अखिलेश यादव के प्रकरण ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है की मध्य प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी कांग्रेस आलाकमान पर भारी पड़ती हुई नजर आ रही है। आगे बढ़ने से पहले आपको याद दिलाते हैं कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की इसी जोड़ी के कारण राहुल गांधी के सबसे करीबी बल्कि बिना किसी अपॉइंटमेंट के राहुल गांधी से सीधे मिलने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी कांग्रेस छोड़कर अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा में जाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उस समय भी यही कहा गया था कि दिल्ली में राहुल गांधी जो कहते हैं या जो वादा करते हैं मध्य प्रदेश में उस समय के मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके जोड़ीदार दिग्विजय सिंह उसे अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर अंजाम देते हैं।
अखिलेश यादव प्रकरण में भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी भी कीमत पर नरेंद्र मोदी को हराकर प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए बेचैन कांग्रेस ने या यूं कहें कि कांग्रेस आलाकमान ने अपने तमाम मतभेदों को किनारे रखकर कई विपक्षी दलों के साथ बैठना स्वीकार किया। हालांकि कांग्रेस ने भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता की शुरुआत इंडिया गठबंधन बनने से काफी पहले महाराष्ट्र में उस समय ही शुरू कर दी थी जब गांधी परिवार ने शरद पवार के कहने पर उस शिवसेना के सुप्रीमो उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया था जो शिवसेना कांग्रेस से ज्यादा सीधे कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार पर हमला बोला करती थी। बाद में जब कांग्रेस के कहने पर नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों को एकजुट करना शुरू किया तो अपने राज्य के नेताओं की मांगों, यहां तक कि लोकसभा में अपने नेता अधीर रंजन चौधरी की मांग को नजरअंदाज कर कांग्रेस आलाकमान ने बड़ा दिल दिखाते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बैठना भी मंजूर कर लिया जिन पर पश्चिम बंगाल के कांग्रेस के अपने नेता यह आरोप लगाते रहते हैं कि उनकी सरकार बंगाल में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या तक करवा रही है। गांधी परिवार ने आम आदमी पार्टी के उन मुखिया अरविंद केजरीवाल तक के साथ बैठना स्वीकार कर लिया जो केजरीवाल साहब अन्ना आंदोलन के समय गांधी परिवार को पानी पी-पीकर कोसा करते थे और जिनकी पार्टी ने पंजाब में न केवल कांग्रेस का सुपड़ा साफ कर उसे सत्ता से बाहर कर दिया, दिल्ली में कांग्रेस के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया बल्कि गुजरात में चुनाव लड़कर कांग्रेस को सबसे बड़ी हार के कगार पर पहुंचा दिया। केजरीवाल अब यहीं तक नहीं रुक रहे हैं बल्कि आने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में भी पूरे दम-खम के साथ चुनाव लड़ रहे हैं।
विपक्षी गठबंधन में शामिल कई ऐसे दल हैं जिनके साथ कांग्रेस के रिश्ते कभी खट्टे कभी मीठे रहे हैं लेकिन भाजपा को हराने के नाम पर कांग्रेस ने इन सब दलों के साथ बैठना और सीटों को लेकर समझौता तक करना स्वीकार कर लिया है। लेकिन कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की जोड़ी ने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव को नाराज कर विपक्षी गठबंधन के भविष्य पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। अखिलेश यादव दावा कर रहे हैं कि मध्य प्रदेश प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा को 6 सीटें देने का वादा किया था लेकिन बाद में मुकर गई। इस बारे में जब कमलनाथ से सवाल पूछा गया तो वह बहुत ही हल्के अंदाज में यह कहते नजर आए की अरे भई, छोड़ो अखिलेश-वखिलेश। अब आप खुद सोचिए की एक ऐसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो जिनकी पार्टी सबसे ज्यादा ताकतवर उत्तर प्रदेश में है जहां से लोकसभा में 80 सांसद चुनकर आते हैं और जिनके साथ कांग्रेस एक बार गठबंधन करके चुनाव लड़ चुकी है। उस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के बारे में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करने का मतलब सीधा एक ही होता है कि आप अपने ही पार्टी के राष्ट्रीय आलाकमान की मेहनत पर पानी फेरते हुए नजर आ रहे हैं क्योंकि यहां इस बात को ध्यान रखना जरूरी है कि शुरुआत में अखिलेश यादव इस गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहते थे लेकिन कांग्रेस के कहने पर नीतीश कुमार ने बार-बार अखिलेश यादव से संपर्क साधा और बहुत मुश्किल से अखिलेश यादव इस गठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार हुए थे और ऐसे में मध्य प्रदेश में 6 या हो सकता है तीन या चार सीट देकर ही सपा को मनाया जा सकता था लेकिन जिस तरह का व्यवहार किया गया और उसके बाद जिस तरह की टिप्पणी की गई उसने दोनों दलों के बीच एक खटास पैदा कर दी है और अब सपा ने मध्य प्रदेश में 22 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उम्मीदवार खड़े करके अपना तेवर दिखा दिया है और इसके साथ-साथ अखिलेश यादव ने यह भी कह दिया है कि कांग्रेस जिस तरह का व्यवहार सपा के साथ मध्य प्रदेश में कर रही है उसी तरह का व्यवहार सपा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ करेगी और जब लोकसभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश में सीटों के बंटवारे की बात होगी उस समय समाजवादी पार्टी सोचेगी कि उसे क्या करना है मतलब अखिलेश ने सीधे-सीधे कांग्रेस को धमकी दे दी है।
दिग्विजय सिंह कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं और उत्तर प्रदेश के प्रभारी भी रह चुके हैं। दिग्विजय सिंह को इस बात का बखूबी अहसास है की लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के 80 लोकसभा सीटों की क्या भूमिका होती है और चुनाव हारने के बावजूद उत्तर प्रदेश में सपा का अपना एक वजूद है और सपा को नकार कर, उत्तर प्रदेश में मोदी सरकार के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठबंधन खड़ा नहीं किया जा सकता है लेकिन आलाकमान की तमाम मेहनत पर उन्होंने कमलनाथ के साथ मिलकर एक तरह से पानी फेर दिया है और अब अगर अखिलेश इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर अगले साल लोकसभा का चुनाव लड़ते भी है तो कई सवाल उनसे भी पूछे जाएंगे क्योंकि जैसा अखिलेश खुद कह चुके हैं कि भाजपा एक ऑर्गेनाइज्ड पार्टी है तो भाजपा ने यूपी कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय राय, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कमलनाथ और अखिलेश यादव के आपसी तकरार वाले बयानों को सोशल मीडिया पर घुमाना और फैलाना शुरू कर दिया है।