देश के सबसे बड़े सूबे यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती को लोग राजनीतिक रूप से समाप्त मान रहे हैं। मगर, बहनजी बत्तख की तरह बाहर से शांत और अंदर ही अंदर लोकसभा चुनावों की तैयारियों में युद्ध स्तर पर व्यस्त हैं। कांग्रेस के यूपी प्रदेश अध्यक्ष रहे मायावती कैडर के बृजलाल खाबरी और पीएल पुनिया का अचानक से कांग्रेस में हाशिए पर जाना।
फिर सोमवार को नसीमुद्दीन सिद्दीकी को यूपी कांग्रेस मीडिया चेयरमैन के पद से हटाना, तो वहीं कभी कांग्रेसी रहे सपा से बसपा में आए पश्चिम यूपी के बड़े नेता इमरान मसूद को बसपा से निष्कासित करना, ये सारे मामले दोनों पार्टियों के बीच बढ़ रही नजदीकी तो नहीं?
इमरान मसूद सहारनपुर से कांग्रेस के टिकट पर 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ चुके थे। हालांकि, इमरान पर आरोप है कि पार्टी की सदस्यता रसीदें वापस नहीं की। वैसे बसपा से निष्कासन के ज्यादातर मामले रसीदी गणित के होते हैं।
बसपा में किसी जमाने में मायावती के दाहिने हाथ रहे नसीमुद्दीन ने बसपा छोड़ते वक्त मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाया था। कई सीडी भी वायरल हुई थीं, इसमें ये दावा किया गया था कि बसपा विधानसभा और लोकसभा के टिकट बेचती है।
मायावती को इंडिया का हिस्सा बनाने की कवायद
राजनीतिक हलकों में ये चर्चा जोरों पर है कि मायावती को इंडिया गठबंधन में शामिल कराने को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की बातचीत लगातार बसपा प्रमुख से चल रही है। इसके मायने दोनों पार्टियों में घट रही घटनाओं के आधार पर भी देखे जा सकते हैं, चूंकि मायावती यूपी में दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं, उनके मुकाबिल आज भी कोई नेता किसी पार्टी में नहीं है।
चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, दलित वोटों के लालच में सभी दल मायावती को अपने पाले में लाने के लिए बेताब हैं। विपक्ष के इंडिया एलायंस के बड़े नेताओं का मानना है कि मायावती के आने से माहौल बदलेगा। बहन जी ने अपना स्टैंड क्लियर नहीं किया है, मगर बसपा के अमरोहा से लोकसभा सांसद दानिश अली का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से कुछ दिन पहले पटना जाकर मिलना इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
गठबंधन के कई नेताओं का मानना है कि मायावती यूपी के अलावा कई अन्य राज्यों में भी दलित वोटों को अपनी तरफ खींच सकती हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, तेलंगाना, उत्तराखंड में भी मायावती के पास दलितों का ठीक-ठीक वोट बैंक है। यही वजह है कि कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के नेता भी चाहते हैं कि बहन जी गठबंधन का हिस्सा बनें।
सूत्रों की माने तो नेशनल कांफ्रेस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने फोन पर मायावती से बात करके उन्हें गठबंधन में शामिल होने का न्योता दिया है। आधे घंटे की बातचीत में बसपा सुप्रीमो ने उनकी बात को ध्यान से सुना, मगर अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं।
मायावती और सोनिया गांधी के बीच भी काफी मधुर संबंध हैं, ये जगजाहिर है। मायावती एक सधी हुई राजनेता की तरह संभल-संभल कर कदम रख रही हैं, क्योंकि वो जानती हैं कि पार्टी के खोए हुए जनाधार को वापस लाने का शायद ये आखिरी मौका हो।
दलित के अलावा अति पिछड़ों में भी स्वीकार्यता- प्रोफेसर रविकांत
सियासत की हर कला में माहिर मायावती बखूबी जानती हैं कि कब दो कदम आगे चलना है और कब दो कदम पीछे हटना है। दरअसल, मायावती की पैठ 10 प्रतिशत दलित (जाटव) के अलावा अति पिछड़ी जातियों में भी ठीक-ठाक है। मुस्लिम और सवर्ण वोटबैंक में भी मायावती को लेकर कोई मतभिन्नता नहीं है, क्योंकि उनकी सख्त प्रशासक की छवि से हर कोई वाकिफ है।
दलित चिंतक और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रविकांत का मानना है कि आज के दौर की राजनीति अति पिछड़ा केन्द्रित हो गई है, भाजपा का भी सारा फोकस इसी पर है। अगर मायावती इंडिया गठबंधन में शामिल होती हैं तो गठबंधन मजबूत होगा। उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भी इसका असर देखने को मिलेगा। मायावती की स्वीकार्यता अति पिछड़ा वोटरों में भी है।
एक कहावत है कि मरा हुआ हाथी सवा लाख का...
राजनीति के जानकारों का मानना है कि मायावती अपने पत्ते इसलिए नहीं खोल रही हैं ताकि पूरा दबाव बना सकें। जिसका फायदा सीटों के बंटवारे में बड़ा हिस्सा उनके हिस्से आए। अगर पिछले कुछ चुनावों को आधार माना जाए तो मायावती की पार्टी का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है, जिसके चलते सीटों के फॉर्मूले पर मामला अटका हुआ है।
मायावती को ये बखूबी पता है कि गठबंधन की राजनीति कैसे करनी चाहिए। हर बार गठबंधन का सीधा फायदा मायावती को ही मिलता रहा है। मौकापरस्ती का आलम तो ये रहा है कि बहन मायावती हर बार चुनावों के बाद ठीकरा किसी और के सिर फोड़कर खुद को बहुत सफाई से किनारे करके जो भी सरकार बनाने की स्थिति में होता है उसके साथ खड़ी हो जाती हैं।
कई बार तो मोलभाव करके दलित नेता होने की वजह से बड़ी पार्टियों ने उन्हें मुख्यमंत्री तक बनाया है। चार बार में तीन बार वो गठबंधन की बदौलत ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी हैं। मायावती इस हकीकत से भी वाकिफ हैं कि बिना गठबंधन की बैसाखी के उनकी नैया भी पार लगना मुश्किल है।
2024 का लोकसभा चुनाव करो या मरो जैसा
मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस करके ये कह तो दिया कि वो किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेंगी, मगर 2024 का चुनाव उनके और उनकी पार्टी दोनों के लिए कितना महत्वपूर्ण है किसी से छिपा नहीं है। 2022 का विधानसभा चुनाव मायावती के लिए एक सबक जैसा ही था।
2009 में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर चुकी बसपा के पास यूपी में सिर्फ एक विधायक है उमाशंकर सिंह। मायावती के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव करो या मरो जैसा है। इसलिए मायावती जल्दबाजी में कोई भी फैसला नहीं लेना चाहतीं, वो वेट एंड वॉच वाली भूमिका में आखिर तक सियासी नब्ज को टटोलने में लगीं हैं।
CSDS के मुताबिक (2007) यूपी विधानसभा चुनावों में 30.43% वोट के साथ बसपा ने 206 सीटों पर जीत दर्ज की और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इसके बाद 2009 में लोकसभा में बसपा का वोट बैंक गिरकर 27.4% रह गया। हालांकि, उन्होंने 21 सीटें जीती थीं। 2012 का चुनाव आते आते बसपा की चमक और फीकी हो गई।
ब्राह्मण और कुछ दलित वोट मायावती से कट गया, बसपा सिर्फ 80 सीटों पर सिमट गई। यहां तक कि वोट शेयर भी 5% घटकर 25.9% पर आ गया। 2014 लोकसभा चुनाव मायावती के लिए किसी बुरे सपने जैसा साबित हुआ और बसपा ने 20% वोट तो हासिल किए लेकिन उसका खाता भी नहीं खुल सका। 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा 19 सीटों पर सिमट गई और इस वक्त पार्टी सबसे बुरे दौर में है क्योंकि किसी जमाने में सत्ता में रहने वाली बसपा के पास महज एक विधायक है।
1993 में सपा से पहली बार गठबंधन
1984 में बसपा की स्थापना हुई। दलित, पिछड़ों और शोषित वर्ग को उनका हक दिलाने के नाम पर अपनी सियासी पारी शुरू करने वाली बसपा को पहली बड़ी सफलता 1993 में मिली। यूपी में सपा के साथ मिलकर बसपा ने चुनाव लड़ा। मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम के नारे के साथ मंडल कमंडल पर भारी पड़ गया और 12 विधायकों वाली बसपा को 1993 में 67 सीटें मिली। 1993 में मुलायम सिंह और कांशीराम के बीच हुए समझौते में बसपा ने 164 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था।
जबकि सपा ने 256 सीटों पर चुनाव लड़ा और 109 सीट पर जीत दर्ज की थी। सपा बसपा गठबंधन ज्यादा दिन चल नहीं सका। बीजेपी को रोकने के लिए बने गठबंधन में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री, तो बने तो लेकिन महज 18 महीने बाद ही बसपा ने गठबंधन तोड़ दिया। 2 जून 1995 गेस्ट हाउस कांड यूपी की राजनीति का एक काला अध्याय रहा था, जब मायावती ने सपा से समर्थन वापस लिया था और मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई थी।
सत्ता से दूरी पार्टी और कैडर को धीरे-धीरे खत्म कर देगी
मायावती अपने विधायकों के साथ लखनऊ के मीराबाई गेस्ट हाउस में बैठक कर रहीं थी तभी उन पर जानलेवा हमला किया गया था और भाजपा नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने उनको बचाया था। 3 जून 1995 को बीजेपी के ही समर्थन से मायावती पहली बार सूबे की मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठीं।
1996 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था, बसपा 67 सीट और कांग्रेस ने 33 सीटों पर जीत दर्ज की थी। चूंकि उनका गठबंधन सरकार बनाने की हैसियत में नहीं था तो मायावती ने कांग्रेस से गठबंधन तोड़कर एक बार फिर से बीजेपी के सहयोग से दोबारा सत्ता हासिल की और मुख्यमंत्री बनीं।
मायावती ये बात अच्छी तरह से जानती हैं कि सत्ता से दूरी उनकी पार्टी और कैडर को धीरे-धीरे खत्म कर देगी। जिस 21 प्रतिशत दलित वोटबैंक पर मायावती का एकछत्र राज हुआ करता था अब वो घटकर महज 7-8 प्रतिशत ही रह गया है।
OBC के बाद दलित ही प्रदेश में सबसे बड़ा वोट बैंक
प्रदेश में दलितों का वोट बैंक लगभग 21 प्रतिशत है, जिनमें 66 उपजातियां हैं। OBC के बाद दलित ही प्रदेश में सबसे बड़ा वोट बैंक है। इसमें जाटव प्रमुख जाति है। 21 प्रतिशत में इनकी संख्या 10 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी भी प्रमुख रूप से इन्हीं में शामिल हैं।
यह वोट पूरी तरह से बसपा का कोर वोट बैंक माना जाता था। लेकिन 2007 में हाथी नहीं गणेश हैं ब्रह्मा, विष्णु महेश हैं का नारा देकर दलित और ब्राह्मणों की सोशल इंजीनियरिंग से 206 विधायकों की जीत के साथ पहली बार अपने दम पर सत्ता में आई मायावती ने एक इंटरव्यू में उत्तराधिकारी के सवाल पर कहा कि मेरा उत्तराधिकारी कोई जाटव ही होगा।
यह दलितों की एक उपजाति होती है। इसके बाद से ही मायावती की सियासत का ग्राफ गिरना शुरू हो गया और 2012 के चुनाव में सिर्फ 80 सीटें ही हासिल कर सकी बसपा। पिछले दो लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इसमें बिखराव आया है। भाजपा के अति दलित और अति पिछड़ी जातियों के गणित ने बसपा की दलित राजनीति को तगड़ा झटका दिया है।जाटव के अलावा अन्य दलितों ने बसपा से नाराजगी जताई है। यह वोट बैंक बीजेपी की तरफ खिसक गया है।
60 गैर-जाटव दलित जातियों को अहमियत नहीं मिली
राजनीतिक के जानकारों की माने तो भाजपा दलित वोट बैंक के उस हिस्से को अपनी तरफ करने में लगी हैं, जिसको मायावती की पार्टी में कभी कोई नेतृत्व नहीं मिल पाया। बहुजन समाज आंदोलन में लगभग 60 गैर-जाटव दलित जातियों को अहमियत नहीं दी गई। इनमें वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी जातियां शामिल हैं। दलितों में इनका प्रतिनिधित्व 11 प्रतिशत से ज्यादा है। इसीलिए भाजपा ने इन जातियों पर फोकस करते हुए तमाम योजनाएं बनाई है।
प्रधानमंत्री अनुसूचित जाती अभ्युदय योजना, MSME के तहत skilled वर्कर को सरकार से बिजनेस करने के लिए 50 हजार-1 लाख रुपए तक अनुदान मिलता है, उनके बनाए हुए सामान को बाजार भी सरकार ही उपलब्ध कराती है जिससे अच्छी बचत भी होती है। आदर्श ग्राम योजना में सारी मूलभूत सुविधाओं को पूरा कराने का काम भी सरकार के UPSCFDC द्वारा कराया जा रहा है। इस बार भी बीजेपी का लक्ष्य इस वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखना है। मायावती को सिर्फ जाटव समाज तक सीमित कर देना है।
भाजपाई भी गुणा-गणित में लगे
भाजपा के रणनीतिकार 20% सवर्ण, 32% गैर यादव ओबीसी, 11% गैर जाटव दलितों को अपनी ओर खींचने के गुणा गणित में लगे हैं। क्योंकि भाजपा के थिंक टैंक को पता है कि 10 साल की एंटी इंकम्बेंसी का कुछ तो फर्क पड़ेगा ही। जो सीटें कम होंगीं, उसकी भरपाई उत्तर प्रदेश की 80 सीटें जीतकर की जा सकती है। पसमांदा मुसलमानों पर भी डोरे डालने की वजह उनका वोट है।
समाजवादी पार्टी अपनी MY की छवि से बाहर निकल कर PDA की राजनीति पर जोर दे रही है। अखिलेश अपनी पार्टी की हर मीटिंग में ये कह रहे हैं कि हमें पीडीए पर फोकस करना है, अब भाजपा की पिच पर नहीं खेलना है। यूपी में 17 अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व सीटें हैं-नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच,बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, रॉबर्ट्सगंज।