Mandal 3.0: OBC आरक्षण 4 हिस्सों में बंटेगा, कौन-सी रिपोर्ट के जरिए मोदी सरकार पलट देगी 2024 चुनाव का पूरा गेम

Mandal 3.0: OBC आरक्षण 4 हिस्सों में बंटेगा, कौन-सी रिपोर्ट के जरिए मोदी सरकार पलट देगी 2024 चुनाव का पूरा गेम

राम मनोहर लोहिया नारा दिया करते थे कि संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ यानी राजनीति में हिस्सेदारी हो। संसाधनों पर अधिकार की बात हो और पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 60 प्रतिशक की होनी चाहिए। लेकिन बिहार के लेनिन कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद नारा दिया करते थे  सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है, धन-धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। यानी नब्बे फीसदी में वो दलितों पिछड़ों आदिवासियों को भी जोड़ते थे। जगदेव प्रसाद एक और बात भी कहते थे कि हिन्दुस्तानी समाज दो ही भागों में बंटा हुआ है। 10 फीसदी शोषक और नब्बे फीसदी शोषित। इसके आगे बढ़े तो बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी के संस्थापक कांशीराम का नारा जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी था। ये सभी बातें जातिगत प्रतिनिधित्व को लेकर कही जाती रही हैं। इन सारे नारों का निचोड़ ये था कि जिस जाति की जितनी आबादी है उसका उतना हक होना चाहिए। इसी जातिगत प्रतिनिधित्व का हवाला देते हुए जातिगत जनगणना की मांग पिछले कुछ वक्त से जोर पकड़ रही थी। पिछले वक्त से कई राजनीतिक दलों ने जातिगत जनगणना कराने की मांग लगातार उठाई है। विपक्ष के साथ ही एनडीए के कई सदस्य दल भी राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मांग करते रहे हैं। जाति आधारित राजनीति के उद्भव में तीन अलग-अलग फेज देखने को मिले हैं। पहले चरण में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी कुछ राजनीतिक संरचनाओं का उदय हुआ। दूसरे चरण में भारतीय जनता पार्टी ने इस समीकरण में शानदार पैठ बनाई और कई जातियों, विशेष रूप से अन्य पिछड़े वर्गों के गैर-प्रमुख समूहों को हिंदुत्व के दायरे में लाने में सफल होकर पारंपरिक जाति गठजोड़ को बदल दिया। यकीनन, नीतीश कुमार ने अपने जाति सर्वेक्षण से मंडल 3.0 की आहट का अहसास कराया है। भाजपा से इसे काउंटर करने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। 

फिर उठी जातिगत जनगणना की मांग

बिहार सरकार की जातीय जनगणना के आंकड़े जारी किए जाने के बाद देश भर में सियायत परवान चढ़ रही है। देश की सियासत का रुख तय करने वाला अहम प्रदेश उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। यहां विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष में शामिल सहयोगी दल भी जातीय जनगणना की मांग को फिर से उठाने लगे हैं। इसके अलावा रोहिणी आयोग की रिपोर्ट भी लागू किए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। एनडीए की सहयोही अपना दल (एस) और सुभासपा जातीय जनगणना के साथ ही रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रही है। 

क्या है रोहिणी आयोग की रिपोर्ट

रोहिणी आयोग का गठन अक्टूबर 2017 में संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत किया गया था। आयोग अन्य पिछड़ा वर्ग के उप वर्गीकरण की जांच करने को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी की अध्यक्षता में बना था। सामाजिक वित्त और आधिकारिता मंत्रालय के अनुसार भारत के संविधान के अनुच्छेद 340 के अनुसार इस संविधान आयोग की स्थापना की गई। ओबीसी में आने वाली जातियों के बीच आरक्षण के लाभों के असमान वितरण की सीमा की जांच करना इस आयोग की सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। 

ओबीसी आरक्षण पर क्या कहती है रिपोर्ट

सूत्र से मिली जानकारी के अनुसार रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण को तीन से चार श्रेणियां में बांटने की सिफारिश की गई है। इसमें पहली प्राथमिकता में ऐसी उन सभी जातियों को रखने की सिफारिश की गई है, जिन्हें अब तक इसका एक बार भी लाभ नहीं मिला है। ओबीसी की जातियों में इनकी संख्या करीब डेढ़ हजार है।

ओबीसी आरक्षण को दो फार्मूले पर बांटने का प्लान

पहले फार्मूले में ओबीसी आरक्षण को तीन श्रेणियां में बांटने की सिफारिश है। पहली श्रेणी में ओबीसी की एसी डेढ़ हजार जातियों को शामिल करने का प्रस्ताव है, जिन्हें अब तक आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है। इन्हें 10 फीसदी आरक्षण देने की बात कही गई है। दूसरे श्रेणी में ऐसी जातियों को रखा गया है जिन्हें एक या दो बार इसका लाभ मिला है इनकी संख्या करीब एक हजार बताई गई है। इन्हें भी बंटवारे में 10 फीसदी आरक्षण प्रस्तावित किया गया है, जबकि बाकी के बचे 7 फीसद में उन जातियों को रखा गया है जिन्होंने अब तक ओबीसी आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ लिया हो। इन जातियों की संख्या करीब डेढ़ सौ के आसपास है। सूत्रों के मुताबिक आयोग ने अपने दूसरे फार्मूले में ओबीसी आरक्षण को चार श्रेणियां में बांटने का सुझाव दिया है जो पहले वाले फार्मूले जैसा है लेकिन लाभ से वंचित जातियां तक इस पहुंचने के लिए दायरे को और छोटा किया गया है।

बीजेपी ओबीसी की नंबर वन पसंद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को आज ओबीसी का सबसे ज्यादा समर्थन मिल रहा है। यह 1971 में (भारतीय जनसंघ के दिनों के दौरान) सात प्रतिशत से तेजी से बढ़कर 2009 में 22 प्रतिशत और 2019 में दोगुना होकर 44 प्रतिशत हो गया है। सीएसडीएस के अनुसार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 2019 में 54 प्रतिशत ओबीसी समर्थन प्राप्त हुआ। मोदी का इसी समुदाय से आना, केंद्र में और टिकट आवंटन के दौरान ओबीसी को अधिक प्रतिनिधित्व देने का भाजपा का दावा और संवैधानिक ढांचे के माध्यम से उनके मुद्दों को संबोधित करने के लिए ओबीसी आयोग के गठन से पार्टी को ओबीसी के बीच समर्थन हासिल करने में मदद मिली है। भाजपा ने अपने प्रयासों को गैर-प्रमुख ओबीसी और निम्न/अति/अति पिछड़े ओबीसी पर भी केंद्रित किया है, जिन पर अन्य दलों द्वारा उचित ध्यान नहीं दिया गया है। इस रणनीति ने 2019 के आम चुनावों में मध्य वर्ग को छोड़कर ओबीसी के सभी सामाजिक-आर्थिक वर्गों में भाजपा को उत्तर प्रदेश में महागठबंधन के खिलाफ नेतृत्व करने में मदद की।

जाति जनगणना के इफेक्ट

बिहार में जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद इतना तो तय है कि अब इसके कई साइड इफेक्ट देखने को मिलेंगे। इसका पहला असर कर्नाटक में देखने को मिल सकता है। वहां अब कांग्रेस सरकार पर इसके लिए दबाव पड़ना स्वाभाविक है। कांग्रेस सरकार ने वहां जाति जनगणना 2015 में कराई थी, जिसकी रिपोर्ट 2018 में जमा की गई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। पार्टी के अंदर अब इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने पर दो तरह की राय है। राहुल गांधी के नजदीकी नेता इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के पक्ष में हैं। खुद CM सिद्धारमैया भी इसके पक्ष में हैं। लेकिन दूसरा पक्ष अभी लोकसभा चुनाव तक इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं।

रिपोर्ट की टाइमिंग

रिपोर्ट 2018 में आनी थी लेकिन इसके बाद इसे 13 एक्सटेंशन दिए गए 3 महीने में आने वाली रिपोर्ट करीब 6 साल बाद सबमिट की गई है बीजेपी अगर चाहती तो इसे और एक्सटेंशन मिल सकता था सरकार ने रिपोर्ट अपने पास रख ली थी जिसे की रखने की जरूरत नहीं थी इसके पीछे की क्या वजह हो सकती है? बिहार में कास्ट सेंसेक्स के आंकड़े जारी किए कर्नाटक में तो कांग्रेस ने पहले से ही इस तरह के आंकड़ों को जारी करने के बाद चुनाव से पहले कर रखी है ऐसे में 2024 चुनाव से पहले अगर गैर भाजपा शासित राज्यों की तरफ से बड़ा मुद्दा बनता है तो बीजेपी के काउंटर के रूप में इस रिपोर्ट को रखा गया है।

जातीय सर्वे ही है हल?

भारत की सामाजिक-आर्थिक समस्याएं काफी जटिल हैं। जातीय जनगणना या सर्वे से इनका हल नहीं निकलेगा। देश में ओबीसी  की विशाल आबादी यह महसूस करती है कि उससे भेदभाव हुआ है। उसे लगता है कि उसकी बात नहीं सुनी जा रही है। उसका यकीन इस बात पर है कि आरक्षण से ही उसका हाल सुधरेगा। सवाल यह है कि जो समाधान अब तक पेश किए गए हैं, वे क्या समस्या से भी बदतर हैं? शायद ऐसा ही है। अगर हम इसे नजरंदाज कर दें, तो क्या समस्या दूर हो जाएगी ?

ओबीसी वोटरों का बीजेपी के प्रति झुकाव

 साल बीजेपी कांग्रेस अन्य

 1996 19% 25% 56%

 1999 23% 24% 53%

 2004 23% 24% 53%

 2009 22% 24% 54%

 2014 34% 15% 51%

 2019 44% 15% 41%

नए एक्सपेरिमेंट करने की फिराक में बीजेपी? 

बीजेपी की स्ट्रैटेजी पर नजर डालें तो 2017 में ही उन्होंने एक्सपेरिमेंट को शुरू किया। उन्हें डोमिनेंट कास्ट जैसे यूपी में यादव, राजस्थान में जाट से इतर आरक्षण को विभाजित कर छोटे-छोटे ओबीसी में देने का प्लान बनाया जिससे यह डोमिनेंट कास्ट साइड लाइन हो जाए ऐसा ही एक्सपेरिमेंट विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री के रूप में भी किया जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड में नॉन ट्राइबल रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया गया जिससे बाकी सारे नॉन ट्राइबल इकट्ठा हो जाएंगे और संख्या बल में ज्यादा हो जाएंगे महाराष्ट्र में उन्होंने मराठा से अलग ब्राह्मण के रूप में प्रयोग किया लेकिन अब बीजेपी इसमें भी बदलाव कर रही है झारखंड में बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो वही महाराष्ट्र में मराठा फेस को आगे लेकर चला जा रहा है अब बीजेपी को लग रहा है कि 2 मिनट कास्ट हमारी तरफ आ रहे हैं जैसे यादव ऑन का कुछ प्रतिशत मोदी के नाम पर वोट देने लगा है बीजेपी को लगता है कि शायद डोमिनेंट बनाम नॉन ओबीसी फैक्टर काम ना करें इसे आप सोशल इंजीनियरिंग के रूप में देख सकते हैं 2014 में सत्ता में आने के वक्त बीजेपी में बहुत सारी आकांक्षय थी भ्रष्टाचार गवर्नेंस के बीच मोदी एक महत्वपूर्ण फैक्टर के रूप में आए उनका सबका साथ सबका विश्वास सबका प्रयास जैसी बातें हुई बीजेपी पसमांदा समुदाय की मदद लेने की बात कर रही है लेकिन एक तरफ यह भी देखा जा रहा है कि हिंदुत्व की बात कर रहे हैं ऐसे में दोनों राह पर एक साथ चलना कठिन हो सकता है।

बीजेपी को पड़ने वाले वोट

 ओबीसी 48.9%

 सवर्ण 24.7%

 मुस्लिम 2.8%

 एससी 14.1%

 एसटी 9.5%

अतीत में ऐसे प्रयासों का उलटा असर हुआ 

जून 2001 में राजनाथ सिंह यूपी सरकार द्वारा गठित सामाजिक न्याय समिति ने सिफारिश की कि 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा में यादवों का हिस्सा पांच प्रतिशत रखा जाए, नौ प्रतिशत आठ जातियों को दिया जाए और बाकी 70 अन्य जातियों को दिया जाए। योजना को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया और 2002 के विधानसभा चुनावों में भाजपा 403 में से 88 सीटों पर सिमट गई, जो 1996 में उसकी लगभग आधी थी। रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का कार्यान्वयन जोखिमों से भरा है। जाति के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण के किसी भी प्रयास का मतलब भाजपा के आजमाए हुए हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे से दूर जाना हो सकता है। वर्तमान में हालांकि पार्टी द्वारा ओबीसी को दो ब्लॉकों प्रमुख और गैर-प्रमुख के रूप में देखा जाता है। बीजेपी का इरादा बिहार और यूपी में यादव, कुर्मी और कुशवाह जैसी प्रमुख जातियों और कर्नाटक में वोक्कालिगा को लुभाने का है। इन जाति समूहों के युवाओं के बीच भी इसे कुछ हद तक बढ़ावा मिल रहा है। कोई भी उपवर्गीकरण इन उपजातियों के लिए दरवाजे बंद कर देगा और अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को उनके समुदायों में मजबूत बना देगा।

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