चंद्रयान-3 की गूंज पूरे विश्व में सुनाई दे रही है। इसके पीछे रॉकेट लांचिंग की एक ऐतिहासिक दास्तान जुड़ी हुई है। यह घटना है भारत के इतिहास के करीब 350 साल पुरानी। पूरी दुनिया को भी इस बात अंदाजा नहीं था कि भारत ने रॉकेट लांचिंग की खोज की है। रॉकेट प्रणाली से चलने वाली मिसाइलों का इतिहास भारत में दर्ज है। इतना ही नहीं इतिहास का यह पन्ना अमेरीका के अंतरीक्ष रिसर्च सेंटर नासा तक में दर्ज है। नासा की गैलरी में एक ऐसी तस्वीर लगी हुई है, जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि हवा में चलने वाली इस प्रणाली की खोज भारत में हुई। यहां से यह प्रणाली पश्चिमी देशों में जाकर परिष्कृत और उन्नत हुई। ये रॉकेट इस मायने में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं कि इन्होंने भविष्य में रॉकेट बनाने की नींव रखी। टीपू सुल्तान, जिसे टीपू साहब या मैसूर के टाइगर के नाम से भी जाना जाता है, दक्षिण भारत में स्थित मैसूर साम्राज्य के शासक और रॉकेट तोपखाने के अग्रणी थे। अमेरिकन स्पेस रिसर्च एजेंसी नासा के रिसेप्शन लॉबी में एक पेंटिंग है जिसमें लड़ाई का एक दृश्य दिखाया गया है और साथ में यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे रॉकेट के इतिहास से एक योद्धा ने विशाल ब्रिटिश सेना को हराया था और यह योद्धा कोई और नहीं टीपू सुल्तान था।
भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब विंग्स ऑफ़ फ़ायर में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिंग देखी थी। कलाम लिखते हैं, मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था। वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते। लगभग 350 साल पहले टीपू सुल्तान ने एक ऐसा हथियार बनाया था, जो दुश्मनों पर भारी पड़ गया था। सन् 1780 में टीपू सुल्तान ने इन रॉकेट का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार में हमला करने के लिए किया था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जब ब्रिटिश फ्रांस के खिलाफ नेपोलियन के युद्धों में फंस गए थे, तो उन्होंने एक सैन्य हथियार पेश किया, जो था कांग्रीव रॉकेट। कांग्रीव रॉकेट 1806 में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक आविष्कारक सर विलियम कांग्रीव द्वारा डिजाइन किया गया था। उन्हें रॉकेट बनाने का विचार तब आया, जब टीपू सुल्तान ने ऐसे रॉकेटों का इस्तेमाल करके अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ा दिए थे।
यह रॉकेट अब तक यूरोपीय महाद्वीप में पहले कभी किसी भी देश ने इस्तेमाल नहीं किया था। कांग्रीव रॉकेट को, 1800 के दशक की शुरुआत में बहुत प्रयोग के बाद फ्रांसीसी सैनिकों के खिलाफ तैनात किया गया था। इन रॉकेट की ताकत और प्रभावशीलता ऐसी थी कि इन्होंने तुरंत सभी देशों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया एवं जल्द ही डेनमार्क, मिस्र, फ्रांस, रूस और कई अन्य देशों के सैन्य इंजीनियरों ने ब्रिटिश इंजीनियरों का अनुसरण करना शुरू कर दिया। हालाँकि, 19वीं शताब्दी के मध्य में, इतिहासकारों ने ब्रिटिश सैनिकों के अतीत के बारे में पता लगाया, जिससे उन्हें यह पता चला कि वास्तव में, कांग्रीव रॉकेट की जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में टीपू सुल्तान के राज्य में थीं। टीपू सुल्तान ने 18वीं सदी में अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान के साथ मित्रता करने की बहुत कोशिश की, लेकिन टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कभी हाथ नहीं मिलाया। इसलिए अंग्रेज और टीपू सुल्तान एक दूसरे के दुश्मन बन गए। इसी दुश्मनी में टीपू सुल्तान एवं उसके पिता हैदर अली ने चार लड़ाइयाँ लड़ी थीं, जिनको आज आंग्ल-मैसूर युद्ध के नाम से जाना जाता है। जब इस लड़ाई में अंग्रेजों के गोला बारूद टीपू सुल्तान की तलवार पर हावी होने लगे, तब टीपू सुल्तान ने अपनी सेना को एक ऐसा हथियार दिया, जिसे इतिहास में मैसूरियन रॉकेट के नाम से जाना जाता है। मैसूरियन रॉकेट भारतीय सैन्य हथियार थे, जोकि लोहे के आवरण से बने थे तथा उन्हें सफलतापूर्वक सैन्य उपयोग के लिए तैनात किया गया था। हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर की सेना ने 1780 और 1790 के दशक के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ प्रभावी ढंग से इन रॉकेट का इस्तेमाल किया। इस अवधि के मैसूर रॉकेट मुख्य रूप से प्रणोदक धारण करने के लिए लोहे की ट्यूबों के उपयोग के कारण अंग्रेजों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत थे। लगभग एक पाउंड (450 ग्राम) पाउडर ले जाने वाला एक रॉकेट लगभग 1,000 गज (910 मीटर) की यात्रा कर सकता था।
रॉकेटों को एक सटीक कोण पर बांस पर रखा जाता था, यह इस बात पर निर्भर करता था कि वे कितनी दूर गिरे और इसके बाद उसे उड़ाया जाता था। माना जाता है कि पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया था। सन 1780 में हुई इस लड़ाई में एक रॉकेट शायद अंग्रेज़ों की बारूद गाड़ी में जा टकराया था। अंग्रेज़ ये युद्ध हार गए थे। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लंदन के मशहूर साइंस म्यूजयि़म में टीपू के कुछ रॉकेट रखे हैं। ये उन रॉकेट में से थे जिन्हें अंग्रेज़ अपने साथ 18वीं सदी के अंत में ले गए थे। ये दिवाली वाले रॉकेट से थोड़े ही लंबे होते थे। मैसूरियन रॉकेट के साथ अनुभव ने अंतत: रॉयल वूलविच आर्सेनल को मैसूरियन प्रौद्योगिकी के आधार पर 1801 में एक सैन्य रॉकेट अनुसंधान और विकास कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया। मैसूर से कई रॉकेट आवरण एकत्र किए गए और विश्लेषण के लिए ब्रिटेन भेजे गए। ठोस-ईंधन वाले रॉकेट का ब्रिटिश द्वारा पहला प्रदर्शन 1805 में हुआ और उसके बाद शस्त्रागार के कमांडेंट के बेटे विलियम कांग्रीव द्वारा 1807 में रॉकेट सिस्टम की उत्पत्ति और प्रगति के संक्षिप्त विवरण का प्रकाशन किया गया।