ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को भी यह नहीं दिखता कि भारत-विभाजन के वक्त पाकिस्तान में तकरीबन ढाई करोड हिन्दू रह गए थे और लगभग उतने ही मुसलमान भारत में रह गये थे, किन्तु आज पाकिस्तान में शासन-संरक्षित मुस्लिम आतंक से पीडित-प्रताडित-धर्मांतरित-विस्थापित होते रहने के कारण हिन्दूओं की आबादी घट कर बीस लाख (दस प्रतिशत) से भी कम हो गई है, जबकि भारत में शासन से तुष्टिकृत-उपकृत होते रहने के कारण मुसलमानों की आबादी बढ कर पैंतीस करोड से भी ज्यादा हो गई है। यूएससीआईआरएफ और न्यूयॉर्क टाइम्स के कारिन्दे कश्मीर केरल कर्नाटक व बंगाल में व्याप्त मुस्लिम जिहादी आंतकी अभियान के प्रति आंखें बन्दे किये हुए रहते हैं, किन्तु असम व उतरप्रदेश जैसे राज्यों में उसका प्रतिकार होने पर भ्रामक रिपोर्ट जारी करने और अनर्गल दुष्प्रचार करने में जुट जाते हैं। फिर तो इन्हीं भ्रामक रिपोर्टों को आधार बना कर अमेरिकी सरकार भारत-विषयक अपनी वैदेशिक नीतियां तय करता है और भारत में जिहाद बरपा रहे मजहबी संगठनों के प्रति सहानुभूतिजनक चिन्ता जताते हुए उनके समर्थन-संरक्षण में परोक्ष रुप से खडा हो जाता है। अमेरिकी सरकार की ऐसी चिन्ता से खतरनाक हालातों का निर्माण होता है, क्योंकि उसके प्रभाव से मजहबी जिहादी संगठनों के विरुद्ध व्यापक जनमत निर्मित नहीं हो पाता है और कार्रवाई की धार भी कमजोर हो जाती है। ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह दुष्प्रचार करने वाले अमेरिकी आयोगों और मीडिया-संस्थानों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आईना दिखाने का काम तो करे ही।