आम चुनाव 2024 के पांच चरण बीत जाने के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा और कांग्रेस को धर्म, जाति, भाषा, सेना और देश के संविधान को लेकर की जा रही बयानबाजी पर जो सख्त हिदायत दी है, वह देर आयद दुरुस्त आयद जैसा कदम तो है, लेकिन इससे होगा क्या, यह सवाल आज हर किसी के जेहन में कौंध रहा है! उससे भी बड़ा सवाल यह है कि आयोग ने सिर्फ भाजपा और कांग्रेस जैसे जिम्मेदार राजनीतिक दलों को इससे परहेज करने की नसीहत क्यों दी है? क्या इनके गठबंधन में शामिल अन्य क्षेत्रीय दल बयानबाजी के मामले में पाक साफ हैं? यदि मीडिया रपटों पर नजर दौड़ाएं तो कतई नहीं, तो फिर उन्हें नोटिस क्यों नहीं भेजी गई, आयोग को यह बात स्पष्ट करनी चाहिए।
आयोग की इन बातों में दम है कि देश के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को कोई चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। लेकिन सवाल फिर यही कि हमारे राजनीतिक दल तो गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत तक में बहुमत की जो सियासत किए, उसमें ऐसे ऐसे मुद्दे उछाले गए जिससे भारत का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न भिन्न हो गया, देश दो हिस्सों में बंट गया। लेकिन इन क्षुद्र राजनीतिज्ञों को आजादी के 75 साल बाद भी होश नहीं आया है।
गोया, कांग्रेस की सियासी लापरवाही की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो भाजपा की भी सियासी लापरवाही कम नहीं है। इन दोनों राष्ट्रीय दलों ने एक दूसरे को मात देने के लिए जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के आगे घुटने टेके, उनके राष्ट्रघाती-जनघाटी मुद्दों से समझौता किया, उसके परिप्रेक्ष्य में यही कहा जा सकता है कि देश में आज स्वस्थ और मुद्दापरक राजनीति की बात बेमानी है। सभी राजनीतिक दल भावनात्मक मुद्दों के साथ खेल रहे हैं, क्योंकि पूंजीपतियों को यही पसंद है।
सच कहा जाए तो इन बातों पर भारतीय नौकरशाही, न्यायपालिका और मीडिया का स्टैंड भी मानवतावादी नहीं, बल्कि व्यवस्थाहितवादी दिखा, जिससे भारतीय समाज और संस्कृति दोनों गर्त में गई और उसके तथाकथित संरक्षक सियासी मौज लूट रहे हैं। जनता को भरमाकर और सिस्टम से सांठगांठ करके सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के चक्रब्यूह रच रहे हैं, जिसमें जनता ही अभिमन्यु बनकर हमेशा मारी जाती है और संविधान आधारित यह सिस्टम उसकी बेबसी पर आश्वासनों के छींटे मारने के अलावा कुछ नहीं कर पाता!
ऐसे में चुनाव आयोग ने इन दोनों ही राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों को निचले स्तर की टिप्पणियों को लेकर 22 मई 2024 को नोटिस जारी करके रस्मअदायगी कर ली हो, लेकिन इससे कुछ होने जाने वाला नहीं है, क्योंकि भारतीय चुनाव आयोग भी सिर्फ सफेद हाथी समझा जाता है। वह इतना तो कह सकता है और कहा भी है कि दोनों राजनीतिक दल इस तरह की बयानबाजी पर तुरंत रोक लगाएं। साथ ही वह अपने स्टार प्रचारकों को भी ऐसी टिप्पणियों से बचने और मर्यादित संवाद करने को कहें।
लेकिन जब उससे पूछा जाएगा कि स्वतंत्र भारत में उसके विभिन्न हिदायतों को न मानने वाले दलों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, इस पर श्वेत पत्र जारी करे, तो उसकी घिग्घी बंध जाएगी। हिंन्दी पट्टी में इसके बारे में कहा भी जाता है कि यह वह ढोढवा सांप है जिसके काटने से विष नहीं चढ़ता है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि भारत के बेलगाम सियासी दलों के अक्सर बेलगाम बने रहने की असली वजह क्या है?
देखा जाए तो निर्वाचन आयोग ने इस दौरान सबसे तीखी आपत्ति कांग्रेस की ओर से अग्निवीर को लेकर सेना पर किये जा रहे हमलों और उसे लेकर की जा रही राजनीति पर जताई है। आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को थमाए नोटिस में सेना और सुरक्षा बलों पर बिल्कुल भी राजनीति न करने की नसीहत दी है। साथ ही संविधान के खतरे में होने और संविधान बदलने के आरोपों पर भी तुरंत रोक लगाने का निर्देश दिया है। आयोग ने कहा कि ऐसे आरोपों से देश की साख और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है।
लेकिन अब आयोग को कौन समझाए कि इन्हीं जनहितैषी मुद्दों ने ही तो प्रधानमंत्री मोदी की सियासी खटिया खड़ी कर रखी है। देश के नेताओं को, नौकरशाहों को, न्यायविदों को तो पेंशन चाहिए और काम की सुरक्षा भी। लेकिन यही चीज वो देश के नौजवानों को वे लोग देना नहीं चाहते और पूंजीपतियों के हित में कांट्रेक्ट सर्विस जैसे कानूनी प्रावधान तय करते हैं, जिस पर शुरू हुई सियासत के बाद जनादेश जब कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है तो नौकरशाही भी तिलमिला उठी है। चुनाव आयोग की नई नसीहत इसकी बानगी नहीं तो क्या है? यदि संविधान को बचाने की बात नहीं छेड़ी गई होती तो कांग्रेस का दलित वोट बैंक कभी भी उसके पाले में नहीं लौटता, बसपा-लोजपा जैसे दलितवादी दलों का साथ छोड़कर। जहां तक संविधान बदलने की बात है तो इसमें 100 से ज्यादा संविधान संशोधन इस बात के प्रतीक हैं कि इन्हें समय के साथ साथ बदलते रहने की जरूरत है। आज इसकी खामियों को दूर किये जाने की जरूरत है, ताकि एकबार फिर यह राष्ट्र और समाज नहीं बंट पाए।
वहीं, चुनाव आयोग ने भाजपा को भी धर्म, जाति और समाज को बांटने वाले बयानों को तुरंत बन्द करने को कहा है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को दिए नोटिस में आयोग ने कहा है कि इस तरह के बयानों से समाज में कटुता बढ़ती है। यह समाज व देश दोनों के लिए घातक है। आयोग ने इस दौरान दोनों दलों की ओर से आपत्तिजनक बयानों पर पेश की गई सफाई को सिरे से खारिज कर दिया। साथ ही कहा कि चुनाव प्रचार के स्तर को बेहतर बनाये रखने की जिम्मेदारी विपक्षी दलों से ज्यादा सत्ताधारी दल की है। आयोग की बात सही है, लेकिन यह कार्य तो कांग्रेस और भाजपा से ज्यादा अब क्षेत्रीय दल करने लगे हैं। ऐसे में उन्हें हिदायत नहीं देने की बात सबके समझ से परे है। यह कौन नहीं जानता कि देश में जातिवाद, सम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के बीज भारतीय संविधान में ही रोपे गए हैं, जो अब विशालकाय वृक्ष बनकर किसी को छाया दे रहे हैं तो किसी का हक मार रहे हैं। विभिन्न मायनों में यह संविधान अयोग्य लोगों को संरक्षण देकर योग्य लोगों का गला घोंट रहा है। वैचारिक रूप से यह इतना विरोधाभासी है और हमारे जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय नेता इतनी क्षुद्र सोच रखते आये हैं कि राष्ट्रीयता और मानवता उनके लिए कोई मायने नहीं रखता, सिवाय संवैधानिक हिस्सेदारी के।
ऐसे में आयोग ने भले ही दोनों ही प्रमुख दलों के अध्यक्षों को भेजे गए नोटिस में कहा है कि चुनाव तो आते जाते रहते हैं, लेकिन उनकी आपत्तिजनक टिप्पणियां समाज और देश में लंबे समय तक कटुता पैदा करेंगी। ऐसे में वह जो भी बोलें, वह उसके दीर्घकालिक परिणामों को सोच-विचार कर ही बोलें, यह सही बात है। लेकिन आयोग की कोई मानेगा क्यों, जब तक कि उसके पास दंडात्मक कार्रवाई करने का स्पष्ट अधिकार नहीं हो और कार्रवाई भी वह पारदर्शिता पूर्ण तरीके से करे। जो कि भारतीय संवैधानिक संस्थाओं में अमूमन नहीं दिखती। यदि ऐसा होता तो ईडी, सीबीआई आदि संस्थाओं को सरकारी तोता नहीं कहा जाता।
हैरत की बात तो यह है कि जब आयोग ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही सभी राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार के दौरान संयमित भाषा के इस्तेमाल को लेकर दी गई नसीहत की फिर से याद दिलाई है, तो सवाल यह उठता है कि उसकी सख्त कार्रवाई क्या तब नजर आएगी, जब चुनावी फसल राजनैतिक दल समेट ले जाएंगे। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के बाकी बचे दो चरणों के लिए अब 25 मई और 1 जून को मतदान होना है, तब चुनाव आयोग की नसीहत सामने आई है। जबकि अब तो उसकी कार्रवाई सामने आनी चाहिए, नसीहत नहीं!