कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की ताजपोशी तय हो चुकी है। लेकिन अब मध्य प्रदेश में क्या? यह सवाल भाजपा के आत्म-मंथन के लिए आवश्यक है। और कर्नाटक चुनाव से प्रदेश के भाजपाइयों को सबक सीखना चाहिए। क्योंकि सत्ता और पद की अकड़- ठसक छोड़ लूप होल्स सुधारे बिना भाजपा की डगर में मुश्किलें हो सकती हैं। क्योंकि लच्छेदार भाषणों की घुट्टी पिलाने से काम नहीं चलने वाला है। बल्कि भाजपा को जनता की नब्ज भांपनी पड़ेगी। हिमाचल में पुरानी पेंशन के बाद अब कर्नाटक की जीत के साथ— म.प्र. में कांग्रेस पुरानी पेंशन के नाम पर कर्मचारियों को टारगेट कर चल रही है। भाजपा का कोर वोटर माना जाने वाला यह कर्मचारी तबका, साइलेंटली कांग्रेस की ओर शिफ्ट हो सकता है। और इससे भाजपा की सियासी जमीन भी खिसकने के पर्याप्त आसार हैं।
भाजपा को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके नेताओं / मन्त्रियों द्वारा पूरे कार्यकाल मे विचारधारा को फॉर ग्राण्टेड लिया गया और चुनाव नजदीक आते ही विचारधारा की शरणस्थली में जाने से हर चीजें नहीं सुधर सकती हैं। कांग्रेस सरकारों में जहां पूरी प्रशासनिक मशीनरी-कांग्रेस के मॉड्यूल पर चलती है। वहीं भाजपा सरकार में राजधानी से लेकर जिलों तक की प्रशासनिक मशीनरी भाजपा की विचारधारा को अक्सर ठेंगा दिखाती रहती है। और भाजपाई खुशफहमी पाले रहते हैं। लेकिन भाजपाई शायद यह भूल जाते हैं कि भाजपा को यदि किसी ने बनाया है, तो वह उसकी विचारधारा ही है। और जब-जब भाजपा ने विचार धारा को हल्के में लिया है, तब तब उसका दुष्परिणाम उसे भुगतना पड़ा है।
भ्रष्टाचार में आकण्ठ तक डूबे रिश्वतखोर अधिकारी, कर्मचारी और जनप्रतिनिधिगणों पर कहीं लगाम नहीं दिखती है। इन सबके चलते ही जनता परेशान होती है, लेकिन उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती है। और आपके अफसर फाईलों में, आंकड़ों की चिड़िया बैठाकर सब सोने पर सुहागा कर देते हैं। ऑल इज वेल की फाईलें थमा देते हैं। इससे सरकार भी खुश हो जाती है। और अफसर भी खुश हो जाते हैं। लेकिन भाजपा को इस यक्ष प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना पड़ेगा कि क्या अफसरों की कारगुजारियों के आंकड़े सरकार सुरक्षित रखती है?
भाजपा की राज्य सरकारों को यह सोचना पड़ेगा कि हर चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर ही क्यों लड़ा जाए? प्रधानमंत्री मोदी आपको लोकसभा की सौगातें दें और फिर आपके सिर में विधानसभा चुनाव की भी पगड़ी बांधें? क्या राज्य सरकारों को सत्ता की हनक में अपना आत्मावलोकन करने का समय नहीं रहता। क्या आप जमीनी कार्यकर्ताओं से फीडबैक लेना उचित नहीं समझते हैं? और भाजपा संगठन के पदाधिकारियों से लेकर विधायक, सांसद, मन्त्रियों को केवल चमक-दमक में ही डूबे रहना पसंद है? जनता की एक एक मुसीबत एंटी इनकम्बेंसी तैयार करती है। और फिर उसका विस्फोट सीधे ईवीएम में कैद होता है। कर्नाटक का चुनाव बहुत कुछ कह रहा है। अगर भाजपाई सम्हले तो सम्हल जाएंगे... वर्ना कुछ कहा नहीं जा सकता है।
वहीं सरकार की पावर के दम पर विभिन्न जिलों में जुटाई जाने वाली भीड़ कभी भी कोई फायदा नहीं पहुंचाती है। क्योंकि सभाओं में पावर और पैसे से भीड़ का मैनेजमेंट तो अवश्य ही किया जा सकता है, लेकिन उसे वोट में बदल पाना बड़ा मुश्किल होता है। यह तथ्य जितना जल्दी भाजपा दिमाग में बिठा ले, यह उसके लिए उतना ही फायदेमंद हो सकता है। साथ ही पार्टी विथ डिफरेंस का नारा बुलंद करने वाली भाजपा को संगठनात्मक अनुशासन की मजबूती दिखाने में दिलचस्पी दिखानी चाहिए। क्योंकि हर विधानसभा में जितने गली-मुहल्ले, उतने विधानसभा चुनाव के दावेदार तैयार बैठे हैं। जो चुनाव में भाजपा को काफ़ी ज़्यादा डैमेज करने वाले साबित हो सकते हैं।