कांग्रेस ने अपने पार्टी संगठन में नई जान फूंकने और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने के इरादे से भारत जोड़ो यात्रा निकाली लेकिन दोनों ही उद्देश्यों को हासिल करने में वह विफल रही। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को राहुल गांधी ने विदेशों में विवादित बयान देकर खुद नुकसान पहुँचाया तो कांग्रेस का बचा खुचा आधार खत्म करने में खुद कांग्रेसी जीतोड़ प्रयास कर रहे हैं। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वाली पार्टी आजादी के अमृत काल में कितनी विभाजित हो गयी है यह कांग्रेस की राज्य इकाइयों के अंदरूनी संघर्ष को देखते हुए समझा जा सकता है। यही नहीं, अपने गठबंधन साथियों को भी एकजुट रखने में कांग्रेस सफल नहीं हो पा रही है जिससे प्रश्न उठता है कि क्या इसी तरह से देश की सबसे पुरानी पार्टी भाजपा और मोदी सरकार को चुनौती दे पायेगी? कर्नाटक में इस समय विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया चल रही है और इसी साल के अंत में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव होने हैं। लेकिन इन तीनों ही राज्यों में पार्टी के नेता ही उसकी चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुँचाने में जुटे हैं।
राजस्थान
बात राजस्थान की करें तो वहां पूर्व उपमुख्यमंत्री और लंबे समय से मुख्यमंत्री पद की चाहत मन में लेकर घूम रहे सचिन पायलट अब आर पार के मूड़ में आ गये हैं। हाल ही में उन्होंने पेपर लीक मामले और पुलवामा शहीदों की विधवाओं के धरने प्रदर्शन के मुद्दे पर अशोक गहलोत की सरकार को घेरा था। अब सचिन पायलट ने राज्य विधानसभा चुनाव से पहले गहलोत सरकार के खिलाफ नया मोर्चा खोलते हुए ऐलान किया है कि वह राज्य की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में कथित तौर पर हुए ‘भ्रष्टाचार’ पर कार्रवाई की मांग को लेकर 11 अप्रैल को जयपुर में शहीद स्मारक पर एक दिन का अनशन करेंगे। उनका आरोप है कि उन्होंने भ्रष्टाचार मामलों की जांच के लिए मुख्यमंत्री को जो पत्र लिखे थे उस पर कार्रवाई नहीं हुई। इस धरने पर मुख्यमंत्री ने फिलहाल तो कुछ नहीं कहा है लेकिन एक समय सचिन पायलट को निकम्मा बता चुके अशोक गहलोत तगड़ा पलटवार करने की तैयारी में हैं और इस काम में उन्हें पार्टी का समर्थन भी मिल रहा है। सचिन पायलट के मुख्यमंत्री पर आरोपों से जिस तरह कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने किनारा किया है वह दर्शा रहा है कि गहलोत वाकई राजनीति के जादूगर हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा है कि यह कहना ठीक नहीं है कि राजस्थान की पूर्ववर्ती भारतीय जनता पार्टी सरकार से जुड़े घोटालों की जांच नहीं हो रही है। वहीं राजस्थान के कांग्रेस प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा ने कहा है कि सचिन पायलट का इस तरीके से संवाददाता सम्मेलन करना उचित नहीं है और उन्हें पहले उनके समक्ष इस मुद्दे को उठाना चाहिए था। इसके अलावा, सचिन पायलट के हमले के बाद कांग्रेस ने गहलोत का समर्थन करते हुए कहा है कि राज्य सरकार शासन के मामले में प्रदेश को नेतृत्व की स्थिति में लायी है और वह अपनी उपलब्धियों के बल पर जनता से दोबारा जनादेश मांगेगी और साथ ही संगठन सामूहिक रूप से इसके लिए प्रयास करेगा।
छत्तीसगढ़
हम आपको यह भी बता दें कि इसी प्रकार के हालात छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिल रहे हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के प्रतिद्वंद्वी और राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री टीएस सिंहदेव ने आरोप लगाया है कि उन्हें अलग-थलग किया जा रहा है। हालांकि अभी पिछले सप्ताह ही उनकी दिल्ली में पार्टी आलाकमान से मुलाकात हुई है और उन्हें भूपेश बघेल के नेतृत्व में काम करते रहने के लिए मनाया गया है। लेकिन देखना होगा कि वह कब तक चुप रहते हैं। हम आपको याद दिला दें कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और मंत्री टीएस सिंहदेव पूर्व में अपने समर्थक विधायकों की दिल्ली में आलाकमान के समक्ष परेड करवा कर अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं।
कर्नाटक
जहां तक चुनावी राज्य कर्नाटक की बात है तो वहां कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद पाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच जंग चल रही है। सिद्धारमैया इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बताते हुए मुख्यमंत्री पद पाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं तो वहीं डीके शिवकुमार के बारे में बताया जा रहा है कि उन्होंने दिल्ली में लॉबिंग करने वाले लोगों को अपने लिये काम पर लगा दिया है और मीडिया के एक वर्ग को भी अपने साथ मिला लिया है। हाल ही में सिद्धारमैया ने कहा भी था कि यदि कांग्रेस चुनाव जीती तो कर्नाटक का मुख्यमंत्री उन्हें ही बनायेगी। इस बयान पर विवाद हुआ तो सिद्धारमैया ने कह दिया कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया लेकिन इस बयान से वह सच सामने आ ही गया जिसको दबाने का कांग्रेस भरसक प्रयास कर रही थी। सिद्धारमैया के बयान से खिन्नाये डीके शिवकुमार ने अब नया पैंतरा चलते हुए कह दिया है कि अगर विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनते हैं तो वह उनके अधीन काम करने के लिए तैयार हैं। यह कह कर उन्होंने एक तरह से दर्शा दिया है कि सिद्धारमैया का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है।
अन्य राज्यों के हालात
कांग्रेस की राज्य इकाइयों में ऐसा ही घमासान पंजाब में देखने को मिला था जब चुनावी वर्ष में तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और तत्कालीन पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू आपस में भिड़ गये थे। नतीजा यह हुआ कि दोनों ही नेता अपना चुनाव तो हारे ही साथ ही कांग्रेस का पूरी तरह सफाया भी करा दिया। ऐसे ही हालात मध्य प्रदेश में देखने को मिले थे जब मुख्यमंत्री पद की लड़ाई में कमल नाथ से हारे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा का दामन थाम कर कमल नाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को गिरा दिया था। कुछ इसी प्रकार के हालात महाराष्ट्र में भी देखने को मिल रहे हैं जहां पूर्व कैबिनेट मंत्री बाला साहेब थोराट ने पार्टी आलाकमान को पत्र लिख कर महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले की शिकायत की और उनके नेतृत्व में काम करने से इंकार कर दिया है। ठीक ऐसे ही हालात केरल में विधानसभा चुनावों के समय देखने को मिले थे जब मुख्यमंत्री पद की लड़ाई में कांग्रेस नेता आपस में ही ऐसे भिड़े थे कि कांग्रेस सत्ता में अपनी बारी होने के बावजूद सत्ता से दूर हो गयी। हम आपको बता दें कि केरल में काफी समय से एक बार वामदलों के नेतृत्व वाली और अगली बार कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार आती रही थीं लेकिन केरल कांग्रेस में मचे घमासान के चलते वामदलों ने सत्ता में वापसी कर इतिहास रच दिया था। उत्तराखंड में भी विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस की भीतरी लड़ाई पार्टी को सत्ता से दूर ले गयी। वर्ना इस पहाड़ी राज्य में भी जनता भाजपा और कांग्रेस को बारी-बारी से सत्ता सौंपती रही है। दिल्ली में भी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल की आपसी लड़ाई से कांग्रेस को नुकसान पहुँचा था।
कांग्रेस क्यों बनी डूबता जहाज?
कांग्रेस के सामने राज्यों में यह जो समस्याएं हैं यह आज की नहीं हैं। काफी समय से चल रही हैं। लेकिन पार्टी इन समस्याओं का हल नहीं निकाल पा रही है। नेतृत्व में शिथिलता के चलते राज्यों में कांग्रेस की इकाइयों का संकट बढ़ता जा रहा है। जिन नेताओं का कुछ आधार है और जिन्हें यह लग रहा है कि अब कांग्रेस में आधार को देख कर आगे नहीं बढ़ाया जाता है वह अपने लिये कोई दूसरा दरवाजा तलाश रहे हैं। कांग्रेस ने यदि जनाधार वाले नेताओं की कद्र की होती तो हिमंत बिस्व सरमा उसके साथ होते और असम कांग्रेस के हाथ से गया नहीं होता। कांग्रेस यदि जनाधार वाले नेताओं की कद्र करती तो एन. बिरेन सिंह, माणिक साहा जैसे नेता उसका साथ छोड़ कर गये नहीं होते और आज मणिपुर और त्रिपुरा में अलग स्थिति भी हो सकती थी। इसके अलावा, नेतृत्व जब कमजोर होता है तभी इस तरह की खबरें आती हैं कि गोवा के अधिकांश कांग्रेस विधायक भाजपा में चले गये हैं या मेघालय में कांग्रेस के सारे विधायक किसी और पार्टी में चले गये हैं। ऐसी घटनाओं पर कांग्रेस सख्त रुख नहीं दिखा पाती जिससे अन्य राज्यों में भी ऐसे घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति होती रहती है।
बहरहाल, कांग्रेस का जिस तेजी से पतन हो रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए सही नहीं है क्योंकि कोई नहीं चाहेगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी खत्म हो जाये। लेकिन यह बात भी सही है कि कांग्रेस को बचाने का काम उसके नेताओं को खुद ही करना है। दूसरा गठबंधन की राजनीति को नये सिरे से आगे बढ़ाने की कोशिश में जुटे वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व को अकड़ छोड़ते हुए पुराने नेताओं का मार्गदर्शन लेना चाहिए। यह खुद को सर्वश्रेष्ठ मान कर चलने का ही नतीजा है कि एक ओर खरगे 19 दलों के नेताओं के साथ संवाददाता सम्मेलन करके मोदी सरकार को घेरते हैं और दूसरे ही दिन उन 19 में से अधिकांश नेताओं के सुर बदलने लग जाते हैं।