नीतीश कुमार या राहुल गांधी, अखिलेश यादव को परहेज किस से

नीतीश कुमार या राहुल गांधी, अखिलेश यादव को परहेज किस से

नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की मुहिम में समाजवादी पार्टी की भूमिका को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं. नीतीश कुमार तीन दिन दिल्ली में रहकर कई नेताओं से मिलने वाले हैं, जिनमें अखिलेश यादव का नाम भी शामिल है. वैसे अखिलेश राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस और बीजेपी के साथ समान दूरी रखने की घोषणा पहले कर चुके हैं. ऐसे में उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की ताकत को धार दे पाना धरातल पर कारगर साबित नहीं होगा, जबतक अखिलेश यादव इस मुहिम का हिस्सा नहीं बनेंगे.

दरअसल अखिलेश यादव साल 2017 में कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव में उतरकर एक दांव आजमा चुके हैं. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की वजह से समाजवादी पार्टी बड़े नुकसान में रही थी. समाजवादी पार्टी पिछले महीने अधिवेशन में साफ कर चुकी है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी उन सीटों को जीतने में कैसे सफल होगी, जहां कभी वो पहले जीतने में कामयाब रही है. समाजवादी पार्टी की योजना 80 लोकसभा सीटों में से 50 सीटें जीतने की है. इसलिए समाजवादी पार्टी को छोटे दलों से सूबे में गठबंधन करना लाभकारी दिख रहा है.

समाजवादी पार्टी छोटी-छोटी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ समझौता करने की पक्षधर है, जो वोट की संख्या में इजाफा कर जीत को सुनिश्चित कर सके. ये प्रयोग बीजेपी साल 2022 में कर चुकी है. इसलिए समाजवादी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करना मुफीद नहीं दिखाई पड़ता है. दरअसल कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी कांग्रेस के पुराने गढ़ कहे जाने वाले अमेठी लोकसभा से साल 2019 का चुनाव हार चुके हैं. इसलिए कांग्रेस यूपी में अपना वजूद बचाने को लेकर भी संघर्ष करती दिख रही है.

राहुल गांधी और कांग्रेस से दूरी रखने की क्या है वजह

सीबीआई और ईडी के मुद्दे पर अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव के बयान भी चौंकाने वाले रहे हैं. हाल में बीजेपी द्वारा सीबीआई और ईडी के बेजा इस्तेमाल को लेकर समाजवादी पार्टी, कांग्रेस को भी घेर चुकी है. अखिलेश यादव कह चुके हैं कि कांग्रेस भी सत्ता में सीबीआई और ईडी का बेजा इस्तेमाल करती थी जैसे बीजेपी कर रही है.

अखिलेश यादव यहीं नहीं रुके. अखिलेश यादव तक राहुल गांधी के साथ गठबंधन को लेकर होने वाली दिक्कतों की ओर भी इशारा कर चुके हैं. अखिलेश यादव कह चुके हैं कि राहुल गांधी को सलाह देना उनके लिए संभव नहीं है, जबकि राहुल गांधी के साथ वो यूपी में गठबंधन कर काम करने का असफल प्रयास कर चुके हैं. अखिलेश यादव बीजेपी की ग्रोथ की वजह भी कांग्रेस पार्टी को ही मानते हैं. अखिलेश यादव कह चुके हैं कि कांग्रेस अगर कमजोर नहीं होती तो बीजेपी की ग्रोथ संभव नहीं थी.

जाहिर है अखिलेश समझ चुके हैं लोहियावाद की राजनीति से प्रेरणा लेने वाली समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाना हानिकारक होगा. इसलिए बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी की बात कह अखिलेश यादव पिछले महीने कोलकाता में अपने इरादे साफ कर चुके हैं. लेकिन राहुल गांधी की सदस्यता जाने के बाद तमाम सियासी पार्टियों की गोलबंदी देखी गई है, जिनमें टीएमसी के साथ-साथ सपा भी कांग्रेस के साथ नजर आई है. इसलिए नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की कांग्रेस नेताओं के साथ मुलाकात के बाद विपक्षी एकता की मजबूती के लिए उठाए गए कदम में अखिलेश भी शामिल होंगे, ऐसी उम्मीदें कई सियासी नेताओं को होने लगी है.

नीतीश-तेजस्वी की बात मानेंगे अखिलेश?

यूपी की राजनीति बिहार और झारखंड से अलग है. यहां अखिलेश की रणनीति जाति जनगणना को लेकर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव से मिलती है, लेकिन सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा लेकर बीजेपी को पटखनी देने की सोचना बिहार की राजनीति से अलग राजनीति का परिचायक है. अखिलेश यादव के लिए बड़ी चुनौती प्रदेश में उन जातियों को साथ लाना है, जो यादववाद की राजनीति के विरोध में गोलबंद होते हैं. जाहिर है ओबीसी समाज में ऐसी तादाद को साथ रखने के लिए अखिलेश सॉफ्ट हिंदुत्व और जाति जनगणना को एक साथ लेकर आगे बढ़ना चाह रहे हैं.

इस कड़ी में दलित वोट को साधना भी अखिलेश यादव के लिए जरूरी हो गया है. इसलिए दलित आइकन को सम्मानित करने की बात समाजवादी पार्टी नए प्रयोग के तौर पर करने लगी है. दरअसल नए प्रयोग के पीछे डिंपल यादव की मैनपूरी में जीत है. मैनपूरी मॉडल के आधार पर पूरे सूबे में समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ने को लेकर योजना बनाने में जुट गई है. ऐसे में नीतीश कुमार और तेजस्वी की पहल पर अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ आने को तैयार होंगे इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ रही है.

ममता और केसीआर जैसे नेताओं पर क्यों है भरोसा?

दरअसल बिहार और झारखंड में कांग्रेस पार्टी राज्य सरकार में शामिल है, लेकिन बंगाल और तेलंगाना समेत ओडिशा में कांग्रेस उन सत्ताधारी दलों के विरोध में है, जो बीजेपी के खिलाफ लड़ रहे हैं. इसलिए इन राज्यों के नेता ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक के साथ अखिलेश यादव का जाना स्वाभाविक है और राजनीतिक तौर पर समाजवादी पार्टी को सूट करता है. यही वजह है कि कांग्रेस की राजनीति बिहार और झारखंड में बीजेपी विरोधी दल के साथ मिलकर मजबूत होती है, लेकिन यूपी समेत, ओडिशा, तेलांगना, बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के सत्ताधारी दलों और मुख्य विपक्षी पार्टी के साथ असहज दिखाई पड़ती है.

नीतीश कुमार को विशेष तौर पर उन राजनीतिक दलों को साधने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, जो कांग्रेस के साथ रिश्ते को लेकर असहज हैं और बीजेपी विरोध की राजनीति करते हैं. नीतीश कुमार के लिए असली चुनौती वाईएसआर, केसीआर, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव को साधना ही है. जाहिर है कांग्रेस से हरी झंडी मिलने के बाद नीतीश कुमार का ये प्रयास तेज हो गया है, लेकिन इस प्रयास में अभी तक समाजवादी पार्टी का रुख उदासीन दिख रहा है.

नीतीश के बेहद करीबी नेता संजय झा जो कांग्रेस के साथ वार्ता का हिस्सा रहे हैं, कहते हैं कि विपक्षी नेताओं को गोलबंद करने का प्रयास तेज हो गया है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा दलों को शामिल करने का लक्ष्य है. संजय झा आगे कहते हैं कि अगर कोई दल कांग्रेस विरोध के चलते चुनाव से पहले शामिल नहीं होता है, तो चुनाव के बाद भी वो विपक्षी एकता में शामिल हो सकता है.


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yhfee@chitthi.in, 10 June 2023

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