New Delhi: नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई से क्यों बचना चाहते हैं कांग्रेस और उसके सहयोगी ?

New Delhi: नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई से क्यों बचना चाहते हैं कांग्रेस और उसके सहयोगी ?

राहुल गांधी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। भारत जोड़ो यात्रा निकालकर वह अपनी क्षमता को भी साबित कर चुके हैं। सड़क से लेकर संसद तक वह लगातार सरकार या यूं कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ सीधी लड़ाई भी लड़ते हुए नजर आ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद न तो उनकी अपनी पार्टी और न ही उनके गठबंधन के सहयोगी दल यह चाहते हैं कि 2024 की लड़ाई मोदी बनाम राहुल की लड़ाई बन जाए। कहने को कहा जा सकता है कि, कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल हर राजनीतिक दल का नेता अपने आपको प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान कर चल रहा है इसलिए वे नहीं चाहते कि राहुल गांधी उनको लीड करते नजर आएं लेकिन इसकी गहराई में जाने पर इसका वास्तविक कारण भी उभर कर सामने आ जाता है। 

वैसे तो भारत में शासन की संसदीय प्रणाली को चुना गया है, जिसमें जनता अपने वोट के द्वारा सांसद चुनती है और जनता द्वारा चुने गए सांसद बहुमत के आधार पर देश का प्रधानमंत्री चुनते हैं। कहने को तो इस प्रणाली में भारत की जनता सीधे प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं करती है लेकिन आजादी के बाद से ही व्यवहारिक राजनीतिक स्थिति पूरी तरह से इस सिद्धांत के विपरीत ही रही है। आजादी के बाद के कई दशकों तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व के कारण ही कांग्रेस चुनाव जीतती रही है और उस दौर में तो यहां तक कहा जाता था कि लोक सभा चुनाव के लिए कांग्रेस का टिकट मिलना सांसद बनने की गारंटी है। अर्थात एक मायने में देखा जाए तो उस दौर में सांसद मिलकर अपने प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं करते थे बल्कि प्रधानमंत्री यह तय करते थे कि उनकी पार्टी से सांसद कौन बनेगा। 

नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री बने लेकिन उनके बाद नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। इंदिरा गांधी ने पहले अपने पिता नेहरू की विरासत और बाद में अपनी लोकप्रियता के सहारे अपने इर्द-गिर्द एक ऐसा आभामंडल तैयार कर लिया कि उनकी चमक के सामने के. कामराज जैसे दिग्गज नेता भी असफल हो गए। इसके बाद इंदिरा गांधी जब तक जीवित रहीं, अपनी पार्टी और सरकार की सर्वोच्च नेता रहीं (मोरारजी देसाई और चरण सिंह के छोटे से कार्यकाल को छोड़कर)। दुर्भाग्यपूर्ण हालात में सिख आतंकवाद के दौर में उनके अपने ही अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। उनकी विरासत के कारण राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने और उनकी हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर 400 से ज्यादा सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि देश के इतिहास पर कई बड़े प्रभाव डालने के फैसले और लोकप्रियता के बावजूद बोफोर्स के दाग ने कुछ ही वर्षों में उनकी चमक फीकी कर दी। 1989 के चुनाव में राजीव गांधी को हार का सामना करना पड़ा और 1991 लोक सभा चुनाव के चुनाव प्रचार के दौरान ही उनकी हत्या हो गई। इसके बाद नरसिम्हा राव ने पांच साल तक अल्पमत सरकार चलाई। एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल कांग्रेस के समर्थन से थोड़े-थोड़े समय प्रधानमंत्री रहे। लेकिन 1998 में एनडीए गठबंधन के नेता के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक फिर से नेहरू और इंदिरा का दौर आंशिक रूप से लौटता नजर आया। एक वोट से सरकार गिरने के बाद 1999 के लोकसभा चुनाव को भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी बनाम कौन का चुनाव बना दिया और गठबंधन का नेतृत्व करने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी इस लड़ाई में सब पर भारी पड़े। 2004 के लोकसभा चुनाव में महज कुछ सीटों के अंतर से भाजपा को पछाड़ कर सहयोगी दलों की संख्या के आधार पर यूपीए की सरकार बनी और सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर सत्ता पर अपनी पकड़ को बरकरार रखने का नायाब तरीका ढूंढ निकाला। कांग्रेस के रणनीतिकार भले ही इस बात से इंकार करें लेकिन 2009 का लोकसभा चुनाव लालकृष्ण आडवाणी के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के कारण मनमोहन बनाम आडवाणी का चुनाव बन गया और और इस लड़ाई में मनमोहन सिंह लालकृष्ण आडवाणी पर भारी पड़ गए। 

2014 के लोक सभा चुनाव के नतीजों के साथ ही देश में नेहरू और इंदिरा युग की तरह मोदी युग की शुरुआत हुई। वैसे तो 1984 के लोक सभा चुनाव के 30 साल बाद जनता ने किसी दल को पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का मौका दिया लेकिन दूसरे मायने में देखा जाए तो 1980 के बाद पहली बार 2014 में कोई नेता सिर्फ अपने बल पर पूर्ण बहुमत की सरकार बना पाया था। 2019 में एक तरफ जहां भाजपा ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की तो वहीं कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी को अपनी पारिवारिक लोकसभा सीट अमेठी से भी हार का सामना करना पड़ा।

उसके बाद से ही कांग्रेस मोदी बनाम राहुल के चुनावी नैरेटिव से बचने की कोशिश करती रही है। जबकि भाजपा अपने लिए मोदी बनाम राहुल की चुनावी लड़ाई के नैरेटिव को फायदेमंद मानते हुए हर चुनाव को इसी पैटर्न पर ले जाने की कोशिश करती नजर आती है।

दरअसल, केंद्र की सरकार में 9 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद तमाम सर्वे यह बताते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। स्थानीय स्तर पर लोग अपने सांसद से नाराज हो सकते हैं, महंगाई को लेकर परेशान भी हो सकते हैं लेकिन जब भी बात प्रधानमंत्री पद की आती है तो उनकी पहली पसंद नरेंद्र मोदी ही होते हैं और शायद यही वजह है कि कांग्रेस के रणनीतिकार यह नहीं चाहते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव की तरह 2024 में भी लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई में बदलती नजर आए इसलिए कांग्रेस नेतृत्व की बजाय मुद्दों पर ज्यादा फोकस करती नजर आती है लेकिन एक खास रणनीति के तहत भाजपा हर बार अपने नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे कर चुनावी लड़ाई को नेतृत्व की लड़ाई यानी चेहरे की लड़ाई में बदलने की कोशिश करती नजर आती है क्योंकि उसे इस बात का बखूबी अहसास है कि मोदी बनाम राहुल की चुनावी लड़ाई में पलड़ा मोदी का ही भारी रहेगा। हालांकि इस तथ्य का अहसास सिर्फ भाजपा को ही नहीं है बल्कि कांग्रेस आलाकमान भी इस सच्चाई को बखूबी समझता है और इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के साथ खड़े राजनीतिक दल भी इसे बखूबी समझते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे खुल कर कह चुकी हैं और बाकी सहयोगी भी दबी जुबान में इशारों-इशारों में इसे स्वीकार करते रहते हैं।

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