लोकसभा चुनाव की सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. कांग्रेस अपने दलित चेहरे मल्लिकार्जुन खरगे को यूपी की सियासत में लॉन्च करने की योजना बना रही है. ऐसे में खरगे के लिए इटावा और बाराबंकी सीट चिन्हित की गई है. इटावा सीट कांग्रेस की बुनियाद से जुड़ी हुई है तो दलित राजनीति की प्रयोगशाला भी रही है. ऐसे में कांग्रेस खरगे के बहाने एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को उत्तर प्रदेश से 2024 का लोकसभा चुनाव लड़वाने पर विचार-विमर्श किया जा रहा है. दलित मतदाताओं को साधने के लिए कांग्रेस खरगे को कर्नाटक के गुलबर्गा के साथ-साथ यूपी की इटावा या बाराबंकी सीट से उतार सकती है. इटावा को आज भले ही समाजवादी पार्टी का मजबूत गढ़ माना जाता हो, लेकिन कांग्रेस का इटावा से गहरा नाता जुड़ा हुआ है. कांग्रेस का इटावा से यह रिश्ता आज से नहीं बल्कि कांग्रेस की बुनियाद (स्थापना) के समय से ही है. इतना ही नहीं दलित राजनीति की प्रयोगशाला भी इटावा रही है.
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम इटावा से ही जीतकर पहली बार संसद पहुंचे थे. यही वजह है कि मल्लिकार्जुन खरगे को इटावा सीट से चुनाव लड़ाने की दिशा में मंथन किया जा रहा है ताकि एक साथ कई सियासी समीकरणों को साधा जा सके. खरगे को इटावा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ाने की स्ट्रैटजी अचानक नहीं बनी बल्कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद प्लानिंग हुई है.
2 महीने पहले ही आ गया था प्लान
दो महीने पहले इटावा के कांग्रेस जिलाध्यक्ष मलखान सिंह यादव ने जिला कांग्रेस कमेटी की तरफ से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें यह कहा गया था कि कांग्रेस की स्थापना के समय से ही इटावा का जुड़ाव कांग्रेस के साथ रहा है और लंबे अरसे तक यहां पर पार्टी का अच्छा भला सियासी आधार भी रहा है.
ऐसे में कांग्रेस पार्टी को अपने किसी बड़े नेता को इटावा सीट से चुनावी मैदान में उतारना चाहिए ताकि दोबारा से पार्टी मजबूत हो सके. यहीं से मल्लिकार्जुन खरगे को यूपी की इटावा सीट से चुनाव लड़ाने को लेकर चर्चा तेज हुई और अब कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन INDIA दोनों ही इस दिशा में सोच-विचार करने लगे हैं.
कांग्रेस की बुनियाद में इटावा
कांग्रेस पार्टी का इटावा के साथ स्थापना के साथ ही नाता जुड़ा हुआ है. कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर 1885 को हुई थी. कांग्रेस की स्थापना में ब्रिटिश अफसर रहे एओ ह्यूम की अहम भूमिका रही है. इंग्लैंड में जन्मे ह्यूम कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. ब्रिटिश राज में ह्यूम को सिविल सर्विस के तहत भारत के इटावा में पोस्टिंग मिली थी. वह इटावा में प्रशासक के पद पर लंबे समय तक रहे. 1857 की क्रांति के दौरान इटावा सबसे ज्यादा प्रभावित जिला हुआ करता था. ह्यूम को जान बचाने के लिए कई दिनों तक छुपकर रहना भी पड़ा था. इसके बाद भी उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में बहुत काम किया.
ह्यूम ने ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हुए रिवेन्यू पॉलिसी की आलोचना की थी. उन्होंने 1879 में ‘ऐग्रीकल्चर रिफॉर्म इन इंडिया’ नाम का पर्चे भी बंटवाए थे. 1883 में उन्होंने कलकत्ता के प्रबुद्ध लोगों को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लोगों को जागरूक होने की अपील भी की थी. इसके बाद ही जीटी संस्कृत कॉलेज बॉम्बे में 28 दिसंबर 1985 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई. कांग्रेस के 72 संस्थापक सदस्यों में एओ ह्यूम अकेले ब्रिटिश थे और कांग्रेस के पहले महासचिव बने थे. यूरोपीय और भारतीयों के बीच काले-गोरे का भेद मिटाकर एक मंच पर सभी को साथ एक मंच पर लेकर आए.
विरासत को स्थापित करने की कवायद
माना जाता है कि एओ ह्यूम ने अंग्रेजों और भारतीयों के बीच एक कड़ी की तरह से भी काम किया और भारतीयों को उनके अधिकार दिलाने में अहम रोल अदा किया. इसके बाद कांग्रेस का प्रभाव बढ़ने लगा और ह्यूम के सुझावों को अंग्रेज सरकार मानने लगी. आगे चलकर भारत की आजादी की लड़ाई में भी कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहम भूमिका निभाई. इटावा में आज भी कांग्रेस की नींव रखने वाले एओ ह्यूम के नाम पर मोहल्ला भी है, जिसे ह्यूमगंज कहा जाता है. इस तरह कांग्रेस का इटावा के साथ गहरा नाता जुड़ा हुआ है. अब खरगे के जरिए कांग्रेस फिर से उसी विरासत को स्थापित करने की कवायद में है.
मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस के दलित चेहरा माने जाते हैं. यूपी की सियासत में लगातार मायावती कमजोर होती जा रही हैं और बसपा का वोटबैंक दलित समुदाय उनके छिटक रहा है. ऐसे में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में दलित वोटबैंक को दोबारा से हासिल करने की जुगत में है, क्योंकि बसपा के उद्भव से पहले दलित समुदाय कांग्रेस का परंपरागत वोटर्स माना जाता था. ऐसे में कांग्रेस खरगे को यूपी से उतारकर दलितों के विश्वास को फिर जीतने की प्लानिंग बना रही है तो इटावा सीट को चिन्हित करके कांग्रेस की बुनियाद को मजबूत करने की स्ट्रैटजी मानी जा रही है.
बीजेपी के विजयरथ को रोकने का प्लान
यूपी में दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना जगाने वाले कांशीराम पहली बार इटावा सीट से ही जीतकर संसद पहुंचे थे, जिसमें उनकी मदद सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने की है. इसके बाद ही यूपी में दलित-ओबीसी राजनीति को मजबूती मिली. मुलायम-कांशीराम ने आपस में हाथ मिला लिया और 1993 का चुनाव लड़कर बीजेपी का सफाया कर दिया था. इसके बाद बसपा ने दलित समुदाय के बीच मजबूती के साथ जगह बनाई, लेकिन 2007 के बाद से दलितों का मायावती से मोहभंग होना शुरू हो गया तो आज तक जारी है. बसपा सिर्फ जाटव समुदाय की पार्टी बनकर रह गई है.
मायावती 2024 में अकेले चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया है तो विपक्षी गठबंधन INDIA भी दलित समुदाय को अपने साथ जोड़ने की कवायद में लग गया है. मायावती के राजनीतिक रूप से सक्रिय न होने से नाराज दलित समुदाय बीजेपी की तरफ जा सकता है. इस तरह यूपी में योगी-मोदी फैक्टर को दलित वोटों के बिना रोका नहीं जा सकता है. इसीलिए खरगे को 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी से चुनाव लड़ाने की तैयारी है और उसमें भी इटावा सीट से. इस तरह से कांग्रेस दलित वोटरों को खींचने के लिए खरगे पर दांव चलना चाहती है ताकि बीजेपी के विजयरथ को रोका और यूपी की सियासत में दलित नेतृत्व भी खड़ा किया जा सके?