बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक कांशीराम ने देशभर में दलित समुदाय के अंदर सियासी चेतना जगाने का काम किया, जिसके जरिए मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी. एक समय बीएसपी देश में तीसरी ताकत बनकर उभरी. कांशीराम ने 15 दिसंबर 2001 को लखनऊ में मायावती को अपना सियासी उत्तराधिकारी घोषित किया था. मायावती ने पार्टी को राजनीतिक बुलंदी तक पहुंचाया और 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई. 22 साल के बाद मायावती ने रविवार को अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना सियासी वारिस घोषित कर दिया है.
कांशीराम ने 22 साल पहले जब मायावती को पार्टी की कमान सौंपी तो बीएसपी बुलंदी की तरफ चढ़ रही थी, लेकिन अब पार्टी का सियासी आधार चुनाव-दर-चुनाव सिकुड़ता ही जा रहा है. कांशीराम ने मायावती को वारिस बनाया तो यूपी में बीएसपी 21 फीसदी वोटों के साथ दूसरे नंबर की पार्टी थी, लेकिन अब 13 फीसदी मतों के साथ चौथे नंबर की पार्टी है. यूपी से बाहर भी हर राज्य में बीएसपी का सियासी ग्राफ गिरा है. ऐसे में आकाश आनंद को कांटों भरा ताज मिला है. मायावती की छत्रछाया में पले-बढ़े और सियासी ककहरा सीखने वाले आकाश आनंद क्या बीएसपी को राजनीतिक बुलंदी तक ले जा पाएंगे?
कांशीराम ने BSP को आगे बढ़ाया
बीएसपी का गठन कांशीराम ने अंबेडकर जयंती पर 14 अप्रैल 1984 को किया था. बीएसपी के गठन से पहले कांशीराम पुणे की गोला बारूद फैक्ट्री में क्लास वन अधिकारी के रूप में तैनात थे. यहीं पर जयपुर, राजस्थान के रहने वाले दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में काम कर रहे थे. वो वहां की एससी, एसटी वेलफेयर एसोसिएशन से जुड़े हुए थे. आंबेडकर जयंती पर छुट्टी को लेकर दीनाभाना का अपने सीनियर से विवाद हो गया. बदले में उन्हें सस्पेंड कर दिया गया. इसके बाद कांशीराम को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने कहा, ‘बाबा साहब आंबेडकर की जयंती पर छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं, तब तक चैन से नहीं बैठ सकता.’
कांशीराम ने दलित-पिछड़े और वंचितों की लड़ाई में उतर गए, उन्हें भी सस्पेंड कर दिया गया. यहीं से बामसेफ (ऑल इंडिया बैकवॉर्ड एंड माइनॉरिटी कम्यूनिटीज एंप्लॉइज फेडरेशन) का जन्म हुआ. बाद में डीएस-4 और बीएसपी की स्थापना हुई. कांशीराम ने प्रण किया था कि दलितों का हक और उनको सत्ता दिलाने के आंदोलन को चलाने के लिए खुद को समर्पित करेंगे, न तो वो शादी करेंगे और न ही अपने लिए संपत्ति जमा करेंगे. बीएसपी संस्थापक कांशीराम ने सियासत को ऐसे मथा कि सारे सियासी समीकरण उलट-पुलट हो गए और दलित समाज के अंदर राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया.
मायावती को राजनीति में लाए कांशीराम
अस्सी के दशक में कांशीराम ही मायावती को राजनीति में लेकर आए थे. कांशीराम ने आईएएस बनने की बजाय राजनीति में आने के लिए मायावती को प्रेरित किया. वह संघर्ष के दौर में कांशीराम के साथ जुड़ गईं. कांशीराम के साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष किया और 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. 15 दिसंबर 2001 को लखनऊ में एक सभा में कांशीराम ने कहा, “मैं काफी समय से यूपी कम आ पा रहा हूं, लेकिन खुशी की बात यह है कि मेरी कमी मायावती ने मुझे महसूस नहीं होने दिया.” फिर उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और 2003 में मायावती बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं. बीएसपी की कमान संभालने के चार साल बाद मायावती ने 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाई थीं.
मायावती ने उत्तराधिकारी घोषित करने की कांशीराम की परंपरा को ही आगे बढ़ाया है, लेकिन कांशीराम ने अपने परिवार के किसी सदस्य को आगे न नहीं बढ़ाया. लेकिन मायावती ने सियासी वारिस के लिए अपने परिवार को तरजीह दी और भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. आकाश आनंद ने 2017 में मायावती के साथ सियासी ककहरा सिखाना शुरू किया था.
मायावती ट्रेनिंग के तौर पर 2019 के चुनाव से उनको अपने साथ रैलियों और जनसभाओं में ले जाती थीं. इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे अलग-अलग राज्यों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी जाने लगी और अब 2024 से पहले मायावती ने अपना सिपहसलार घोषित कर दिया है.
मायावती की ओर से बड़ा सियासी दांव
रणनीति के लिहाज से बीएसपी की ओर से यह बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है, लेकिन पार्टी के गिरते सियासी जनाधार को आगे बढ़ाने और युवाओं को पार्टी के साथ जोड़ने की चुनौती होगी. यूपी से लेकर देशभर के राज्यों में बीएसपी का सियासी ग्राफ चुनाव दर चुनाव गिरता जा रहा है और दलित समुदाय का मायावती और बीएसपी से मोहभंग होता जा रहा है. ऐसे में बीएसपी के सियासी भविष्य पर संकट गहरा हुआ है. 2024 का चुनाव उनकी पार्टी के लिए अब तक के सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण चुनावों के साथ-साथ भविष्य की राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण है.
मायावती ने 2024 के चुनाव में बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान पहले ही कर दिया है. बीएसपी का वोट फीसदी और सांसदों की संख्या नहीं बढ़ती है तो पार्टी के लिए सियासी राह मुश्किल हो जाएगी, 2014 में अकेले लड़ने का खामियाजा बीएसपी भुगत चुकी है. यूपी में बीएसपी के एक विधायक हैं और राजस्थान में दो विधायक अभी जीते हैं. देश के बाकी राज्यों में बीएसपी का कोई विधायक नहीं है जबकि एक समय यूपी से सटे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ में भी बीएसपी अपनी जड़ें जमाने में सफल रही थी. भले ही यूपी की तरह देश के दूसरे राज्यों में बीएसपी की सरकार न बनी हो, लेकिन विधायक और सांसद जीतते रहे हैं.
चढ़ान के बाद अब ढलान पर BSP
2007 में बीएसपी यूपी में भले ही पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रही हो, लेकिन उसके बाद से ही गिरावट देखने को मिल रही है. 2012 के यूपी चुनाव में बीएसपी 2007 के 206 सीट से घटकर 80 सीटों पर आ गई. 2017 में बीएसपी महज 19 सीटों पर सिमट गई. 2022 के चुनाव में बीएसपी एक सीट जीतने के साथ 13 फीसदी वोट पर सिमट गई. पिछले एक दशक में उनके कई भरोसेमंद सिपहसालार दूसरी पार्टियों में शामिल होते चले गए. पहले गैर-जाटव दलित यूपी में बीएसपी से खिसकर बीजेपी में शिफ्ट हो गया और 2022 में जाटव वोट में भी सेंधमारी हो गई.
बीएसपी अब यूपी और बाहर के राज्यों में हर जगह कमजोर दिखाई दे रही है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली समेत उत्तर भारत के राज्यों में पार्टी संगठन लचर हाल में है. ऐसे में मायावती के पास विरासत में देने के लिए सिर्फ इतिहास की थाती के अलावा कुछ ठोस नजर नहीं आता है. पार्टी अपने मूल दलित वोटरों को भी एकजुट करने में कामयाब नहीं हो पाई है. सत्ता से बाहर होने के बाद मायावती से दलितों का मोहभंग लगातार होता जा रहा है. ऐसे में आकाश आनंद को दलित वोटों के विश्वास को जीतने के साथ-साथ पार्टी के खिसकते जनधार को भी रोकने की चुनौतियों से जूझना होगा.
क्या पार्टी को संकट से निकाल पाएंगे आकाश?
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो 28 साल के आकाश आनंद के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को दोबारा से खड़े करने और दलित समुदाय के विश्वास को एक बार फिर से जीतने की है. उन्होंने सबसे पहले उत्तर प्रदेश के दलित समुदाय के युवाओं के बीच अपनी पहुंच बढ़ाना, जो लगातार पार्टी से छिटकता जा रहा है. कांशीराम ने बीएसपी का सियासी समीकरण जो बनाया था, वो गड़बड़ा चुका था और दलितों के बीच चंद्रशेखर आजाद नई लीडरशिप के रूप में खुद को खड़े कर रहे हैं. इस तरह से बीएसपी सियासी चक्रव्यूह में घिरी हुई है, जहां एक तरफ बीजेपी गैर-जाटव वोटों को अपने पाले में ले चुकी है तो जाटव वोट को चंद्रशेखर अपने साथ जोड़ने में लगे हैं. ऐसे में आकाश आनंद क्या खुद को मायावती के सियासी वारिस के रूप में स्थापित कर पाएंगे, जैसे मायावती ने खुद को कांशीराम के उत्तराधिकारी के तौर पर स्थापित किया था.
हाल ही हुए विधानसभा चुनावों में भी आकाश आनंद छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में पार्टी का चुनावी अभियान संभाल रहे थे, जहां पार्टी पिछले चुनाव की तुलना में काफी खराब प्रदर्शन की है. राजस्थान छोड़कर किसी भी राज्य में बीएसपी का खाता तक नहीं खुला और वोट फीसदी में भी गिरावट आई. बीएसपी को इस बार छत्तीसगढ़ में 2.09 फीसदी, राजस्थान में 1.82 फीसदी, मध्य प्रदेश में 3.4 फीसदी और तेलंगाना में 1.38 फीसदी वोट मिले हैं. दलित राजनीति का चेहरा माने जानी वाली मायवती की चमक अब पहले जैसी नहीं रही है. ऐसे में मायावती के नए उत्तराधिकारी आकाश आनंद को पार्टी के कोर वोटबैंक दलितों बीच फिर से भरोसा मजबूत करने की सबसे प्रमुख चुनौती है. ऐसे में आकाश आनंद क्या दलित राजनीति में कोई करिश्मा दिखा पाएंगे?