देश में जातिगत आधार पर जनगणना की बढ़ती मांग के बीच सवाल उठ रहा है कि देश को आखिरकार जातिवाद की आग में झोंकने की तैयारी क्यों हो रही है? आजादी के अमृत काल में जिस तरह जाति के आधार पर हिंदू समाज को बांटने की साजिश चल रही है उससे यह भी प्रदर्शित होता है कि हम भले गुलामी काल की हर निशानी मिटा रहे हों लेकिन अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति का अनुसरण आज भी कई राजनीतिक दल अपने सत्ता स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। जिन्होंने देश पर दशकों तक राज किया और गरीबों के लिए कुछ नहीं किया वह आज पिछड़ों की आवाज बनने का दावा कर रहे हैं। सवाल यह है कि भारतीयों की पहचान अगड़े या पिछड़े के रूप में होनी चाहिए या देश की प्रगति में सहायक की होनी चाहिए।
जो लोग देश में जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं उनसे यह सवाल भी है कि क्या उन्होंने इस बात की पड़ताल की है कि जातीय जनगणना संवैधानिक है? देखा जाये तो स्वतंत्रता प्राप्त होने के पश्चात डॉक्टर बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता में जब भारतीय गणतंत्र का नया संविधान निर्मित हुआ तो संविधान निर्माताओं ने यह दृढ़ संकल्प लिया था कि शताब्दियों से जातीय आधार पर बंटे, शोषित, उत्पीड़ित, संघर्षरत और परस्पर वैमनस्य से भरी हुई मानसिकता वाले भारतीय समाज को इस जातीय भेदभाव से मुक्त किया जाए और इसी उद्देश्य से भारत के संविधान में अनुच्छेद 15 (1) जोड़ा गया जो लैंगिक, धार्मिक या जातीय आधार पर नागरिकों से किसी भी भेदभाव (Discrimination) को प्रतिबंधित करता है।
यहां यह भी समझने की जरूरत है कि आरक्षण का प्रावधान समाज को पुनः विभाजित करना नहीं था बल्कि एक सीमित समय में सदियों से शोषण के कारण मुख्य धारा से पिछड़े हुए वर्ग को उच्च वर्ग के समकक्ष लाना था। यह भी याद रखे जाने की जरूरत है कि संविधान में जातीय आधार पर जनगणना का कोई प्रावधान ही नहीं है। बिहार की सरकार भले ही जातीय जनगणना करवा कर आत्मविभोर हो रही हो लेकिन उसका यह कदम असंवैधानिक है।
जनता को यह भी समझना चाहिए कि आखिर क्यों राजनैतिक लाभ लेने के लिए लगभग सभी दल जातीय जनगणना के समर्थन में उठ खड़े हुए हैं और पूरे देश में जातीय जनगणना के लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। दरअसल ऐसा वह इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनके पास देश के विकास के लिए कोई योजनाएं नहीं है बल्कि उनका उद्देश्य इस जनगणना से जातीय आधार पर आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बहुसंख्यक जातीय प्रत्याशी उतार कर सत्ता हासिल करना है।
इस मुद्दे पर भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि आज समय की आवश्यकता है कि देश में जातीय आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक और रोजगार के आधार पर जनगणना हो ताकि वास्तविक रूप से आर्थिक रूप से पिछड़े हुए और रोजगार विहीन नागरिकों का उत्थान किया जा सके और भारतीय समाज को पुनः जातीय आधार पर विघटित होने से रोका जाए। उन्होंने कहा है कि बुद्धिजीवी वर्ग से यही अपेक्षा है कि इस असंवैधानिक और भारतीय समाज को पुनः विघटित करने वाली जातीय जनगणना के विरुद्ध आवाज उठाएं।
उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिमों में 139 जातियां हैं लेकिन उनकी जाति के आधार पर गणना क्यों नहीं हो रही, उन्होंने कहा कि ऐसे ही ईसाई धर्म में भी कई सारे फिरके हैं उनकी उस आधार पर गणना क्यों नहीं हो रही। अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि दरअसल कुछ लोग सनातन धर्म को खत्म करना चाहते हैं, हिंदुओं को बांटना चाहते हैं इसलिए देश में जाति के आधार पर जनगणना की मांग कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जनगणना करानी चाहिए तो घूसखोरों, जमाखोरों, बेरोजगारों, गरीबों, मिलावटखोरों, मुनाफाखोरों, दलालों, काला धन रखने वालों, बेनामी संपत्ति रखने वालों, आय से अधिक संपत्ति रखने वालों, माओवादियों, नक्सलियों और सड़क के किनारे अवैध मजारों की कराई जानी चाहिए।