कर्नाटक सरकार ने विधानसभा चुनावों से पहले एक बड़ा कदम उठाते हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण समाप्त करके इसे राज्य के दो प्रमुख समुदायों के मौजूदा आरक्षण के साथ जोड़ दिया है। कर्नाटक में अब अल्पसंख्यकों के लिए चार फीसदी आरक्षण समान रूप से वितरित किया जाएगा और राज्य के वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के मौजूदा आरक्षण में जोड़ा जाएगा। दरअसल कर्नाटक सरकार ने वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के लिए पिछले साल बेलगावी विधानसभा सत्र के दौरान 2सी और 2डी की दो नयी आरक्षण श्रेणियां बनाई गईं थीं। कर्नाटक मंत्रिमंडल ने अब धार्मिक अल्पसंख्यकों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की श्रेणी के तहत लाने का फैसला किया है। राज्य सरकार के इस फैसले के चलते वोक्कालिगा और अन्य के लिए चार प्रतिशत आरक्षण बढ़कर छह प्रतिशत हो जाएगा जबकि वीरशैव पंचमसाली और अन्य (लिंगायत), जिन्हें पांच प्रतिशत आरक्षण मिल रहा था, उन्हें अब सात प्रतिशत मिलेगा।
इस फैसले के खिलाफ जो लोग आवाज उठा रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि सबसे पहली बात तो यही है कि धर्म के आधार पर आरक्षण देना बिल्कुल गलत है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 14 कहता है कि सभी भारतीय एक समान हैं और सबको कानून का समान संरक्षण प्राप्त है। आर्टिकल 15 कहता है कि जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र, जन्मस्थान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा और आर्टिकल 16 कहता है कि हिंदू हो या मुसलमान, नौकरियों में सबको समान अवसर मिलेगा। यही नहीं, 26 मई 1949 को संविधान सभा में आरक्षण पर बहस के दौरान अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने के प्रश्न पर आम राय थी लेकिन धार्मिक आधार पर आरक्षण देने पर अत्यधिक विरोध था। पंडित नेहरू ने भी कहा था कि पंथ आस्था मजहब आधारित आरक्षण गलत है लेकिन तब तक अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान हो चुका था। उस समय संविधान सभा के सदस्य तजम्मुल हुसैन ने जोर देकर कहा था कि हम अल्पसंख्यक नहीं हैं, अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों की खोज है। अंग्रेज यहां से चले गए, इसलिए इस शब्द को डिक्शनरी से हटा दीजिए। उन्होंने कहा था कि अब हिंदुस्तान में कोई अल्पसंख्यक नहीं है, हम सब भारतीय हैं। तजम्मुल हुसैन के भाषण पर संविधान सभा में खूब तालियां बजी थीं।
जो लोग धर्म के आधार पर मुस्लिमों के लिए आरक्षण मांगते हैं उनसे सवाल यह है कि क्या उस समुदाय को अल्पसंख्यक कह सकते हैं जो भारत के 200 से ज्यादा जिलों में पार्षद-प्रधान का भविष्य तय करता हो, लगभग 200 लोकसभा क्षेत्रों में सांसद का भविष्य तय करता हो और लगभग 1000 विधान सभा क्षेत्रों में हार जीत का निर्धारण करता हो। संविधान में सभी नागरिकों को बराबर अधिकार मिला हुआ है इसलिए अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर समाज का विभाजन बंद किया जाए अन्यथा दूसरा उपाय यह है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा और जिलेवार अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा-निर्देश तय किये जाएं और यह सुनिश्चित किया जाए कि केवल उसी समुदाय को संविधान के अनुच्छेद 29-30 का संरक्षण मिले जो वास्तव में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावहीन हो और संख्या में नगण्य हों।