सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला देते हुए राजनीतिक दलों के लिए चंदा जुटाने की पुरानी इलेक्टोरल बांड स्कीम को अवैध करार देते हुए इसके जरिए चंदा लेने पर तत्काल रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बांड की गोपनीयता बनाए रखना असंवैधानिक है। यह स्कीम सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में गठित पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया है। बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं।
अपने फैसले में चीफ जस्टिस ने कहा है कि पॉलीटिकल प्रोसेस में राजनीतिक दल अहम यूनिट होते हैं। पॉलिटिकल फंडिंग की जानकारी वह प्रक्रिया है जिससे मतदाता को वोट डालने के लिए सही चॉइस मिलती है। वोटर्स को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है। जिससे मतदान के लिए सही चयन होता है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने तीन दिनों तक लगातार सुनवाई करने के बाद 2 नवंबर 2023 को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
याचिकाकर्ताओं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) सहित अन्य ने केंद्र सरकार की चुनावी बॉन्ड योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुये इन सभी ने इस योजना को लागू करने के लिए फाइनेंस एक्ट 2017 और फाइनेंस एक्ट 2016 में किए गए कई संशोधन को गलत बताया था। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि इससे राजनीतिक दलों को बिना जांच और टैक्स भरे फंडिंग मिल रही है। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के बजट में चुनावी इलेक्टोरल बांड स्कीम को पेश किया था। जिसे 2 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने नोटिफाई किया था। इस योजना को उसी समय चुनौती दी गई थी। लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। 12 अप्रैल 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया था कि वह 30 मई 2019 तक एक लिफाफे में चुनावी बांड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि कोर्ट ने उस समय इस योजना पर रोक नहीं लगाई थी।
बाद में दिसंबर 2019 में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन दिया था। इसमें मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया गया था कि किस तरह चुनावी बांड योजना पर चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक की चिताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया था। इस पर चुनाव आयोग ने भी अपनी नकारात्मक राय दी थी। चुनाव आयोग का मानना था कि चंदा देने वालों के नाम गुमनाम रखने से पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा 29(बी) का उल्लंघन कर चंदा लिया है या नहीं। विदेशी चंदा लेने वाला कानून भी बेकार हो जाएगा। वहीं भारतीय रिजर्व बैंक का मानना था कि इलेक्टोरल बांड मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा देगा। इसके जरिए ब्लैक मनी को व्हाइट करना संभव होगा। चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की आपत्ति के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपने आप में ऐतिहासिक माना जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पहले केंद्र सरकार ने 5 फरवरी को लोकसभा को बताया था कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के माध्यम से 30 किश्तों में 16,518 करोड़ रुपये के चुनावी बांड बेचे गए हैं। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी द्वारा लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने कहा था कि भारतीय स्टेट बैंक से खरीदे गए चुनावी बांड (चरण 01 से चरण 30) का कुल मूल्य लगभग 16,518 करोड़ रुपये है। चौधरी ने कहा था कि केंद्र ने पहले 25 चरणों के लिए चुनावी बांड जारी करने और भुनाने के लिए एसबीआई को 8.57 करोड़ रुपये का कमीशन दिया है। इसके अलावा इसने अब तक सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एसपीएमसीआईएल) को 1.90 करोड़ रुपये का भुगतान किया है।
चौधरी ने बताया था कि केंद्र सरकार ने 2 जनवरी 2018 को चुनावी बॉन्ड योजना को अधिसूचित किया था। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि स्वच्छ कर भुगतान किया गया पैसा उचित बैंकिंग चैनल के माध्यम से राजनीतिक फंडिंग की प्रणाली में आये। हालांकि दानदाताओं के नाम गुमनाम रहे और सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रहे। ये बांड विशेष रूप से राजनीतिक दलों को धन के योगदान के लिए जारी किए गए थे और इन्हें केवल भारतीय स्टेट बैंक की शाखाओं में ही खरीदा जा सकता था। इलेक्टोरल बॉन्ड से उसी पार्टी को चंदा लेने का अधिकार था जो जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 रिपर्जेंटेशन आफ द पिपुल्स एक्ट की धारा 29 के तहत रजिस्टर्ड हो। जिसे लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम 1 प्रतिशत वोट मिला हो।
भारत में चुनाव आयोग के समक्ष करीबन 1900 पार्टियाँ पंजीकृत हैं। इनमें सैंकड़ों ऐसी पार्टियाँ हैं जिन्होंने कभी चुनाव ही नहीं लड़ा है। इससे यह साफ हो जाता है कि कुछ तो गड़बड़ जरूर है। देश के पंजीकृत राजनीतिक दलों को आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13 ए के तहत आयकर से छूट मिलती है। उनके लिये दान या चंदा लेने की कोई अधिकतम सीमा तय नहीं है। उनको सिर्फ उस लेन-देन का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना होता है जो 20 हजार या उससे ज्यादा हो। इससे कम की रकम का कोई हिसाब उसे नहीं देना होता है। इसी का लाभ उठाकर तमाम राजनीतिक दलों पर कालेधन को सफेद करने और चुनावों में बेहिसाब कालाधन खर्च करने के आरोप लगते रहे हैं। यहीं कारण है कि सैंकड़ों दल चुनाव नहीं लड़ते लेकिन राजनैतिक दल के तौर पंजीकृत हैं।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का सबसे अधिक फायदा केन्द्र में सत्तरूढ़ भाजपा व मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को ही मिला है। चुनाव आयोग के अनुसार 2018-19 में भाजपा को 1450 करोड़ रुपये व कांग्रेस को 383 करोड़ रूपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिला था। वहीं 2019-20 में भाजपा को 2555 करोड़ रुपये व कांग्रेस को 318 करोड़ रुपये मिले थे। 2020-21 के कोरोना काल में भी भाजपा को 22.38 करोड़ व कांग्रेस को 10.07 करोड़ रुपये मिले थे। 2021-22 में भाजपा को 1032 करोड़ रुपये व कांग्रेस को 236 करोड़ रुपये चंदे में मिले। 2022-23 में भाजपा को 1300 करोड़ रुपये व कांग्रेस को 171 करोड़ रुपये चंदे में मिले। इस तरह 2018 से 2022 तक भाजपा को 6359.38 करोड़ रुपये व कांग्रेस को 1118.07 करोड़ रुपये मिले थे। पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दलों को भी इस योजना में बड़ी मा़त्रा में चंदा मिला है। इलेक्टोरल बांड स्कीम से देश के सभी राजनीतिक दलों को चंदा मिला है। सभी दलों ने चंदे कि बहती गंगा में हाथ धोया है। अब यदि कोई राजनीतिक दल खुद को पाक साफ़ दिखने के लिए अन्य दलों पर कीचड़ उछाले तो वही बात होगी सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने चली।
चुनाव में पानी की तरह बेहिसाब पैसा बहाकर सत्ता में आनेवाला कोई भी राजनीतिक दल कभी लोक कल्याणकारी नीतियों को प्रोत्साहन देने वाला नहीं हो सकता है। अतः राजनैतिक दलों की वित्तीय अनियमिततों को दूर करना आज वक्त की जरूरत बन चुकी है। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस संबंध में अब तक जितने भी प्रयास हुए हैं नाकाफी ही साबित हुए हैं। इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से राजनीति में चल रहे चंदे के गंदे धंधे पर रोक तो जरूर लगेगी जो राजनीतिक सुचिता की दिशा में एक नयी पहल होगी।