जैसा कि सबको अंदाजा था, इस्तीफे का दांव खेलने के बाद शरद पवार इस पूरी लड़ाई में एक विजेता की तरह उभर कर सामने आए हैं। वैसे भी पवार के राजनीतिक सफर पर करीब से नजर रखने वाले लोगों को यह मानना रहा है कि पवार शतरंज के गेम की तरह एक साथ कई लक्ष्यों को सामने रखकर अपने प्यादों को आगे बढ़ाने के लिए मशहूर रहे हैं। इसलिए यह माना जा रहा है कि इस्तीफे का दांव खेलकर जहां उन्होंने एक तरफ अपने भतीजे अजित पवार को यह समझा दिया कि एनसीपी के असली बॉस वही हैं, वहीं दूसरी तरफ पार्टी के अंदर बगावत करने की मंशा रखने वाले विधायकों को भी यह बता दिया कि शरद पवार के आशीर्वाद के बिना अगली बार उनका चुनाव जीतना बहुत ही मुश्किल होगा, तो वहीं तीसरी तरफ पार्टी के अंदर और बाहर सबको यह अहसास करा दिया कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले का कद क्या है और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पवार ने महाराष्ट्र के साथ-साथ पूरे देश को यह अच्छी तरह से समझा दिया है कि उम्र के इस पड़ाव में वो आखिरी बार राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा दांव खेलने को तैयार हैं। विपक्षी एकता की कोशिश के लक्ष्य को लेकर पूरे देश में राजनीतिक भ्रमण कर रहे नीतीश कुमार, के. चन्द्रशेखर राव और ममता बनर्जी से लेकर किसी भी कीमत पर मोदी को 2024 में सत्ता से बाहर करने का सपना देखने वाली कांग्रेस तक को शरद पवार ने स्पष्ट तौर पर यह राजनीतिक संदेश दे दिया है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने को तैयार हैं। एक संदेश उन्होंने भाजपा को भी देने का प्रयास किया है कि अगर उनकी पार्टी को महाराष्ट्र में तोड़ने की कोशिश की गई तो इसका अंजाम भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर भुगतना पड़ सकता है।
यह बात बिल्कुल सही है कि कांग्रेस के लिए शरद पवार बहुत जरूरी बनते जा रहे हैं। हाल के दिनों में पवार ने सावरकर के मसले पर न केवल शिवसेना और राहुल गांधी के मतभेदों को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है बल्कि राहुल गांधी को यह समझाने का भी प्रयास किया है कि राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें किन मुद्दों को उठाना चाहिए और किन मुद्दों को छोड़ते हुए आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने के बाद इस बात की राजनीतिक चर्चा कतई नहीं हो रही थी कि क्या शरद पवार को कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन का संयोजक बनाया जा सकता है। अभी तक इस पद के लिए सबसे ज्यादा चर्चा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ही होती रही है और निश्चित तौर पर पवार अपने आपको नजरअंदाज करने से प्रसन्न तो नहीं ही होंगे।
महाराष्ट्र की राजनीति में कई बार बगावत के जरिए अपना राजनीतिक कद बढ़ाने वाले शरद पवार को इस बात का बखूबी अहसास है कि इस बार जो भी नेता यूपीए का संयोजक होगा, उसकी दावेदारी देश के सर्वोच्च पद यानी प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे ज्यादा होगी। क्योंकि इस बार जो यूपीए गठबंधन बनेगा अथवा मोदी विरोधी जो मोर्चा तैयार होगा, उसमें शायद पहली बार कांग्रेस नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रीय दल महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के नेता या तो अपने-अपने राज्यों में मुख्यमंत्री हैं या फिर मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं क्योंकि पार्टी में अभी तक उनका कोई उत्तराधिकारी तैयार नहीं हुआ है। इस रेस में फिलहाल सबसे आगे नजर आने वाले नीतीश कुमार पर सभी विरोधी दल आंख मूंद कर भरोसा करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में अगर कांग्रेस खासकर गांधी परिवार जिसके साथ खड़ा नजर आएगा, उसका दावा सबसे मजबूत होगा।
पवार को सोनिया गांधी के साथ-साथ उद्धव ठाकरे से भी बहुत उम्मीदें हैं। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि अगर भविष्य में किसी मराठी नेता के प्रधानमंत्री बनने की संभावना बनती है तो शिवसेना पूरी तरह से उनके साथ खड़ी नजर आएगी और महाराष्ट्र से कांग्रेस के सांसद भी उनका समर्थन करेंगे इसलिए वो राजनीति के इतने महत्वपूर्ण पड़ाव पर अपने भतीजे अजित पवार को पार्टी तोड़ने की अनुमति तो कतई नहीं दे सकते हैं।
एनसीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से दिया गया अपना इस्तीफा वापस लेने के बाद शरद पवार जिस अंदाज में घोषणाएं कर रहे हैं, उससे भी यह अंदाज हो जाता है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि वह भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को एक साथ लाने में भूमिका निभाएंगे। अगले वर्ष, 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष का एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी तैयार करने की कोशिश करेंगे। उन्होंने कहा कि अगले 10-11 महीनों में कई जगहों पर चुनाव होंगे। नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, के. चंद्रशेखर राव और ममता बनर्जी जैसे नेता विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। मैं न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाकर विपक्ष को साथ लाने में हिस्सा लूंगा। इशारों-इशारों में भविष्य की अपनी महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका का संकेत देते हुए पवार ने यह भी कहा कि महाराष्ट्र और देश भर के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनसे एनसीपी का पार्टी अध्यक्ष बने रहने का अनुरोध किया था।
शरद पवार इस देश के सबसे बड़े पद यानी प्रधानमंत्री पद पर बैठना चाहते हैं, इस बात से उन्होंने कभी इंकार भी नहीं किया। 1991 में जब कांग्रेस ने नरसिम्हा राव को अपना प्रधानमंत्री चुना था, उस समय भी पवार इस पद के लिए दावेदारों में से एक थे। राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद पवार केंद्र सरकार में मंत्री बने लेकिन उन्होंने अपनी कोशिशें जारी रखीं। यह कहा जाता है कि उनके राजनीतिक दांवों से परेशान होकर ही उस समय राव ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर महाराष्ट्र वापस भेज दिया था। वर्ष 1999 में कांग्रेस के अंदर रहकर पवार ने उस समय सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा भी इसलिए यह उठाया था क्योंकि उन्हें उस समय यह लगता था कि इस मुद्दे पर कांग्रेस के ज्यादातर नेता उनके साथ खड़े होंगे लेकिन आगे चलकर उन्हें जैसे ही लगा कि वह अलग-थलग पड़ गए हैं तो तुरंत ही एनसीपी नेता के तौर पर उन्होंने महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया। उसके बाद महाराष्ट्र में पहले कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन और बाद में कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना गठबंधन की सरकार बनवाई। इसलिए यह माना जा रहा है कि अपने राजनीतिक दांव-पेंच के लिए मशहूर रहे शरद पवार ने अभी अपने तरकश में कई तीर छुपा कर रखे हैं जिनका प्रयोग वह आने वाले दिनों में कर सकते हैं।