सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने बहुमत से केंद्र सरकार के नोटबंदी के जिस निर्णय अब वैध ठहराया, उसे तो देश की जनता 2019 के चुनाव में वैध करार दे चुकी थी। नोटबंदी का निर्णय आठ नवंबर 2016 को लिया गया। इसके तहत पांच सौ और एक हजार के नोट बंद करने की केंद्र सरकार की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ नवंबर की रात आठ बजे की। इस घोषणा के साथ ही इन बंद हुए नोट को बदलने के लिए 52 सप्ताह का समय भी दिया गया। नोटबंदी को लेकर विपक्ष ने खूब हंगामा किया। मीडिया ने भी जनता की परेशानी को लेकर खूब खबरें कीं। बैंकों के बाहर लगी जनता की लंबी−लंबी लाइन को खूब छापा। इसके बाद 2019 में आम चुनाव हुआ। मीडिया और विपक्ष का कहना था कि नोट बंदी से जनता, व्यापारी और आम आदमी को बड़ी परेशानी हुई, किंतु इस चुनाव में जनता ने भाजपा को 2014 के चुनाव से ज्यादा वोट दिए। ज्यादा सीटें दीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में 336 सीटों के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन और 282 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। वहीं 2019 के चुनाव में भाजपा ने 303 सीटों पर जीत हासिल की और अपने पूर्ण बहुमत बनाये रखा और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 353 सीटें जीतीं। इस चुनाव में अकेले भाजपा को 21 सीट ज्यादा मिली। भाजपा नीत गठबधंन को 2014 से 17 सीटें ज्यादा मिलीं। भाजपा ने 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए, जबकि भाजपा नीत गठबंधन का संयुक्त वोट शेयर 45 प्रतिशत रहा। विपक्ष के अनुसार अगर नोट बंदी गलत थी और इससे जनता, व्यापारी और आम आदमी परेशान रहा तो भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ता।
दरअसल इस नोटबंदी से परेशानी हुई नंबर दो का काम करने वालों को। रिश्वतखोर अधिकारियों को। उन्होंने अपनी नंबर दो की पूंजी को नंबर एक कराने के लिए अपने कर्मचारी को अच्छी खासी रकम भेंट स्वरूप दी। लेखक एक ऐसे शिक्षण संस्थाओं के ग्रुप को जानता है, जिसने नोटबंदी होते ही स्टाफ के खाते में एडवांस सैलरी के रूप में डेढ़-डेढ़ लाख रुपये डाल दिए। अपने पूरे स्टाफ को नोट बदलवाने के लिए बैंकों की लाइन में लगा दिया। इसके लिए कमीशन अलग से दिया गया।
आम आदमी और मजदूर तो इस बात से प्रसन्न हुआ कि नोटबंदी से उसका शोषण करने वाला ठेकेदार और बड़ा व्यापारी परेशान है। वह अपनी नंबर दो की रकम नंबर एक में कराने के लिए उसके सामने गिड़गिड़ा रहा है। अपने नोट बदलवाने के लिए उसे कमीशन में अच्छी रकम भी दे रहा है। उधर केंद्र सरकार ये संदेश देने में कामयाब रही कि नोटबंदी आम आदमी के लिए नहीं, बड़े-बड़े रिश्वतखोर और अवैध रूप से रकम एकत्र करने वाले बड़े व्यापारियों और तस्करों के खिलाफ है। इसीलिए 2019 के चुनाव में जनता ने वाटों से भाजपा की झोली भर दी।
सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने चार−एक के वोट से सोमवार को नोटबंदी को सही ठहराया। जस्टिस एस अब्दुल नजीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामसुब्रमण्यम और जस्टिस बीवी नागरत्ना इस सविंधान पींठ में शामिल थे। चार जजों ने नोटबंदी को सही ठहराया जबकि जस्टिस बीवी नागरत्ना ने बाकी चार जजों की राय से अलग फैसला लिखा। उन्होंने कहा कि नोटबंदी का फैसला गैरकानूनी था। इसे गजट नोटिफिकेशन की जगह कानून के जरिए लिया जाना था। हालांकि उन्होंने कहा कि इसका सरकार के पुराने फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा- नोटबंदी से पहले सरकार और आरबीआई के बीच बातचीत हुई थी। इससे यह माना जा सकता है कि नोटबंदी सरकार का मनमाना फैसला नहीं था। संविधान पीठ ने सरकार के फैसले को सही तो ठहराया लेकिन बेंच में शामिल जस्टिस बीवी नागरत्ना ने इसके लिए अपनाई गई प्रोसेस को गलत ठहराया।
उल्लेखनीय है कि सरकार की तरफ से आनन-फानन में की गई नोटबंदी के विरुद्ध देश के अलग-अलग हाईकोर्ट में कुल 58 याचिकाएं दाखिल हुई थीं। इन याचिकाओं में कहा गया था कि सरकार ने आरबीआई कानून 1934 की धारा 26(2) का इस्तेमाल करने में गलती की है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी की सुनवाई एक साथ करने का आदेश दिया। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26(2) किसी विशेष मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों को पूरी तरह से रद्द करने के लिए सरकार को अधिकृत नहीं करती है। यह केंद्र को एक खास सीरीज के करेंसी नोटों को रद्द करने का अधिकार देती है, न कि संपूर्ण करेंसी नोटों को। मामले की सुनवाई के दौरान पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता पी चिदम्बरम ने दलील दी थी कि केंद्र सरकार खुद ऐसा कोई फैसला नहीं ले सकती और ऐसा केवल आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की सिफारिशों पर किया जा सकता है।
इस मामले में केंद्र सरकार ने कहा था कि नोटबंदी का फैसला रिजर्व बैंक के केंद्रीय निदेशक मंडल की सिफारिश पर ही लिया गया था। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने कहा था- नोटबंदी सरकार का बिना सोचा-समझा कदम नहीं था, बल्कि आर्थिक नीति का हिस्सा था। उन्होंने कहा था कि आरबीआई और केंद्र सरकार एक-दूसरे के साथ सलाह-मशविरा करते हुए काम करते हैं। उधर आरबीआई ने कोर्ट को बताया था कि सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग के दौरान आरबीआई जनरल रेगुलेशंस, 1949 की कोरम से जुड़ी शर्तों का पालन किया गया था। इस मीटिंग में आरबीआई गवर्नर के साथ-साथ दो डिप्टी गवर्नर और आरबीआई एक्ट के तहत नॉमिनेटेड पांच डायरेक्टर शामिल हुए थे।
सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कहा था कि यह जाली करेंसी, टेरर फंडिंग, काले धन और कर चोरी जैसी समस्याओं से निपटने की प्लानिंग का हिस्सा और असरदार तरीका था। यह इकोनॉमिक पॉलिसीज में बदलाव से जुड़ी सीरीज का सबसे बड़ा कदम था। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि नोटबंदी से नकली नोटों में कमी, डिजिटल लेन-देन में बढ़ोत्तरी, बेहिसाब आय का पता लगाने जैसे कई लाभ हुए हैं। अकेले अक्टूबर 2022 में 730 करोड़ का डिजिटल ट्रांजैक्शन हुआ, यानी एक महीने 12 लाख करोड़ रुपए का लेन-देन रिकॉर्ड किया गया है। जो 2016 में 1.09 लाख ट्रांजैक्शन, यानी करीब 6,952 करोड़ रुपए था। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने नोटबंदी को सही ठहराने का फैसला सुनाते हुए कहा कि इस मामले में सरकार की नीति और नीयत ठीक थी। साथ ही इसके लिए केंद्र सरकार ने आरबीआई से मशविरा भी लिया था। लिहाजा नोटबंदी पर सवाल उठाने वाली सभी याचिकाएं खारिज की जाती हैं। हालांकि कोर्ट ने साफ कर दिया था कि नोटबंदी के फायदे-नुकसान के आधार पर वह फैसला नहीं सुना रहा है।
एक और बात कि यह कोई पहला मौका नहीं था, जब भारत में पुराने नोटों को डिमोनेटाइज कर उनकी जगह पर नए नोट जारी किए गए थे। इससे पहले भी देश में इसी प्रकार से डिमोनेटाइजेशन का फैसला कर पुराने नोटों की जगह पर नए नोटों को प्रचलन में लाया गया। देश में सबसे पहले नोटबंदी का एलान ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान किया गया। भारत के वायसराय और गर्वनर जनरल सर आर्चीबाल्ड वेवेल ने 12 जनवरी 1946 में हाई करेंसी वाले बैंक नोट डिमोनेटाइज करने को लेकर अध्यादेश प्रस्तावित किया था। इसके 13 दिन बाद यानी 26 जनवरी रात 12 बजे के बाद से ब्रिटिश काल में जारी 500 रुपये, 1000 रुपये और 10000 रुपये के हाई करेंसी के नोट प्रचलन से बाहर हो गए। आजादी से पहले 100 रुपये से ज्यादा के नोटों पर प्रतिबंध लगाया गया था। उस वक्त यह फैसला लोगों के पास जमा कालाधन वापस लाने के लिए किया गया था। ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने, भ्रष्टाचार की जड़ों को कमजोर करने और कालेधन को खत्म करने के लिए नोटबंदी का फैसला लिया गया। तत्कालीन जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने 16 जनवरी 1978 को 1000 रुपये, 5000 रुपये और 10000 हजार रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा की। सरकार ने इस नोटबंदी की घोषणा के अगले दिन यानी 17 जनवरी को लेनदेन के लिए सभी बैंकों और उनकी ब्रांचों के अलावा सरकारों के खजाने को बंद रखने का फैसला किया।
लोकतंत्र में मतदाता सर्वोपरि है, उसका निर्णय सर्वमान्य है। वह सरकार के अच्छे काम पसंद करता है, उसकी गलती माफ करना आम मतदाता को मान्य नहीं है। इसीलिए यदि नोटबदीं गलत थी, जनता को परेशानी हुई थी। नुकसान हुआ था तो भाजपा की 2019 में बुरी तरह पराजय होनी चाहिए थी। 2014 के चुनाव से ज्यादा सीट और ज्यादा वोट देकर जनता ने भाजपा की नीतियों का ही समर्थन नहीं किया, अपितु एक तरह से नोटबदीं को भी जायज ठहराया।