New Delhi: जातियों की जनगणना के सहारे लोकतंत्र और जनमत के मूल सिद्धांतों को किनारे करने का प्रयास

New Delhi: जातियों की जनगणना के सहारे लोकतंत्र और जनमत के मूल सिद्धांतों को किनारे करने का प्रयास

राजनीतिक विज्ञान में लोकमत और बहुमत के बीच स्पष्ट अंतर बताया गया है और इसमें लोकमत को बहुमत से कहीं ज्यादा ऊपर रखा गया है। बहुमत कई बार आंकड़ों और ज्यादा आबादी के नाम पर खेल कर सकता है, दूसरों को दबा सकता है। बहुमत या ज्यादा संख्या का मतलब यह कतई नहीं होता कि उसके द्वारा किया गया हर कार्य जनता यानि लोगों के हित में, लोकमत है। क्योंकि बहुमत हमेशा सही होता है तो हमें इस आधार पर 1975 में देश में लगाए गए आपातकाल को भी सही ठहराना होगा क्योंकि जो इंदिरा सरकार इसे लेकर आई थी, उसके पास जनता द्वारा दिया गया बहुमत तो था ही। इसी तर्क पर हमें विभिन्न राज्यों और केंद्र की विभिन्न सरकारों के कार्यकाल में हुए घोटालों को भी सही ठहराना पड़ेगा क्योंकि वे सारे फैसले किसी न किसी करीबी को फायदा पहुंचाने के लिए बहुमत वाली सरकारों ने ही तो लिए थे।

इसलिए बहुमत हमेशा लोकमत हो यह जरूरी नहीं है। लोकमत का अर्थ बहुमत या फिर सर्वसम्मति कतई नहीं होता बल्कि लोकमत का तात्पर्य बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण समाज का हित होता है। लेकिन दुर्भाग्य से भारत की चुनावी राजनीति में जो बुराइयां आ गई है उसमें से सबसे भयावह बुराई बहुमत का अहंकार है और अब इसी बुराई को जाति के नाम पर देश के लोगों के दिलों-दिमाग में भी बैठाने का प्रयास किया जा रहा है।

बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने इसकी शुरुआत कर दी है और देश का कोई भी राजनीतिक दल खुल कर इसका विरोध करने का हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। एक तरफ देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस है जिसके नेता राहुल गांधी पूरे देश में जातीय जनगणना करवाने की मांग करते हुए कह रहे हैं कि जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतना हक मिलना चाहिए। तो दूसरी तरफ बिहार में 1990 के बाद पिछले 33 सालों से बारी-बारी से राज करने वाले नीतीश कुमार और लालू यादव हैं जो मुसलमानों और पिछड़ों का कल्याण करने के बाद अब अति पिछड़ों के कल्याण की बात कर रहे हैं।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने बहुसंख्यकवाद के खतरे को समझा और अपनी पार्टी की राय से अलग जाकर सोशल मीडिया पर खुलकर देश को इस खतरे से आगाह करते हुए लिखा कि, अवसर की समानता कभी भी परिणामों की समानता के समान नहीं होती है। जितनी आबादी उतना हक का समर्थन करने वाले लोगों को पहले इसके परिणामों को पूरी तरह से समझना होगा। इसकी परिणति बहुसंख्यकवाद में होगी।

लेकिन आनन-फानन में कांग्रेस ने न केवल अपने वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी के बयान को उनका निजी विचार बताकर किनारा कर लिया बल्कि हालात ऐसे बना दिए गए कि सिंघवी को अपने पोस्ट को डिलीट तक करना पड़ गया। वास्तव में वह अपनी ही पार्टी में अल्पसंख्यक बन गए और पार्टी के फैसले यानि अप्रत्यक्ष तौर पर पार्टी के बहुमत के कारण उन्हें अपने विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक से वंचित होना पड़ा।

हालांकि सवाल इससे कहीं ज्यादा गहरे भी हैं। लंबे समय तक आरक्षण की वकालत करने वाले राजनीतिक दलों के नेता जान-बुझकर बाबा साहेब अंबेडकर के उस भाषण का जिक्र नहीं करते हैं जो उन्होंने आरक्षण की समयावधि को लेकर दिया था। बाबा साहेब की बात मानने की बजाय राजनीतिक फायदे के लिए ये दल आरक्षण का समयकाल और दायरा दोनों ही बढ़ाते जा रहे हैं।

वास्तव में बिहार सरकार द्वारा कराए गए जातीय सर्वे के आंकड़े नीतीश कुमार और लालू यादव, दोनों के लिए शर्मिंदगी का विषय होना चाहिए था कि 33 साल तक बिहार पर राज करने के बावजूद बिहार की यह हालत क्यों हैं कि- उन्हें पिछड़ा और अति पिछड़ा का राग अलापना पड़ रहा है ? आखिर क्यों बिहार से कुछ खास जातियों को बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ा है ? अगर कुछ शिक्षित लोगों या जाति विशेष से जुड़े लोगों ने बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के खतरे को समझ कर ज्यादा बच्चे पैदा नहीं किए तो उन्हें अपनी कम होती जनसंख्या का खामियाजा भुगतना पड़ेगा ? सामाजिक न्याय का मतलब वंचितों के जीवन स्तर को बढ़ा कर उन्हें समाज के अग्रिम पंक्ति में पहुंचाना होता है या फिर उन्हें वंचित का वंचित बनाकर सिर्फ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करना होता है ? अगर पिछड़े वर्ग को मिल रहे आरक्षण का लाभ उसी वर्ग से आने वाले अत्यंत पिछड़े वर्ग को अभी तक नहीं मिल पाया है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि अगर जनसंख्या के आधार पर ही सब कुछ तय होना है और संसाधनों का बंटवारा होना है तो फिर योग्यता का क्या होगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप अपने ही योग्य लोगों को एक बार फिर से प्रवास करने पर मजबूर करने जा रहे हैं ? पहले बिहार छोड़कर जाना पड़ा और अब देश छोड़कर जाने जैसे हालात पैदा कर रहे हैं ?

क्या यह बेहतर नहीं होता कि लालू-नीतीश जातीय सर्वे के आंकड़ें जारी करने से पहले आंकड़ों के जरिए देश को यह बताते कि 33 सालों के राज में बिहार के कितने गरीबों का भला हुआ है, राज्य में कितने उद्योग-धंधे लगे हैं, कितने नए स्कूल-कॉलेज खुले हैं, लोगों की प्रति व्यक्ति आय कितनी बढ़ी है और आज मानव विकास के सभी सूचकांकों और पैमाने पर बिहार कहां खड़ा है ? लेकिन यह सवाल पूछेगा कौन क्योंकि बहुमत और लोकमत की लड़ाई में फिर से बहुमत हावी होता नजर आ रहा है और कोई भी राजनीतिक दल रिस्क लेने को तैयार नहीं है। लेकिन इन्हें याद रखना चाहिए कि इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता है।

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