Bihar: नीतीश कुमार का ड्रीम प्रोजेक्ट था जाति आधारित गणना, कोर्ट की रोक से गर्माई बिहार की सियासत

Bihar: नीतीश कुमार का ड्रीम प्रोजेक्ट था जाति आधारित गणना, कोर्ट की रोक से गर्माई बिहार की सियासत

बिहार में चल रही जातीय जनगणना पर पटना हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है। कोर्ट ने साफ कहा है कि जनगणना कराने का काम केंद्र सरकार का है, राज्य सरकार का नहीं। ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठता है कि जातीय जनगणना के नाम पर बिहार सरकार अभी तक समय, श्रम आ और संसाधन का दुरुपयोग कर रही थी? क्या सरकार कोई भी फैसला लेने से पहले राज्य के कानून विशेषज्ञों से राय-मश्विरा नहीं लेती। अगर सचमुच बिहार सरकार ने ऐसा किया होता तो समय, श्रम और संसाधन का दुरुपयोग नहीं हुआ होता। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि राज्य सरकार के फैसले पर होईकोर्ट ने रोक लगा दी हो। इससे पहले भी इस तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं। निकाय चुनाव के दौरान भी किच-किच हुई। राज्य निर्वाचन आयोग ने चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी। मैदान में पहले से ताल ठोक रहे उम्मीदवारों ने ताबड़तोड़ नामांकन करबाए और धुआंधार प्रचार शुरू हुआ। चुनाव में दो दिन ही बाकी थे कि हाईकोर्ट ने चुनाव पर रोक लगा दी। यहां भी समय, श्रम और संसाधन का खूब दुरुपयोग हुआ। चूंकि हाईकोर्ट ने चुनाव पर रोक लगा दी तो उम्मीदवारों का नामांकन भी स्वत: रद्द हो गया। चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाने वाले उम्मीदवारों के पैरों तले की जमीन खिसक गई। बिहार में अभी भी कुछ जगहों पर निकाय चुनाव होना बाकी है। मामला अदालत में उलझा हुआ है।

मुझे लगता है कि इस मामले में सरकार ने अगर कानून विशेषज्ञों का सहारा लिया होता तो ऐसी फजीहत नहीं होती। यह गणना बिहार ही नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति के लिए भी जरूरी मानी जा रही है। यह इतना ही जरूरी मुद्दा है कि विधानसभा में जब इस विधेयक को लाया गया तो इसका सर्वसम्मति से समर्थन किया गया। पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं ने इसका दिल खोलकर स्वागत किया। हालांकि इस मामले में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के विचारों में अंतरविरोध दिखा। एक तरफ केंद्र की भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया कि केंद्र जाति आधारित जनगणना नहीं कराएगा तो दूसरी तरफ बिहार में भाजपा जतीय जनगणना के पक्ष में विरोधी नेताओं के सुर में सुर मिलाती रही। बिहार भाजपा आज भी जातीय गणना के समर्थन में है और बिहार सरकार पर होईकोर्ट में अपना पक्ष ठीक से नहीं रखने का आरोप लगाया है। हालांकि अन्य दलों ने भी सरकार पर विफलता का ठप्पा लगाने की कोशिश की है। सभी दल जातीय गणना से हासिल होने वाले आंकड़ों की आंच में अपनी-अपनी रोटी सेंकने का सपना संजो रहे हैं। इन आंकड़ों से समाज के शोषितों-वंचितों का कितना भला होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में बिहार में अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति जोर पकड़ेगी। मंडल-कमंडल का भी डंका बजेगा।

हालांकि इस पर अभी अंतिम फैसला नहीं आया है। इसे अंतरिम रोक बताया गया है। अगली सुनवाई तीन जुलाई को होगी। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि तीन जुलाई को इस मामले में हाईकोर्ट की ओर से क्या प्रतिक्रिया आती है। लेकिन चार मई को जातीय गणना पर अंतरिम रोक लगाते हुए हाईकोर्ट ने जो प्रतिक्रया दी, वह काफी गंभीर थी। हाईकोर्ट ने कहा कि प्रथम दृष्टया हमारी राय है कि राज्य के पास जाति आधारित सर्वेक्षण कराने की कोई शक्ति नहीं है। जिस तरह से यह किया जा रहा है, वह एक जनगणना के समान है। ऐसा करना संघ की विधायी शक्ति पर अतिक्रमण होगा। जाति आधारित गणना के दौरान बिहार सरकार ने चालाकी से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की। सरकार ने इसे जातीण जनगणना नहीं कहा, बल्कि इसका नाम जाति आधारित गणना दिया गया। कोर्ट को यह बताया कि यह जाति आधारित सर्वेक्षण है। लोगों ने वही समझा जो सरकार समझाना चाहती थी। हाईकोर्ट में सरकार की यह चालाकी पकड़ी गई। विभिन्न संस्थाओं और कुछ व्यक्तियों द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि राज्य एक सर्वेक्षण की आड़ में एक जातिगत जनगणना करने का प्रयास नहीं कर सकता। खासकर जब राज्य के पास बिल्कुल विधायी क्षमता नहीं है और उस स्थिति में न ही भारत के संविधान की धारा 162 के तहत एक कार्यकारी आदेश को बनाए रखा जा सकता है। अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में हाईकोर्ट ने सर्वेक्षण और जनगणना के बीच के अंतर को भी बिल्कुल साफ शब्दों में रेखांकित किया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि जनगणना सटीक तथ्यों और सत्यापन योग्य विवरणों के संग्रह पर विचार करता है। जबकि सर्वेक्षण का उद्देश्य आम जनता की राय और धारणाओं का संग्रह और उनका विश्लेषण करना है। सर्वेक्षण में ज्यादातर तार्किक निष्कर्ष होते हैं। राज्य द्वारा वर्तमान कवायद को केवल सर्वेक्षण के नाम पर जनगणना करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा है कि सर्वसम्मति इसे सदन से पास किया गया था। इसमें सबकी गिनती के साथ-साथ आर्थिक स्थिति का भी पता लगाया जाना है, चाहे वह किसी भी जाति का हो वा किसी भी समुदाय का। उन्होंने कहा है कि हम लोग सबके हित में यह काम कर रहे हैं। पता नहीं क्यों इसका विरोध हो रहा है। इससे तो पता चलता है कि लोगों को मौलिक चीजों की समझ नहीं है।

दूसरी ओर बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस मामले में भाजपा से चिढ़े हुए हैं और अभी भी आशान्वित हैं। उनका कहना है कि आज न कल जातिगत गणना जरूर होगी। वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने इस मामले में सरकार की मंशा पर ही सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार जाति आधारित गणना करवाना ही नहीं चाहती थी। जिस कारण जानबूझकर ऐसा करवाया गया। सरकार ने अदालत में अपना पक्ष सही ढंग से नहीं रखा। दूसरी ओर कांग्रेस और माले सहित अन्य दलों ने भी सरकार को अदालत में अपना पक्ष मजबूती से रखने की सलाह दी है। मतलब साफ है कि जदयू और राजद छोड़कर सभी दल यह मानते हैं कि अदालत में सरकार ने अपना पक्ष ठीक से नहीं रखा। लेकिन ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठता है कि यह गणना अगर इतनी ही जरूरी थी तो उन लोगों ने इस मामले में सरकार का सहयोग क्यों नहीं किया? क्या वे इसी दिन का इंतजार कर रहे थे कि कोर्ट में सरकार की फजीहत हो और वे चुटकी ले सकें?

फिलहाल सवाल यह भी है कि अगर अंतिम रूप से इस पर रोक लग जाती है तो इस मामले में अभी तक जो समय, श्रम और संसाधन का दुरुपयोग हुआ है, उसकी जवाबदेही कौन लेगा? बिहार की सत्ता की बागडोर लंबे दिनों से उन्हीं लोगों के हाथ में है जिन लोगों ने समाजवाद का दामन पकड़कर अपना राजनीतिक चेहरा चमकाया था। लालू हों या नीतीश सबकी पहचान समाजवाद से जुड़ी है लेकिन उनके यहाँ, उनकी पार्टियों में समाजवाद की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। असल में उनकी पार्टियों में अब समाजवाद नहीं, सामंतवाद का बोलबाला है। अगर उनके यहां समाजवाद होता तो आज राजद की बागडोर तेजस्वी के हाथों में नहीं होती। माय समकीरण की बात करने वाले लालू अपनी पार्टी से ऐसा कोई चेहरा निकालकर लाते जो उनकी जगह ले पाता लेकिन समाजवाद की बात करने वाले लालू भी पुत्र-मोह में फंस गए और समाजवाद के विपरीत उन्होंने पार्टी में वंशवाद को बढ़ावा दिया। बिहार के अन्य क्षेत्रीय दलों का भी यही हाल है। जदयू में वंशवाद नहीं है लेकिन यह पार्टी भी व्यक्ति केंद्रित पार्टी बनती जा रही है। पिछड़ों की राजनीति करने वाले इन चेहरों ने अगर सचमुच में पिछड़ों के विकास के लिए काम किया होता तो आज पिछड़ों की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नजर आता। तब शायद आज जाति आधारित गणना करवाने की नौबत नहीं आती। हँ, पिछड़ों को वोट बैंक बनाने में जरूर इन्होंने कामयाबी हासिल की। फिलहाल हमें तीन जुलाई का इंतजार करना चाहिए। इस मामले में हाईकोर्ट का जो भी निर्णय होगा, बिहार के हित में होगा।


 svy0ny
yhfee@chitthi.in, 10 June 2023

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