परियोजनाओं का समय पर पूरा नहीं होना केवल और केवल दो संस्थाओं यानी कि सरकार की एजेंसी व कार्य करने वाली संस्था के बीच का नहीं होता बल्कि इसका सीधा-सीधा असर आम जन पर पड़ता है। परियोजनाओं में देरी होने से लागत बढ़ती है और इस लागत की वसूली आम आदमी की मेहनत को प्रभावित करती है। अधिक देरी होगी तो अधिक लागत बढ़ेगी और फिर उसका ना तो समय पर लाभ मिलना शुरू होगा और ना ही अनुमानित लागत रह पायेगी। देखा जाए तो यह अपने आप में कितनी गंभीर बात हो जाती है कि देश में संचालित बड़ी परियोजनाओं में से 129 परियोजनाएं पांच साल से भी अधिक देरी से चल रही हैं। स्वाभाविक है कि परियोजनाओं में देरी होगी तो उनकी लागत में बढ़ोतरी तो होगी ही। ऐसे में सवाल उठता है कि जब परियोजनाएं तैयार होती हैं और उन्हें मूर्त रूप देने के लिए काम शुरू होता है तो उसी समय यानी कि परियोजना की शुरुआत के समय ही आवश्यक सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएं तो उनके क्रियान्वयन में देरी की संभावना ना के बराबर रहे। इससे यह भी साफ हो जाता है कि परियोजना के क्रियान्वयन के शुरुआती दौर में जो भी आवश्यक पूर्तियां की जानी होती हैं उन्हें अनावश्यक रूप से भविष्य के लिए छोड़ दिया जाता है और यह मान लिया जाता है कि वे औपचारिकताएं समय आने पर पूरी कर ली जाएंगी। पर होता इसके विपरीत है और फिर जहां एक और परियोजनाओं का कार्य प्रभावित होता है वहीं लागत भी बढ़ जाती है।
दरअसल देश में संचालित बड़ी परियोजनाएं खासतौर से 150 करोड़ या इससे अधिक लागत की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की प्रगति की निगरानी सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा की जाती है। मंत्रालय की रिपोर्ट की मानें तो देश में इस समय संचालित आधारभूत संरचना से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं में 1449 परियोजनाओं की रिपोर्ट के अनुसार 821 परियोजनाएं देरी से चल रही हैं। इसका मतलब यह है कि देश में आधी से अधिक परियोजनाएं देरी से चल रही हैं। हालांकि मंत्रालय के अनुसार इनमें से 354 परियोजनाओं की लागत में बढ़ोतरी हो गई है। यदि दो साल से अधिक की देरी से चल रही परियोजनाओं की ही बात करें तो इस तरह की 325 परियोजनाएं हो जाती हैं। यदि सभी 821 परियोजनाओं की औसत देरी निकाली जाए तो औसत 37 माह से कुछ अधिक बैठता है। वहीं केवल 354 परियोजनाओं की देरी से ही लागत में 4 लाख 55 हजार करोड़ रुपए की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। इतनी बड़ी राशि से निश्चित रूप से अन्य बड़ी परियोजनाओं का संचालन किया जा सकता है।
दरअसल देखा जाए तो परियोजनाओं में देरी का प्रमुख कारण आवश्यक औपचारिकताओं का समय पर पूरा नहीं होना होता है। कोई ना कोई स्वीकृति या अनुमति अटक जाती है और उससे परियोजना का काम प्रभावित होने लगता है। मोटे रूप से देखा जाए तो परियोजनाओं की क्रियान्विति के लिए जरूरी स्वीकृतियां व अन्य कार्य समय पर पूरे किए जाने जरूरी हो जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि सरकार के एक विभाग से दूसरे विभाग की स्वीकृति प्राप्त नहीं होने के कारण ही काम रुक जाता है। इसमें भूमि का अधिग्रहण समय पर नहीं होना, भूमिधारक को समय पर मुआवजा नहीं मिलना, मुआवजे को लेकर न्यायिक प्रकरण हो जाना आदि कानूनी समस्याओं के साथ ही पर्यावरण स्वीकृति, परियोजना में आंशिक या भारी बदलाव, टेंडर की प्रक्रिया पूरी करने में अनावश्यक देरी, परियोजना के उपयोग के लिए आवश्यक उपकरणों या संसाधनों के आने में देरी, कई बार स्थानीय प्रशासन या नागरिकों के साथ विवाद, श्रम संसाधन की कमी या समय पर उपलब्धता का अभाव या आवश्यक संसाधन की समय पर अनुपलब्धता के कारण परियोजनाओं के क्रियान्वयन में देरी होती है। अब देखा जाए तो इनमें से अधिकांश कारण ऐसे हैं जिन्हें परियोजना की स्वीकृति के साथ ही पूरा किया जा सकता है। चाहे वह भू उपयोग के परिवर्तन, अधिग्रहण, मुआवजा वितरण आदि का हो या टेंडर की आवश्यक औपचारिकता का हो। इसके साथ ही परियोजना के लिए आवश्यक संसाधन, उपकरण, श्रम शक्ति का आकलन भी पहले से हो सकता है। ऐसे में यदि आवश्यक होमवर्क परियोजना आरंभ होने से पूर्व ही कर लिया जाए तो परियोजना में देरी की संभावना को न्यूनतम स्तर पर लाया जा सकता है।
यह साफ हो जाना चाहिए कि परियोजनाओं में देरी का खामियाजा केवल और केवल परियोजना को ही नहीं भुगतना पड़ता बल्कि समूची व्यवस्था प्रभावित होती है। लागत में बढ़ोतरी होती है वह अलग। ऐसे में पहले ही रोडमैप बनाकर परियोजना का संचालन किया जाता है तो अधिक देरी की संभावना तो शून्य स्तर पर आएगी ही बल्कि समय पर या समय से पहले परियोजना के पूरे होने से लागत में कमी आने की संभवना से भी नहीं नकारा जा सकता है। इसके साथ ही परियोजना समय से पूरी होने से वह अपने उद्देश्य में तो पूरी होती ही है अपितु इसका लाभ मिलना आरंभ हो जाता है। इसके साथ ही नई परियोजनाओं की राह खुलती है। ऐसे में प्रयास यह होने चाहिए कि परियोजनाएं तय समय सीमा में पूरी हों ताकि जन-धन दोनों की ही बचत हो और राष्ट्रीय धन, समय और श्रम का सदुपयोग हो सके।