लोकसभा चुनाव के लिए 19 अप्रैल को पहले चरण में 102 सीटों पर वोट डाले जाएंगे. इसमें उत्तर प्रदेश की आठ सीटें भी शामिल हैं. उत्तर प्रदेश की जिन आठ सीटों पर वोट डाले जाने हैं उनमें पश्चिम उत्तर प्रदेश की सहारनपुर, कैराना, मुरादाबाद, नगीना, बिजनौर, रामपुर, पीलीभीत और मुजफ्फरनगर की सीटें शामिल हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार का चुनाव पहले की चुनावों की तुलना में बदला बदला सा नजर आ रहा है. बीजेपी और सपा-कांग्रेस गठबंधन दोनों ही तरफ से बदली हुई रणनीति दिखाई दे रही है.
जिन आठ सीटों पर 19 तारीख को मतदान होना है उनमें से पांच सीटों पर बीजेपी 2019 के चुनाव में हार चुकी है. हालांकि तब सपा-बसपा का गठबंधन था, लेकिन अब सपा बसपा अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं और रालोद बीजेपी के साथ गठबंधन में है. बदली हुई परिस्थितियों में राजनैतिक दल भी बदले हुए स्ट्रेटेजी पर चुनाव लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं.
बीजेपी पश्चिम में इस बार विकास और ध्रुवीकरण को साथ साथ लेकर चल रही है. साथ ही वो विपक्ष के लीडरशिप का सवाल भी खड़ा कर रही है. मोदी के खिलाफ कौन के नैरेटिव को पश्चिम में बीजेपी की अचूक रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है. बीजेपी विकास और कल्याणकारी योजनाओं के मुद्दों को पीएम मोदी की जनसभाओं के जरिए उठा रही है तो सीएम योगी और गृहमंत्री अमित शाह के जरिए कानून व्यवस्था और ध्रुवीकरण करने की कोशिश भी कर रही है.
उदाहरण के तौर पर पीलीभीत की जनसभा में पीएम ने गन्ना किसानों के भुगतान को लेकर योगी सरकार की तारीफ की. वहीं, सीएम योगी ने अपनी जनसभा में कानून व्यवस्था को मुद्दा बनाते हुए और ध्रुवीकरण की कोशिश करते हुए कहा कि पहले बमबारी होती थी जबकि अब हर हर बम बम का नारा गूंजता है.
विकास और ध्रुवीकरण के कॉकटेल के बाद भी बीजेपी परेशान
विकास और ध्रुवीकरण के कॉकटेल के बावजूद बीजेपी पहले चरण की कुछ सीटों को लेकर परेशान है. मुजफ्फरनगर उनमें से एक है जहां पार्टी अंतर्कलह से जूझ रही है. संजीव बालियान और संगीत सोम के बीच के विवाद और जाटों के दो बड़े खापों के बीच ही आपसी खींचतान ने बीजेपी की चिंता बढ़ा दी है. हालांकि संगीत सोम और संजीव बालियान को एक साथ बिठाकर सीएम ने सन्देश देने की कोशिश की है कि ठाकुर और जाट मतदाता बीजेपी के साथ खड़े हैं. बसपा ने भी इस सीट पर बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ा दी है.
अखिलेश यादव भी इस बार चुनाव प्रचार करने में ध्रुवीकरण से बचते नजर आ रहे हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश मुस्लिम बहुल इलाकों में जनसभा करते तो मुस्लिम समाज का हुजूम उमड़ पड़ता. इसका असर उस समय ये हुआ कि पश्चिम में 80-20 का नैरेटिव बीजेपी ने सेट कर दिया और बीजेपी को इसका जबरदस्त फायदा मिला. अखिलेश अगर मुस्लिम मतदाता के साथ बहुत दिखने से बचे हैं तो बसपा प्रमुख मायावती ने 14 अप्रैल को सहारनपुर की अपनी पहली ही सभा में अनुसूचित जातियों और क्षत्रियों से एकजुट होने की अपील कर ली.
कांग्रेस नेता भी ज्यादा प्रचार करते नजर नहीं आए
कांग्रेस भी पश्चिम में इस बार ज्यादा प्रचार करते नजर नहीं आई. ऐसा लगा कि पहले चरण के लिए सपा-कांग्रेस गठबंधन ने बीजेपी को वॉक ओवर दे दिया, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे उनकी स्ट्रेटेजी बता रहे हैं. सपा किसी भी कीमत पर 80-20 का नैरेटिव सेट नहीं होने देना चाहती है.
वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र कुमार का कहना है कि इस चुनाव में बीजेपी जो नैरेटिव सेट करना चाहती थी वो नहीं हो पाया. किसानों का मुद्दा ये ठीक से उठा नहीं पाए जबकि ध्रुवीकरण जैसी कोई बात दिखी नहीं. कैराना और मुजफ्फरनगर सीट फंसी हुई है जबकि मुरादाबाद ये जीत ही जाएंगे ये ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है. रामपुर में आजम खान के चुनाव नहीं लड़ने के बावजूद सपा वहां कमजोर नहीं है. कुल मिलाकर पिछली वाली स्थिति में भी बीजेपी रहती है तो ये उसके लिए बड़ी बात होगी. पीलीभीत में बीजेपी का चुनाव फंसा हुआ हैं. बीजेपी ने पीलीभीत में बहुत मेहनत की लेकिन जातीय समीकरण इंडिया गठबंधन के पक्ष साथ वरुण का फैक्टर बीजेपी को नुकसान कर रहा है.
आपसी एकजुटता और सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते पर विपक्ष
कैराना से सपा उम्मीदवार इकरा हसन रालोद प्रमुख जयंत चौधरी को अभी भी किसानों के मुद्दों के प्रति संवेदनशील बताया है. जाटों के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने और ध्रुवीकरण से बचने की इसे सपा की रणनीति मानी जा रही है. चुनाव प्रचार के अंतिम दिन राहुल-अखिलेश की जॉइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से दूरी बनाए रखने वाले राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने रामनवमी के दिन संयुक्त प्रेस वार्ता की तो ये अनायास नहीं था.
राजनीतिक विश्लेषक इसे सोची समझी रणनीति बता रहे हैं. दोनों नेताओं ने रामनवमी की बधाई दी और अपसी एकजुटता का परिचय भी. सोची समझी रणनीति के तहत राहुल और अखिलेश दोनों ने पीएम मोदी और सीएम योगी की तुलना में कम प्रचार किया. हालांकि प्रियंका गांधी के रोड शो की चर्चा जरूर हुई. रालोद के बीजेपी के साथ जाने के बाद कांग्रेस-सपा गठबंधन सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर दिखाई दे रहा है.
ध्रुवीकरण के जाल में फंसने से बचा विपक्ष
मुजफ्फरनगर दंगे से जाट मुस्लिम अलग हो गए थे, लेकिन 2019 में सपा, बसपा और आरएलडी एक साथ आने से मुस्लिम-जाट साथ आ गए थे. तब विपक्ष 8 में 5 सीटें जीत गई थीं लेकिन अब जयंत चौधरी बीजेपी के साथ हैं, ऐसे में जाट चौधरी परिवार के साथ रहेगा, जिससे NDA को फायदा हो सकता है. साथ में NDA के पास नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ का चेहरा और मंदिर और राष्ट्रवाद जैसा मुद्दा हैं, लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ी बात हैं कि ध्रुवीकरण नहीं हुआ, जो NDA करना चाहती थी. अब विपक्ष सोच विचार कर प्रचार कर रहा हैं. अगर पश्चिम में ध्रुवीकरण हो गया तो पूर्व तक असर दिखता है. आने वाले अन्य चरणों के चुनाव पर भी विपक्ष की इस रणनीति का असर दिखेगा.