पोन्नियिन सेलवन 1 की भारी सफलता के बाद मणिरत्नम के निर्देशन में बनी फिल्म पीएस 2 28 अप्रैल को सिनेमाघरों में आने वाली है। पोन्नियिन सेलवन के निर्माताओं ने अब पीरियोडिक मूवी का एक महत्वपूर्ण वीडियो भी जारी किया है। पहले भाग के लिए एंट्री वॉयस देने वाले कमल हासनने अगली कड़ी के लिए भी ऐसा ही किया। उन्होंने कहा है कि सीक्वल इस बात पर ध्यान केंद्रित करेगा कि कैसे पांड्या आदित्य करिकलन (चियान विक्रम) से बदला लेते हैं और कैसे अरुणमोझी वर्मन (जयम रवि) चोल साम्राज्य पर शासन करने की शपथ लेते हैं। पहला भाग पोन्नियन सेलवन 1955 में कल्कि कृष्णमूर्ति द्वारा इसी नाम से लिखे गए उपन्यास पोन्नियिन सेल्वन पर आधारित थी। चोल सम्राट सुंदर चोल अस्वस्थ रहते हैं। उनका बड़ा बेटा आदित्य करिकलन राष्ट्रकूटों से मुकाबला करता नजर आता है। जबकि छोटे बेटे अरुलमोरीवर्मन सिंहल द्वीप (श्रीलंका) पर युद्ध लड़ता दिखाया जाता है। वहीं राजा की बेटी राजकुमारी कुंधवई पिता के साथ राज्य के षडयंत्रों से निपटने में जुटी नजर आती है।
हम हमेशा से जानते हैं कि भारत विविधताओं से भरी संस्कृति का देश रहा है। यहां कई सभ्यताऔर संस्कृति का विकास हुआ और नष्ट भी हो गए। मौर्य, गुप्त, मुगल लेकिन इनके अलावा कुछ और भी गौरवशाली साम्राज्य की कहानियां कहीं दब के रह गयीं। दक्षिण भारत में छठी और सातवीं सदी के बीच बहुत ही शक्तिशाली साम्राज्य का उदय हुआ। उनमें सबसे महत्वपूर्ण पल्लव और पंड्या आते हैं, जो आधुनिक तमिलनाडु पर राज करते थे। आधुनिक केरल में चेर थे और चालुक्य महाराष्ट्र या दक्कन पर राज करते थे। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने ही हर्ष को हराया था और उसे दक्कन की और अपने राज्य का प्रसार नहीं करने दिया था। इनमें पल्लव और पंड्या जैसे शासकों के पास शक्तिशाली नौसेना थी। उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों और चीन के साथ आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी शक्तिशाली नौसेना के बल पर उन्होंने श्रीलंका पर आक्रमण कर दिया। उसके कुछ भागों पर कुछ समय तक शासन भी किया।
चोल वंश के गौरव, भगवान शिव के परम भक्त महावीर महाराज राजराज प्रथम। आज हम आपको इतिहास के उस पिछले हिस्से की यात्रा करवाएंगे जिसके नक्षत्र और तारों पर महाराज राजराज प्रथम और उनके यशस्वी पुत्र राजेंद्र राज्य प्रथम की गौरव गाथाएं अंकित हैं। हमने इस कहानी को दो भागों में विभाजित किया है। पहले भाग में आपको बताएंगे कि कब और कैसे शुरु होता है चोलों का युग।
कब और कैसे शुरु हुआ चोलों का युग
कुछ शताब्दियों तक मुख्य राजनीति से ओझल होने के बाद 850 ई0 में विजयालय नाम के शासक ने चोलों को फिर से महत्वपूर्ण बना दिया, जो अबतक पल्लवों के सामंत बनकर शासन कर रहे थे(पल्लव राजवँश संगमयुग के बाद तीसरी सदी ई0 से ही तमिल क्षेत्र के सबसे बड़े शासक बन चुके थे)। विजयालय का नाती परांतक प्रथम ने पाण्ड्य शासन के मदुरा को जीतकर दक्षिण भारत का सिरमौर शासक बन गया। पल्लवों का शासन भी अंतिम रूप से खत्म कर दिया। फिर भी अभी दक्कन वाले महाराष्ट्र में राष्ट्रकूट और मैसूर में गंग शासकों का बोलबाला बना रहा। फिर कुछ दशकों में आता है चोल राजा राजराज महान, सबसे शक्तिशाली चोल राजा जिसने लंका विजय शुरू किया, लंका में चोल राज्य बनाया, मालदीव को भी जीता। नौसेना के वर्चस्व का एक नया युग चल पड़ा, जिसमें सबसे भारी थे चोल। इसने राष्ट्रकूटों, गंगो और पश्चिमी तट और आंध्रा के चालुक्यों को भी हराया। उपाधि थी:- चोल मार्तण्ड, चोलेन्द्रसिंह।
कैसे हुआ विस्तार
चोल साम्राज्य वर्तमान तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। चोलों के उत्थान और पतन (लगभग 9वीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी) की अवधि के दौरान देखने को मिला। इस क्षेत्र के अन्य शक्तिशाली राजवंश भी आए और गए, जैसे दक्खन के राष्ट्रकूट जिन्होंने चोलों को हराया और आंध्र प्रदेश के चालुक्य जिस क्षेत्र में चोलों ने अक्सर लड़ाई की थी। राजवंश की स्थापना राजा विजयालय ने की थी, जिसे इतिहासकार सतीश चंद्र ने द हिस्ट्री ऑफ मिडिवल एरा पुस्तक में पल्लवों के सामंत के रूप में वर्णित किया है। दिग्गजों के बीच इस क्षेत्र में एक अपेक्षाकृत मामूली खिलाड़ी होने के बावजूद, विजयालय ने एक ऐसे राजवंश की नींव रखी जिसने दक्षिण भारत के एक बड़े हिस्से पर शासन किया।
चोलों के अधीन समाज
चोल वंश की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक इसकी नौसैनिक शक्ति थी, जिसने उन्हें अपनी विजय में मलेशिया और इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीपों तक जाने की अनुमति दी। चंद्र लिखते हैं कि प्रभुत्व ऐसा था कि कुछ समय के लिए बंगाल की खाड़ी को चोल झील में बदल दिया गया था। उन्होंने कहा कि चोलों के व्यापारी समूहों के साथ मजबूत संबंध थे और इससे उन्हें प्रभावशाली नौसैनिक अभियान चलाने की अनुमति मिली। इतिहासकार अनिरुद्ध कनिसेटी का कहना है कि 9वीं से 10वीं शताब्दी तक की अवधि एक हिंसक समय था, जहां राज्य अक्सर एक-दूसरे के साथ युद्ध करते थे। उत्तराधिकार युद्ध स्वाभाविक थे, और यह पीएसआई का फोकस है, जो राष्ट्रकूटों द्वारा चोलों को पराजित करने के बाद के समय में सेट किया गया है। कनिसेटी ने कहा, मंथन के बाद की अवधि थी, लेकिन इसके साथ सांस्कृतिक परिष्कार भी था।
कला और साहित्य का विकास
राजराजा चोल के शासनकाल में दक्षिण भारत में कला और साहित्य का विकास हुआ। तमिल कवियों अप्पार, सांबंदर और सुंदरार के प्रसिद्ध कार्यों को संकलित किया गया और थिरुमुराई नामक एक संकलन में मिला दिया गया। राजराजन चोल के पास एक समर्पित सेना थी, जबकि उससे पहले के अन्य शासकों के पास एक नहीं थी। यहीं कारण था कि जब भी आवश्यकता होती थी, वे एक सेना इकट्ठा कर लेते थे।