शिवपूजन सहाय जयंती: मैट्रिक पास होकर भी बने हिंदी के प्रोफेसर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते थे हिंदी भूषण

शिवपूजन सहाय जयंती: मैट्रिक पास होकर भी बने हिंदी के प्रोफेसर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कहते थे हिंदी भूषण

क्या आप ऐसे किसी लेखक को जानते हैं जिन्हें महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पत्र में “हिंदी भूषण” लिखते थे, क्या आपको पता है कि जब निराला की मुक्त छंद की पहली कविता ‘जूही की कली’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दी तो किसने छापी थी? ये लेखक और कोई नहीं बल्कि आश्चर्य शिवपूजन सहाय थे जो मैट्रिक पास होकर भी हिंदी के प्रोफेसर नियुक्त किए गए थे. आज उसी लेखक की 130वीं जयंती है. शिवपूजन सहाय का जन्म 9 अगस्त, 1893 को बिहार के शाहाबाद के उनवांस में हुआ था.

बिहार के बक्सर जिले के उनवांस में जन्मे आचार्य शिवपूजन सहाय के बारे में रामधारी सिंहर दिनकर ने लिखा था अगर शिवपूजन जी की सोने की मूर्ति बनाई जाए और उस पर चांदी का वर्क चढ़ाया जाए तो हिंदी साहित्य के प्रति उनकी सेवा की भरपायी नहीं की जा सकती.

दरअसल, हिंदी साहित्य की दुनिया में कहानीकारों, उपन्यासकारों, कवियों और आलोचकों की चर्चा तो बहुत हुई है और उनका मूल्यांकन भी हुआ है लेकिन हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता के निर्माण में अपना जीवन खपा देने वाले हिंदी सेवियों की चर्चा कम हुई है. इन हिंदी सेवियों ने अपने लेखन से ज्यादा ध्यान हिंदी के प्रचार-प्रसार और उसकी सेवा करने में लगा दी हो चाहे वह महावीर प्रसाद द्विवेदी हों, अंबिका प्रसाद वाजपेयी हों, गणेश शंकर विद्यार्थी हों, विष्णु पराड़कर हों, किशोर दास वाजपेई हों या फिर कामिल बुल्के.

आज के दिन एक ऐसे ही लेखक का जन्म हुआ था जिसने हिंदी गद्य को ठेठ हिंदी का ठाठ बनाया, बोलियों मुहावरों से समृद्ध किया, ज्ञान-विज्ञान के भंडार को विकसित किया, हिंदी पत्रकारिता को पल्लवित पुष्पित किया और नई पीढ़ी का निर्माण किया, जो हिंदी का अजातशत्रु, संत और दधीचि भी कहलाया. हिंदी की निष्काम सेवा करने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय ऐसे ही एक लेखक थे जिनमें महावीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महापंडित राहुल सांकृत्यायन का व्यक्तित्व घुला-मिला था और इन सभी लेखकों से उनका निजी सम्बंध रहा. उनकी रचनाएं छापी, उन पर संस्मरण आदि लिखे. 1912 ई. में आरा नगर के एक हाईस्कूल से शिवपूजन सहाय ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. उसके बाद उन्होंने किसी स्कूल या कॉलेज से किसी प्रकार की विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की.

शिवपूजन सहाय ने महावीर प्रसाद द्विवेदी की तरह हिंदी पत्र और भाषा की निष्काम सेवा की तो जयशंकर प्रसाद की तरह भारतीय संस्कृति को   अपने जीवन में अपनाया. प्रेमचन्द की तरह प्रगतिशील मूल्यों को बनाए रखा तो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की तरह अपने स्वाभिमान की रक्षा की. यही नहीं आजाद भारत में हिंदी की पहली महत्वपूर्ण संस्था का निर्माण किया जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन के कार्यों का विस्तार था.

आचार्य शिवपूजन सहाय ने अपने लेखन को हिंदी सेवा के लिए दांव पर लगा दिया. 1926 में हिंदी का पहला आंचलिक उपन्यास ‘देहाती दुनिया’  लिखने वाले और ‘मुंडमाल’ तथा ‘कहानी का प्लॉट’ जैसी विलक्षण कहानियां लिखने वाले सहाय जी ने अपना जीवन दूसरों की रचनाओं के संपादन संशोधन में लगा दिया.

शिवपूजन सहाय कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बीच एक कड़ी की तरह हैं. इन तीनों के साथ उनका रोज का उठना-बैठना रहा बल्कि उन तीनों की रचनाओं के संपादन संशोधन का भी उन्हें श्रेय जाता है. इतना करने के बाद भी शिवपूजन सहाय ने अपना कभी प्रचार नहीं किया और नहीं ढोल पीटा बल्कि खुद को हमेशा पर्दे के पीछे रखा. इसलिए उनके बारे में भी कहा गया कि वह हिंदी साहित्य की नींव की ईंट थे जो कभी दिखाई नहीं पड़ता. जगदीश चन्द्र माथुर का कहना था शिवपूजन सहाय बीसवीं सदी में हिंदी साहित्य के सबसे बड़े संत थे. उन्होंने 13 पत्रिकाओं, असंख्य ग्रंथों और पुस्तकों का सम्पादन किया. नाट्यमण्डलियों में अभिनय किया, नाटकों की समीक्षा भी लिखी, राजनीतिक लेख लिखे तो व्यंग्य भी लिखे. उन्होंने प्रेमचन्द की तरह गांवों के विकास पर ध्यान दिया.आजादी की लड़ाई में प्रेमचन्द की तरह गांधी जी के आह्वान पर 1921 में सरकारी नौकरी भी छोड़ दी.

आचार्य शिवपूजन सहाय को काजी नज़रुल इस्लाम के साथ 1960 में पद्मभूषण से सम्मानित किया पर आर्थिक अभाव में वह उसे लेने दिल्ली भी नहीं आ सके. उन्हें 1962 में जेपी, रामधारी सिंह दिनकर और राहुल सांकृत्यायन के साथ मानद डीलिट की उपाधि से भी सम्मानित किया गया.

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