क्या हिम मानवों से मिली ऊंचाई पर रहने की क्षमता

क्या हिम मानवों से मिली ऊंचाई पर रहने की क्षमता

पहाड़ी किस्सों और किवदंतियों के किरदार हिम मानव यानी कि येति कौन थे। उनका अस्तित्व था भी या केवल कपोल कल्पित कल्पना। अब इन रहस्यों से वैज्ञानिक जल्द ही पर्दा उठाएंगे। साथ ही लद्दाख के हॉट स्प्रिंग एरिया घाटियों लद्दाख के लोगों और तमाम संसाधनाें पर से चीनी दावों को खारिज किया जा सकेगा।


काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिमालय के पहले मानव की ओरिजिन विस्तार और उनकी विकास यात्रा पर रिसर्च शुरू हो गया है। जूलॉजी विभाग के जीन वैज्ञानिक प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे और उनकी टीम के 15 रिसर्चरों ने करीब 18 हजार फीट की ऊंचाई पर जाकर इंसानों दो कूबड़ वाले ऊंटों चींटा और गर्म पानी के जलस्रोतों के सैंपल जुटाए हैं। इससे हिमालय में एनिमल बायो डायवर्सिटी काे समझने में मदद मिलेगी।


3 लाख आबादी वाले लद्दाख से शुरू हुआ यह रिसर्च पांच साल तक चलेगा। प्रो. चौबे की टीम ने लेह स्थित चांगपा जनजाति बस्तियों का जियो टैगिंग भी किया। लेह घाटी चामथांग घाटी और मूंगा घाटी से लेकर गरम पानी के नेचुरल कुंड और पैंगोंग लेक से सैंपल लिए गए हैं।


प्रो. चौबे ने बताया हिमालय पर पहले ज्ञात इंसान डेनिशॉवन जाति के थे। इनका अस्तित्व 40 हजार साल पहले ही खत्म हो गया। कुछ लोग इन्हें भी हिम मानव कहते हैं। वहीं पूर्व के रिसर्च में साबित हो चुका है कि इन लोगों में पाए जाने वाला EPAS 1 जीन ही ऊंचाई वाले (हाई एल्टीट्यूड) क्षेत्रों में रहने के लिए मदद करता था। मैदानी लोगों में यह जीन नहीं देखा गया। वहीं 40 हजार साल पहले इनका आधुनिक हिमालयी मानवों के साथ मेल-मिलाप हुआ था। डेनिशवन तो विलुप्त हो गए मगर उनका जीन आज भी हिमायली जनजातियों में मौजूद है। इस रिसर्च के बाद यह जान सकेंगे कि हिम मानवों का क्या वजूद है।


कम ऑक्सीजन और माइनस 40 तापमान में सर्वाइवल कैसे संभव


राखीगढ़ी उत्खनन में रहे पुराविद प्रोफेसर वसंत शिंदे ने कहा इस रिसर्च यह पता चलेगा कि इतनी ऊंचाई पर कम ऑक्सीजन में लोग कैसे सरवाइव कर रहे। माइनस 30-40 डिग्री सेल्सियस ठंड सहने के बाद भी कोई बीमारी नहीं होती। आखिरकार इनके पीछे जिम्मेदार जीन का इतिहास क्या है। लद्दाख की किन-किन जातियों में पाया जाता है। सारे सैंपल BHU और CCMB हैदराबाद में एनालिसिस किए जाएंगे।


दो कूबड़ वाले ऊंटों पर रिसर्च

भारत में केवल लद्दाख ही वह जगह है जहां पर दो हंप यानी कूबड़े वाले ऊंट पाए जाते हैं। चाइना के सिल्क रुट के समय व्यापारिक कामों में इनका इस्तेमाल होता था। वैज्ञानिकों ने इनका भी सैंपल जुटाया है। बताया जाता है कि इस तरह के ऊंट मंगोलिया की नुब्रा घाटी में पाए जाते हैं।


चीन के दावों को भी खारिज किया जाएगा

इस रिसर्च से चीनी दावों को भी खारिज किया जा सकेगा कि लद्दाख के लोग उनसे संबंधित थे। चीन रह-रहकर पैंगोग लेक और हॉट स्प्रिंग एरिया समेत कई जगहों पर दावा ठोकता रहता है। वैज्ञानिकों ने जवाब देने के लिए इन सारे जगहों से स्टडी के लिए सैंपल जुटाया है।


पूरे देश के वैज्ञानिक रहे शामिल

BHU के वैज्ञानिकों की टीम ने यूनिवर्सिटी ऑफ लेह के वाइस चांसलर प्रो. एसके मेहता से मुलाकात कर वैज्ञानिक शोधों के एक्सचेंज पर भी चर्चा किया। उस स्कूल में भी गए जहां पर थ्री इडियट फिल्माया गया था। सदस्यों ने नोमेडिक बच्चों के रिहायशी स्कूल में इस रिसर्च के उद्देश्यों से परिचित कराया। इस रिसर्च टीम में BHU से डॉ. सचिन तिवारी डॉ. चंदना बसु डॉ. राहुल मिश्रा उरग्यन चोरोल प्रज्ज्वल प्रताप सिंह अंशिका श्रीवास्तव देबश्रुति दास अद्दितिया बंदोपाध्याय रुद्र पांडे वान्या सिंह और CSIR-CCMB से प्रो. वसंत शिंदे डॉ. नागार्जुन पदमश्री डॉ. त्सेरिंग नोरबू और हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी एंड एलाइड साइंसेज की निदेशक डॉ. सोनम स्प्लांजिन और डॉ. स्टैनजेन शामिल थे।


भारतीय सेना और मेसनर ने किया था येति देखने का दावा


किस्से-किंवदंतियों और फिल्मों में दिखाया जाने वाला येति बड़े झबरे बालों वाला विशालकाय जीव माना जाता है। इसे कुछ लोग इंसानों तो कुछ बड़े बंदरों से जोड़ते हैं। जैसा कि बताया जाता है इनके पैरो के पंजे काफी बड़े होते हैं। हिमालय के बर्फीले एरिया में घूमते रहते हैं। साल 2019 में भारतीय सेना ने दावा किया था कि उसकी पर्वतारोही टीम ने नेपाल में मकालू बेस कैंप के पास येति के पैरों के निशान देखे हैं। मगर सिद्ध नहीं हो सका। कुछ लोग कहते हैं कि येति हिमालय की लोक-कथाओं में ही मिलता है। पहाड़ी जाति शेरपा इसे खूब प्रचारित करती है। ब्रिटिश पर्वतारोही रीनहोल्ड मेसनर ने कई बार येति देखने का दावा किया है। उनका दावा था कि 1980 के दशक में हिमालय में येति को देखा था। उनका कहना है कि येति और कोई जानवर नहीं बल्कि एक भालू है। येति के पैरों के जो भी निशान दिखे हैं वो भालू के हैं।

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