मायावती से दूर, यूपी ही नहीं देशभर में बसपा का हाथी हुआ कमजोर

मायावती से दूर, यूपी ही नहीं देशभर में बसपा का हाथी हुआ कमजोर

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभा चुनाव में नतीजे से बसपा प्रमुख मायावती अचंभित और शंकित हैं. उन्हें जनता का मूड समझ में नहीं आ रहा है, क्योंकि तीन राज्यों में बसपा का खाता नहीं खुला और राजस्थान में दो सीटों पर सिमट गई हैं. इतना ही नहीं, बसपा का वोट फीसदी भी चारों राज्यों में गिर गया है. इससे पहले हिमाचल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में बसपा को करारी मात खानी पड़ी है. यूपी से लेकर देश भर के राज्यों में बसपा का सियासी ग्राफ चुनाव दर चुनाव गिरता जा रहा है औरदलित समुदाय का मायावती से मोहभंग हो रहा है. ऐसे मेंबसपा के सियासी भविष्य पर संकट गहरा गया है.

बसपा संस्थापक कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित समुदाय के बीच ऐसी राजनीतिक चेतना जगाई कि यूपी में बसपा की 4 बार सरकार बनी और मायावती मुख्यमंत्री रहीं. यूपी से सटे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ में भी बसपा अपनी जड़ें जमाने में सफल रही थी. भले ही यूपी की तरह देश के दूसरे राज्यों में बसपा की सरकार न बनी हो, लेकिन विधायक और सांसद जीतते रहे हैं.

दलित समुदाय का वोट बैंक भी बसपा से छिटका

मध्य प्रदेश में तो एक समय बसपा का 15 फीसदी से ज्यादा वोट हो गया था और राजस्थान में भी तीसरी ताकत बनकर खड़ी हो गई थीं. 2007 में बसपा यूपी में अपने दम पर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही, लेकिन उसके बाद से दलित समुदाय ने बसपा से मुंह मोड़ा तो वो लगातार जारी है. बसपा दिन ब दिन और चुनाव दर चुनाव कमजोर होती जा रही है. दलित समुदाय का वोट बैंक भी बसपा से लगातार छिटकता जा रहा है और लगातार दूर हो रहा है. यह स्थिति बसपा की सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि देश भर के राज्यों में हुई है.

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में मायावती अकेले मैदान में उतरी थीं, उन्हें करारी मात खानी पड़ी है. राजस्थान छोड़कर बसपा का किसी भी राज्य में खाता तक नहीं खुला और वोट फीसदी में भी गिरावट आई. बसपा को इस बार के चुनाव में छत्तीसगढ़ में 2.09 फीसदी, राजस्थान में 1.82 फीसदी, मध्य प्रदेश में 3.4 फीसदी और तेलंगाना में 1.38 फीसदी वोट मिले हैं. वहीं, 2018 में एमपी में बसपा के 4.03 फीसदी वोट के साथ दो विधायक जीते थे. छत्तीसगढ़ में दो विधायकों के साथ 3.09 फीसदी वोट मिले थे. राजस्थान में छह विधायक और 4.03 फीसदी वोट मिले थे. इस लिहाज से हर राज्य में बसपा के विधायक की संख्या भी गिरी है और वोट बैंक में गिरावट आई है.

क्यों हुई बसपा इतनी कमजोर?

दरअसल, कांशीराम के निधन के बाद से दलित और पिछड़ी जातियों का बसपा से लगातार मोहभंग होता चला गया. कांशीराम ने डीएस-फोर के दौर से ही तमाम दलित एवं अति पिछड़ी जातियों को गोलबंद करके बसपा का गठन किया था. उन्होंने हाशिए पर जातियों में लीडरशिप पैदा कर उन्हें सियासत में लाए. मायावती के हाथों में बसपा की कमान आने के बाद पार्टी ने 2007 में अपने उरूज को छुआ, लेकिन जातीय क्षत्रपों के धीरे-धीरे बसपा से निकलने और निकाले जाने के बाद पार्टी कमजोर होती चली गई.

बसपा के छिटपुट विधायक कई राज्यों में जीत हासिल करते रहे हैं, लेकिन बसपा कभी किसी सरकार में शामिल नहीं हुई. 2018 के चुनाव में बसपा को राजस्थान में छह, मध्य प्रदेश में दो, छत्तीसगढ़ में दो तथा मिजोरम में एक सीट पर जीत मिली थी. तेलंगाना में 2018 में खाता नहीं खुला था, लेकिन बसपा 2013 के विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीती थी. इस बार इन सभी राज्यों में उसे करारी मात खानी पड़ी है. बसपा का दलित वोट बैंक मायावती से छिटककर बीजेपी के साथ चला गया है.

बसपा के राजनीतिक भविष्य को लेकर संकट

यूपी में बसपा के कमजोर होने के चलते दलित समुदाय बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है. दिल्ली में एक समय बसपा तीसरी ताकत के तौर पर उभरी थी, लेकिन अब पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है. दलित समुदाय दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ चला गया है. उत्तराखंड में एक समय बसपा तीसरी पार्टी के तौर पर थी, उसके सांसद और विधायक थे, लेकिन अब पूरी तरह से साफ हो गई. पंजाब में बड़े अरसे के बाद एक विधायक बना है, जबकि हरियाणा में शून्य पर है. कर्नाटक में बसपा का 2018 में एक विधायक था, लेकिन 2023 के चुनाव में वो भी हार गया. इस तरह से बसपा का वोट भी लगातार गिरता जा रहा है. बिहार में बसपा के टिकट पर जीते इकलौते विधायक ने जेडीयू का दामन थाम रखा है.

पांच राज्यों में मिली हार के बाद मायावती 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर 10 दिसंबर को बड़ी बैठक बुलाई है. मायावती 2024 के चुनाव को लेकर मंथन करेंगी, लेकिन अकेले चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान कर रखा है. मायावती अगर एकला चलो की राह पर कदम बढ़ाती हैं तो फिर बसपा का सियासी हश्र और भी खराब हो सकता है. 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, तो जीरो से दस सांसद यूपी में हो गए थे, लेकिन 2022 में एक सीट पर सिमट गई है. यूपी में बसपा का वोट 13 फीसदी पर आ गया है. इस तरह से बसपा के राजनीतिक भविष्य को लेकर संकट गहरा गया है.

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