राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस विधानसभा चुनाव को लेकर 200 सीटों पर प्रत्याशी तय करने में जुटी हुई हैं। दोनों पार्टियाें ने अपनी-अपनी मजबूत और कमजोर सीटें चुन ली हैं, उसी के अनुसार रणनीति बनाई जा रही है, लेकिन कई सीटें ऐसी हैं, जो दोनों के लिए चुनौती हैं।
ये वो सीटें हैं, जहां पार्टी के बजाय चेहरे और जातिगत तथा सामुदायिक गणित ज्यादा प्रभावी रहता है। इनमें कुछ सीटें तो ऐसी हैं, जहां कहीं बीजेपी तो कहीं कांग्रेस पिछले 4 चुनाव से एक में भी जीत नहीं दर्ज कर पाई हैं।
पढ़िए उन सीटों की कहानी, जो भाजपा-कांग्रेस दोनों के लिए चुनौती...
कोटपूतली : 20 साल से नहीं जीती बीजेपी
इस सीट पर पिछले 4 बार से बीजेपी को जीत नहीं मिली है। 2018 और 2013 में मंत्री राजेंद्र यादव यहां कांग्रेस के टिकट पर जीत रहे हैं। वहीं, 2008 में रामस्वरूप कसाना यहां से जीते, राजेंद्र यादव दूसरे नंबर पर रहे, जबकि 2003 में भी निर्दलीय सुभाष चंद्रा ने यहां से जीत दर्ज की।
खींवसर : 4 में 1 भी चुनाव नहीं जीती कांग्रेस
इस सीट पर पार्टियों के बजाय चेहरे का कब्जा रहा। यहां 2008 में बीजेपी के टिकट से तो 2013 में निर्दलीय और 2018 में आरएलपी के टिकट पर हनुमान बेनीवाल जीते। वहीं, 2019 में हनुमान बेनीवाल के सांसद बनने के बाद आरएलपी के ही टिकट से उपचुनाव में नारायण बेनीवाल जीत गए। यहां कांग्रेस काफी कमजोर रही है।
नवलगढ़ : बीजेपी पिछले चारों चुनाव हारी
2008 में इस सीट से राजकुमार शर्मा बीएसपी के टिकट पर जीते थे। 2013 में शर्मा का टिकट कट गया और उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत गए। यहां कांग्रेस दूसरे और बीजेपी तीसरे स्थान पर रही। 2018 में कांग्रेस के टिकट पर शर्मा चुनाव जीते।
इससे पहले 2008 और 2013 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़कर दूसरे स्थान पर रहने वाली प्रतिभा सिंह 2003 में निर्दलीय चुनाव जीती थी। यहां भी पिछले 4 में से एक बार ही कांग्रेस चुनाव जीत पाई है, जबकि बीजेपी एक बार भी नहीं जीती।
कुशलगढ़ : 20 साल में कांग्रेस को 1 भी जीत नहीं
यहां भी किसी पार्टी के परे चेहरों का रोल ज्यादा है। 2003 और 2008 में जेडीयू के टिकट पर फतेहसिंह यहां से चुनाव जीते। 2013 में बीजेपी के टिकट पर भीमा भाई ने जीत दर्ज की। यहां भीमा भाई के साथ-साथ हुर्तिंग खड़िया बड़ा चेहरा रहे। 2003 और 2013 में उन्हें कांग्रेस ने टिकट दिया मगर वह नहीं जीत पाए। 2018 में कांग्रेस ने टिकट काटा तो उनकी पत्नी रमीला खड़िया निर्दलीय चुनाव जीत गईं।
गंगानगर : 4 में से 2 बार बीजेपी जीती
2018 में निर्दलीय राजकुमार गौड़ जीते। 2013 में जमींदारा पार्टी से कामिनी जिंदल जीत गईं। 2008 में बीजेपी से राधेश्याम जीते। 2003 में बीजेपी से सुरेंद्र सिंह ने जीत दर्ज की। यह वो सीट है, जहां से पिछले 4 बार से हर बार नया चेहरा ही चुनाव जीत रहा है।
भद्रा : कांग्रेस टॉप 3 से आगे नहीं बढ़ी
2018 में सीपीएम से बलवान पूनिया जीते। बीजेपी दूसरे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही। 2013 में बीजेपी से संजीव कुमार जीते, सीपीएम दूसरे और कांग्रेस पांचवें पर रही। 2008 के चुनाव में जयदीप यहां से निर्दलीय चुनाव लड़े। 2003 में भी यहां से डॉ. सुरेंद्र चौधरी निर्दलीय ही जीते। यहां पिछले 4 में से 3 चुनाव में गैर बीजपी-कांग्रेस शासित प्रत्याशी जीता है। यहां पिछले चार बार में एक बार भी कांग्रेस नहीं जीत सकी है।
उदयपुरवाटी : 3 में 2 चुनाव बीएसपी जीती
2018 में बीएसपी से राजेंद्र गुढ़ा जीते, बीजेपी से शुभकरण चौधरी दूसरे स्थान पर रहे, कांग्रेस तीसरे पर रही। 2013 में बीजेपी से शुभकरण जीत गए और कांग्रेस के टिकट पर लड़ने वाले गुढ़ा तीसरे पर रहे। इससे पहले 2008 में गुढ़ा बीएसपी के टिकट पर जीते थे। कांग्रेस दूसरे और बीजेपी चौथे स्थान पर रही थी।
बस्सी : 4 में 3 बार निर्दलीय को जीत
2018 में लक्ष्मण मीणा निर्दलीय जीते, बीजेपी दूसरे और कांग्रेस चौथे स्थान पर रही। पूर्व निर्दलीय विधायक अंजू देवी तीसरे स्थान पर रहीं। 2013 में निर्दलीय अंजू देवी जीतीं, लक्ष्मण मीणा कांग्रेस से लड़े तीसरे स्थान पर रहे, बीजेपी चौथे पर रही। 2008 में भी निर्दलीय अंजू देवी जीतीं, कांग्रेस तीसरे और बीजेपी चौथे पर रही। 2003 में यहां बीजेपी जीती थी। तब आखिरी बार टू पार्टी इलेक्शन यहां हुआ था।
थानागजी : 2 बार निर्दलीय, 2 बार बीजेपी जीती
2018 में कांति प्रसाद निर्दलीय जीते, बीजेपी तीसरे और कांग्रेस चौथे पर रही। 2013 और 2008 में बीजेपी से हेमसिंह भडाना जीते, कांग्रेस तीसरे पर रही। 2003 में कांति जीते, बीजेपी दूसरे और कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही।
राजगढ़-लक्ष्मणगढ़ : 4 में 1 ही चुनाव जीती बीजेपी
2018 में कांग्रेस से जौहरीलाल जीते, 2013 में एनपीइपी से गोलमा देवी जीतीं, कांग्रेस चौथे पर रही, 2008 में सपा से सूरजभान जीत गए, बीजेपी पांचवें स्थान पर रही, परिसीमन के बाद बीजेपी यह सीट नहीं जीत पाई, इससे पहले राजगढ़ अलग सीट थी, तब बीजेपी से समर्थलाल 2003 में जीते थे। जौहरी लाल ने पिछले 4 में से 3 चुनाव लड़े मगर 1 ही जीत पाए।
भरतपुर : 4 में 2 चुनाव जीती बीजेपी
यहां भी चेहरा सबसे महत्वपूर्ण है। 2003 में आईएनएलडी से जीते विजय बंसल यहां 2008 और 2013 में बीजेपी के टिकट से जीते। 2018 में आरएलडी से डॉ.सुभाष गर्ग जीत गए।
महुआ : कांग्रेस को लगातार 4 हार मिली
यहां भी पिछले 4 चुनावों से कांग्रेस नहीं जीत सकी है। 2018 में यहां से ओम प्रकाश हुड़ला निर्दलीय जीते। वहीं, 2013 में बीजेपी से यहां जीती थी। साल 2008 में निर्दलीय गोलमा देवी जीती तो 2003 में बीजेपी से हरिज्ञान सिंह जीते। यहां पिछले चार चुनाव में दो बार निर्दलीय और दो बार बीजेपी को जीत मिली है।
करौली : कभी सत्ताधारी पार्टी के विधायक नहीं जीते
यहां कभी सत्ताधारी पार्टी का विधायक नहीं जीते। 2018 में बीएसपी के टिकट पर लड़े लखन सिंह जीत गए। 2013 में बीजेपी की सरकार बनने के बावजूद कांग्रेस के टिकट पर दर्शन सिंह जीते। 2008 में कांग्रेस की सरकार बनी मगर बीजेपी से रोहिणी कुमारी जीत गई। 2003 में यहां बीएसपी से सुरेश मीणा जीते। पिछले 4 चुनाव में यहां कांग्रेस-बीजेपी से ज्यादा बीएसपी जीती है।
नदबई : कांग्रेस चारों चुनाव हारी
इस सीट पर कृष्णेंद्र कौर दीपा प्रमुख चेहरा रहीं, 2003 में निर्दलीय चुनाव जीती थीं, फिर 2008 और 2013 में बीजेपी के टिकट से जीती। 2018 में बीएसपी से जोगिंदर सिंह अवाना जीत गए। कांग्रेस पिछले 4 में से एक भी चुनाव यहां नहीं जीती है।
गंगापुर : कोई भी पार्टी खुद को स्थापित नहीं कर पाई
यहां पिछले चुनावों में कोई भी पार्टी खुद को स्थापित नहीं कर पाई। रामकेश मीणा 2018 में निर्दलीय जीते, लेकिन 2013 में वह दूसरे स्थान पर रहे। 2013 में यहां से बीजेपी के मानसिंह जीते। 2008 में रामकेश बीएसपी के टिकट पर चुनाव जीते थे। 2013 में यहां से कांग्रेस से दुर्गाप्रसाद चुनाव जीते।
बांदीकुई-दौसा : परिसीमन से बदली परिस्थितियां
2018 में इस सीट से कांग्रेस के जीआर खटाणा जीते। 2013 में बीजेपी की अल्का सिंह जीतीं। 2008 में रामकिशोर निर्दलीय यहां से जीते। जबकि परिसीमन से पहले 2003 में यहां से मुरारी लाल जीते थे। परिसीमन के बाद दौसा और बांदीकुई सीटें काफी बदल गईं। ऐसे में बीएसपी के ही टिकट पर मुरारी लाल दौसा से 2008 में जीते। वह 2018 में कांग्रेस के टिकट पर दौसा से फिर जीत गए।
धोद : 4 में दो बार सीपीएम जीती
2003 में सीपीएम से अमराराम तो 2008 में सीपीएम से ही पेमाराम यहां से जीते। 2013 में बीजेपी और 2018 में कांग्रेस यहां से जीतने में सफल रही। दोनों बार पेमाराम दूसरे स्थान पर रहे। यहां त्रिकोणीय संघर्ष के कारण प्रत्याशियों को नुकसान हुआ।
क्या हैं इसकी बड़ी वजहें
त्रिकोणीय संघर्ष : जानकार बताते हैं कि इन सीटों पर सबसे बड़ा कारण त्रिकोणीय संघर्ष होता है। बीजेपी-कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियां भी जोर लगाती हैं। राजस्थान में बीएसपी, सीपीएम जैसी पार्टियां रही हैं, जो कुछ सीटों पर प्रभावी रहती हैं। इससे पहले जेडीयू और कुछ सीटों पर सपा भी प्रभाव डालती थी। अब आरएलपी, बीटीपी जैसी पार्टियां हैं। कई बार बड़े नेता अलग पार्टी बना लेते हैं तो वो भी प्रभाव डालते हैं।
टिकट कटना : राष्ट्रीय पार्टियां कई बार कई कारणों से नेताओं के टिकट काट देती हैं। मगर उस क्षेत्र में उन चेहरों का प्रभाव होता है, जिसके चलते भी ऐसा होता है। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने कई नेताओं के टिकट काटे, मगर वे निर्दलीय या किसी अन्य पार्टी के टिकट पर लड़कर आए और जीत गए। उनके चेहरे का प्रभाव काफी रहता है।
चेहरे : नवलगढ़ सीट पर राजकुमार शर्मा, उदयपुरवाटी पर राजेंद्र गुढ़ा, दौसा सीट पर मुरारीलाल मीणा, नदबई पर कृष्णेंद्र कौर दीपा, भरतपुर पर विजय बंसल, गंगापुर पर रामकेश मीणा, खींवसर पर हनुमान बेनीवाल का काफी प्रभाव माना जाता है। ज्यादातर चेहरे ऐसे हैं,जो बीजेपी या कांग्रेस से जीतने के अलावा निर्दलीय या किसी थर्ड पार्टी के टिकट पर भी चुनाव जीते हैं।
जातिगत समीकरण : सीटों पर जातिगत समीकरण काफी हावी रहता है। इसका भी बहुत बड़ा असर पड़ता है। कई बार पार्टियां जाति को साइड में रखकर चेहरे पर दांव खेलती हैं मगर यह उल्टा पड़ जाता है। ऐसे में वहां की जातियों को साधने वाला चेहरा जीतता है। खासतौर से यह उन सीटों पर ज्यादा असर डालता है, जहां राष्ट्रीय पार्टियां जमीन पर इतनी मजबूत नहीं होती हैं।
पूर्वी राजस्थान में ऐसी सीटें ज्यादा
निर्दलीय और थर्ड पार्टी उम्मीदवार का असर पूर्वी राजस्थान में ज्यादा देखने को मिलता है। पूर्वी राजस्थान में ऐसी सीटें काफी ज्यादा हैं, जहां दोनों प्रमुख पार्टियां कई बार बेबस नजर आती हैं। जानकार बताते हैं कि यूपी से नजदीक होने के चलते पूर्वी राजस्थान में बसपा, सपा, आरएलडी, जदयू जैसी पार्टियों का असर कुछ-कुछ सीटों पर दिखता है। इसी तरह कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां कम्युनिस्ट पार्टियों का असर है। यह भी हरियाणा और पंजाब के कुछ इलाकों की राजनीतिक स्थितियों के चलते होता है।
राजनीतिक जानकार प्रोफेसर आरडी गुर्जर बताते हैं कि जहां प्रमुख जातियों में आपसी संघर्ष है। वहां पार्टी इन जाति विशेष को प्रत्याशी अगर नहीं बनाती तो ऐसा होता है। उदाहरण के तौर पर महुआ सीट है। यहां मीणा और गुर्जर समुदाय प्रभावी हैं। ऐसे में जिस भी पार्टी ने गुर्जर या मीणा को मौका नहीं दिया तो वहां निर्दलीय खड़ा हो जाएगा। वोटर पार्टियों को छोड़कर उधर चले जाएंगे। इसी तरह अगर नगर सीट की बात करें तो वहां बीजेपी ने गुर्जर उम्मीदवार को टिकट दिया, जबकि कांग्रेस का उम्मीदवार पसंद का नहीं था। यहां मुस्लिम वोट काफी ज्यादा हैं। वोटर बीएसपी के वाजिब अली के साथ चले गए।
राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अरुण चतुर्वेदी बताते हैं कि कई बार एक ही डोमिनेंट समूह के लोग होंगे और वो नेता उस समूह से है तो वो जीत जाएग। दूसरा उस आदमी ने उस जगह को इतना कैटर किया है तो भी वो जीतेगा। तीसरा जो पॉलिटिकल पार्टी है, वो अपना कमजोर उम्मीदवार वहां खड़ा कर दे। तब भी गैर पार्टी वाला जीत जाता। इसके अलावा कहीं कहीं अगर थर्ड पार्टी है तो उसका वोट भी प्रत्याशी को मिल जाता है। छोटी पार्टी का अपना कुछ वोट होता है और उस प्रत्याशी का खुद का वोटबैंक होता है। छोटी पार्टियां ऐसे उम्मीदवार को टिकट देने के लिए तैयार रहती हैं। दोनों मिलाकर चुनाव जीत जाते हैं।