कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून के मानदंडों के अनुसार सरकारी विद्यालयों में शौचालय सहित बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने में सरकार की निष्क्रियता पर नाराजगी व्यक्त की है। अदालत ने कहा कि इस स्थिति में माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने से झिझकेंगे। मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी. वराले और न्यायमूर्ति एमजेएस कमल की पीठ ने कहा कि उसकी अंतरात्मा विद्यालयों की दुर्दशा से आहत है। अदालत स्कूल छोड़ने वालों के बारे में मीडिया रिपोर्ट के आधार पर स्वत: एक जनहित याचिका (पीआईएल) की सुनवाई की।सरकार की ओर से पेश रिपोर्ट और तस्वीरों की जांच के बाद खंडपीठ ने पाया कि विद्यालयों में शौचालयों की स्थिति काफी दयनीय है और शौचालयों के आसपास का क्षेत्र झाड़ियों से भरा हुआ था।
पीठ ने सवाल किया कि क्या ऐसी रिपोर्ट सौंपने वाले अधिकारियों के घरों में भी ऐसा ही है। उच्च न्यायालय ने पूछा कि यदि विद्यालयों में बुनियादी ज़रूरतें उपलब्ध नहीं होंगी तो किस तरह के समाज के विकास की उम्मीद की जा सकती है। न्यायमूर्ति कमल ने जानना चाहा कि क्या रिपोर्ट दाखिल करने वाले अधिकारी अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेजेंगे। इस बात का संज्ञान लेते हुए कि जनहित याचिका की सुनवाई 2013 से चल रही है, अदालत ने कहा कि जमीन पर कोई बदलाव नहीं हुआ है और वह स्थिति से दुखी है। अदालत ने कहा कि सरकारी विद्यालयों की स्थिति से देश का भविष्य खतरे में था। सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि विद्यालयों में बुनियादी ढांचा सरकारी अनुदान के अनुसार उपलब्ध कराया गया था।
इस दलील से असंतुष्ट पीठ ने कहा कि इस उद्देश्य के लिए शिक्षा का बजटीय आवंटन आरक्षित किया जाना चाहिए और इसे एक समय सीमा के भीतर खर्च करना अनिवार्य होना चाहिए। अदालत ने निर्देश दिया कि अगले तीन महीनों में सरकारी विद्यालयों का एक नया सर्वेक्षण किया जाना चाहिए और जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिवों को इसका हिस्सा होना चाहिए। अदालत ने कहा कि इन दिशानिर्देशों से राज्य के मुख्य सचिव और शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव को भी अवगत कराया जाना चाहिए। इसके साथ ही अदालत ने मामले की सुनवाई स्थगित कर दी।