पटना में विपक्षी एकता की बैठक संपन्न हो चुकी है। पहली नजर में यह एक सफल बैठक नजर आती है लेकिन इसके कुछ विरोधाभास भी हैं। संभव है कि शिमला में जब विपक्षी एकता की अगली बैठक हो, तो यह विरोधाभास कुछ अधिक नजर आए। क्योंकि पाटलिपुत्र और शिमला के तापमान में सब दिन अंतर रहा है और आज भी यह अंतर बना हुआ है। बैठक के बाद हुई प्रेस कान्फ्रेंस में पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने विपक्षी एकता के लिए अपने निजी महत्वाकांक्षाओं को त्याग करने का आह्वान किया। लेकिन उन्होंने विपक्षी एकता की महत्वपूर्ण धुरी कांग्रेस की भूमिका पर सवाल भी उठाए। उनके हिसाब से पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की भूमिका सही नहीं है। ऐसे में निजी महत्वाकांक्षाओं को त्याग करने का उनका आह्वान कितना सार्थक हो पाएगा यह भी शिमला में होने वाली बैठक में साफ हो जाएगा। वैसे ममता ने यह ठीक ही कहा है कि विपक्षी एकता के लिए निजी महत्वाकांक्षाओं को त्यागना होगा। लेकिन इन महत्वाकांक्षओं को त्यागना भी विपक्षी पार्टियों के लिए इतना आसान नहीं होगा। क्योंकि पटना में प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान ममता जब ये बातें कह रही थीं, तब उसी प्रेस कान्फ्रेंस से विपक्षी एकता की महत्वपूर्ण कड़ी अरविंद केजरीवाल, भगवंत सिंह मान और एमके स्टालिन गायब थे। इससे तो यही साबित होता है कि निजी महत्वाकांक्षाओं का त्याग विपक्षी पार्टियों के नेता इतनी आसानी से कर पाएंगे।
विपक्षी एकता की बैठक में पीडीपी ने कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के मामले में ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल से अपना स्टैंड क्लीयर करने को कहा। जबकि ममता ने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठाए। वहीं अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस से अपना रुख साफ करने को कहा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने क्षेत्रीय नेताओं को राज्यों में नेतृत्व देने की मांग की। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि अगर इन मुद्दों पर बात नहीं बनी तो सभी दल एकजुट होकर 2024 में चुनाव लड़ेंगे कैसे? विपक्षी एकता की बैठक से पहले ‘हम’ के जीतन राम मांझी एनडीए का दामन थाम चुके हैं। हालांकि जीतन राम मांझी के एनडीए में शामिल होने से न तो एनडीए मजबूत हो रहा है और न ही विपक्षियों के वोट बैंक पर इसका कोई असर पड़ता हुआ मुझे नजर आ रहा है। हाँ, लेकिन बिहार के दलित-महादलित समुदाय में एनडीए के प्रति माहौल बनाने में मांझी जरूर कारगर साबित हो सकते हैं। दलितों और महादलितों को लुभाने के लिए भाजपा के मयान में कई तलवारें हैं। जिनमें मांझी और लोजपा के दोनों गुट प्रमुख हैं। भाजपा अगर बिहार में भितरघात की चपेट में नहीं आती है तो दलितों-महादलितों के वोट को अपनी ओर मोड़ने में जरूर कामयाब होगी। क्योंकि सम्राट चौधरी के भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद बाहरी और भीतरी के मुद्दे पर पार्टी कई गुटों में बंटी हुई नजर आ रही है और एक गुट दूसरे गुट को पटखनी देने की हर संभव कोशिशें कर रहा है। बिहार में पिछली बार की तरह शानदार जीत के लिए भाजपा को इस विरोधाभास को दूर करना होगा।
बिहार सत्याग्रह की भूमि रही है। जेपी क्रांति का बिगुल इसी बिहार से फूंका गया जिसने पूरे देश के राजनीतिक इतिहास को प्रभावित किया। ममता बनर्जी ने ठीक ही कहा कि बिहार से जो जनआंदोलन शुरू होता है, वह सफल होता है। चंपारण सत्याग्रह एक जन आंदोलन था। जेपी क्रांति जन आंदोलन था। लेकिन ममता दीदी को यह समझना होगा विपक्षी दलों की यह बैठक जन आंदोलन के लिए नहीं, बल्कि सत्ता प्राप्ति के लिए है। चंपारण सत्याग्रह हो या जेपी क्रांति, यह सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए किया गया जन आंदोलन नहीं था। इसने सामाजिक परिवर्तन लाने का भी काम किया। विपक्षी एकता की बैठक में शामिल होने पटना आए तमाम दिग्गज नेताओं को चंपारण सत्याग्रह और जेपी क्रांति की याद आई। बिहार हमेशा प्रतिरोध की आवाज का एक केंद्र रहा है। सत्ता भले ही बिहार को भूल जाए लेकिन सत्ता विरोधी कभी बिहार को नहीं भूलते। लेकिन विडंबना यही है कि सत्ता विरोधी भी जब सत्ता में शामिल होते हैं तो बिहार को भूल जाते हैं। विपक्षी एकता की बैठक के बाद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने बड़ा कड़वा बयान दिया। उन्होंने कहा कि यह ठग ऑफ गठबंधन है। यह गठबंधन पूरे देश को मूर्ख बनाने का प्रयास कर रहा है। सभी भ्रष्टाचारी हैं। नीतीश कुमार को अपने भ्रष्टाचार का मॉडल दिखाना चाहिए। इन्हें पता नहीं कि पीएम का चेहरा कौन है। सभी के मन में लड्डू फूट रहे हैं। सभी पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। एक-दूसरे को टोपी पहना रहे हैं। सम्राट चौधरी का बयान तभी झूठा साबित हो सकता है जब विपक्षी दल अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं का त्याग कर चुनाव लड़े। ममता दीदी को यह बात भली-भांति पता है कि छोटे-छोटे दलों की बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं विपक्षी एकता के आड़े आ सकती हैं। कुछ महत्वाकांक्षाएं उनकी अपनी भी हैं जिसका त्याग करना बहुत मुश्किल काम है।
प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि हम पुरानी घटनाओं को याद किए बिना आए हैं। मतलब उनके मन में अब कोई शिकायत नहीं है। असल में बिहार में कांग्रेस की ऐसी स्थिति है भी नहीं कि वह किसी के प्रति मन में कोई शिकायत रखे। क्योंकि बिहार में कांग्रेस को अगर कोई सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है तो वह भाजपा नहीं, बल्कि राजद है। और आज कांग्रेस की मजबूरी है कि वह इसी राजद के सहारे बिहार में अपनी नैया पार उतारना चाहती है। ठीक वैसे ही केंद्र में ये दल कांग्रेस के बिना अस्तित्व विहीन हैं। हालांकि बैठक से पहले ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने लालू को यह याद दिलाने की कोशिश की कि कभी राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने ही उन्हें 24 महीनों के लिए जेल भिजवाया था। बैठक में लालू, एमके स्टालिन, अखिलेश यादव और हेमंत सोरेन जैसे दिग्ग्ज नेताओं ने क्षेत्रीय दलों के हिसाब से सीटें तय करने को कहा है। सभी पार्टियों के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाने पर भी चर्चा हुई। यह काम भी इतना आसान नहीं है। इसके लिए भी कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों को नाको चने चबाने होंगे। पश्चिम बंगाल सहित अन्य प्रांतों में क्षेत्रीय दलों के साथ जो कांग्रेस का अंतरविरोध है, उसे दूर करना होगा।
जदयू सहित अन्य छोटे-छोटे दल जो आज नीतीश कुमार को महागठबंधन का संयोजक बनाने पर सहमत हैं, उनके मन में आज भी इस बात के लड्डू फूट रहे हैं कि नीतीश पीएम मेटेरियल हैं। दूसरी ओर कांग्रेस है जो राहुल गांधी के अलावा शायद ही किसी अन्य को पीएम बनाने पर सहमत हो। असल में ममता दीदी जिस महत्वाकांक्षा की बात कर रही हैं, उस महत्वाकांक्षा के शिकार महागठबंधन में शामिल तमाम नेता हैं। चुनाव आने तक लाखा प्रयासों के बावजूद इन महत्वाकांक्षाओं की आपसी टकराहट भी नजर आएगी। क्योंकि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा, वैसे-वैसे ये महत्वाकांक्षाएं भी जोर मारने लगेंगी। ऐसे में संभव है कि कोई पीछे से खंजर भोंके तो कोई सामने से बंदूक ताने।